Aaj Ka Itihas 5 November: एक ही तारीख दो महान कलाकारों को याद करने का दिन

Aaj Ka Itihas 5 November: 5 नवंबर कला और संगीत जगत के लिए खास—इस दिन भूपेन हजारिका और बी. आर. चोपड़ा ने दुनिया को अलविदा कहा था।

Jyotsana Singh
Published on: 4 Nov 2025 5:12 PM IST
Aaj Ka Itihas 5 November Bhupen Hazarika and Br Chopra Death Anniversary
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Aaj Ka Itihas 5 November Bhupen Hazarika and Br Chopra Death Anniversary

Aaj Ka Itihas 5 November: भारत के मशहूर शास्त्रीय संगीत गायक भूपेन हजारिका की भारी और गहरी आवाज़ में जब उनका गया गीत 'दिल हूम-हूम करे' हवाओं में आज भी गूंजता है तो हर कोई बस इस गीत की गहराई में डूब जाना चाहता है। वहीं जब प्रसिद्ध भारतीय फिल्म निर्देशक और निर्माता बी. आर. चोपड़ा (बलदेव राज चोपड़ा) का सुपरहिट धारावाहिक 'महाभारत' की शुरुआत में 'मैं समय हूं के उद्घोष के साथ गूंजते हुए शंख की ध्वनि आज भी सुनाई देती है, तो अहसास होता है कि जैसे हम वापस उसी युग में लौट चुके हैं।

भारतीय कला और सिनेमा की दुनिया में 5 नवंबर का दिन हमेशा याद किया जाएगा। यह वही दिन है जब संगीत के महानायक भूपेन हजारिका और सिनेमा के दिग्गज बी. आर. चोपड़ा ने इस दुनिया को अलविदा कहा। दोनों ही अपने क्षेत्र के ऐसे सितारे थे जिन्होंने भारतीय समाज की आत्मा को अपने सुरों और कहानियों में पिरोया। एक ने इंसानियत को संगीत के माध्यम से जोड़ा, तो दूसरे ने महाकाव्य और सामाजिक कथाओं के जरिए हर घर तक अमूल्य विचार पहचाने का काम किया। आइए जानते हैं, इन दो अमर हस्तियों की जीवन-यात्रा और योगदान के बारे में-

भूपेन हजारिका - असम की मिट्टी से उठी एक सुरीली आवाज़

8 सितंबर 1926 को असम के सदिया में जन्मे डॉ. भूपेन हजारिका सिर्फ गायक नहीं, बल्कि लोक संस्कृति के वाहक थे। उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत एक बाल कलाकार के रूप में असमिया फिल्म ‘इंद्रमालती’ से की थी। लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने गीतों के ज़रिए समाज, प्रेम और मानवीय संवेदनाओं की ऐसी धारा बहाई, जो सीमाओं से परे जा पहुंची। हजारिका अपने गीत खुद लिखते, संगीतबद्ध करते और गाते थे। यहीं से उनकी पहचान सिर्फ गायक के तौर पर ही नहीं बल्कि उनके भीतर छिपी रचनाकार की प्रतिभा ने उन्हें बतौर गीतकार भी स्थापित किया।

समाज की पीड़ा, इंसानियत और एकता की गहराई दर्शाते थे भूपेन हजारिका के गीत

भूपेन हजारिका के गीत सिर्फ मनोरंजन नहीं थे, बल्कि उनमें समाज की पीड़ा, इंसानियत और एकता की गहराई झलकती थी। उन्होंने ‘एरा बतर सुर’ (1956), ‘शकुंतला’ (1960), ‘प्रतिध्वनि’ (1964) और ‘लोटीघोटी’ (1967) जैसी असमिया फिल्मों का निर्माण, निर्देशन, संगीत और गायन किया। इसके साथ ही बंगाली फिल्मों ‘जीवन तृष्णा’, ‘जोनाकिर आलो’ और ‘चमेली मेमसाब’ में भी उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी। हिंदी फिल्म ‘रुदाली’ (1993) का मशहूर गीत ‘दिल हूम-हूम करे’ भूपेन हजारिका की ही असमिया रचना ‘बुकु होम होम करे’ का रूपांतर था। इस गीत ने उन्हें पूरे देश में पहचान दिलाई। उनके सुरों में सिर्फ संगीत नहीं बल्कि प्रेम, पीड़ा जैसी वेदनाएं भी रची बसी थीं।

पत्रकारिता से संगीत तक का सफर

बहुत कम लोग जानते हैं कि हजारिका एक प्रशिक्षित पत्रकार भी थे। उन्होंने 1940 के दशक में प्रतिष्ठित कोलंबिया विश्वविद्यालय से मास कम्युनिकेशन में पढ़ाई की थी। एक रिपोर्टर के रूप में उन्होंने चीनी युद्ध को कवर किया, और उसी अनुभव से उन्होंने बोमडिला में भारतीय सैनिकों के शवों के बीच बैठकर ‘कोतो जुवानोर मृत्यु होल’ जैसा मार्मिक गीत लिखा। यह गीत युद्ध की त्रासदी और मानवता की वेदना का प्रतीक बन कर बेहद लोकप्रिय हुआ।

पुरस्कारों से सजा लंबा सफर

भूपेन हजारिका को भारत रत्न से पहले ही कई बड़े पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार (1992), पद्म भूषण (2001), संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (2009) और असम रत्न (2009) जैसे सम्मानों से नवाजा गया। 1993 में जापान के एशिया-पैसिफिक इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में उन्हें ‘रुदाली’ के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार मिला। यह उपलब्धि पाने वाले वे पहले भारतीय थे।

अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी संगीत के प्रति उनका प्रेम बरकरार रहा। उन्होंने अपना आखिरी जन्मदिन 8 सितंबर 2011 को अस्पताल में मनाया, जहां उनके चाहने वाले बाहर खड़े होकर उनके गीत गा रहे थे। कुछ ही हफ्तों बाद, 5 नवंबर 2011 को उन्होंने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं।

बी. आर. चोपड़ा - दिल को छू लेने वाली कहानियों के ज़रिए समाज को जोड़ने वाले निर्देशक

भूपेन हजारिका की तरह ही बी. आर. चोपड़ा ने भी अपने सृजन से भारतीय समाज और सिनेमा को एक नई पहचान दी। 22 अप्रैल 1914 को लुधियाना (पंजाब) में जन्मे बलदेव राज चोपड़ा ने लाहौर यूनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी में एम.ए. किया। फिल्मों के प्रति उनका जुनून उन्हें पत्रकारिता से निर्देशन तक ले गया। जहां उन्हें दर्शकों के दिलों पर अपनी अमित पहचान कायम की।

विभाजन की त्रासदी से मुंबई की फिल्म नगरी तक

विभाजन के समय लाहौर में हुए दंगों के कारण उनकी पहली फिल्म ‘चांदनी चौक’ अधूरी रह गई। इसके बाद उन्होंने 1947 में मुंबई आकर बसने का फैसला किया। यहां उन्होंने 1948 में ‘करवट’ फिल्म बनाई, जो असफल रही। लेकिन 1951 की फिल्म ‘अफसाना’ ने उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में नई पहचान दिलाई।

बी. आर. फिल्म्स- जहां से निकलीं भारतीय पर्दे की कालजयी फिल्में

1955 में बी. आर. चोपड़ा ने बी. आर. फिल्म्स नाम से अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू किया। इस बैनर के तले ‘नया दौर’, ‘साधना’, ‘कानून’, ‘गुमराह’, ‘धर्मपुत्र’ जैसी कालजयी फिल्में बनीं। इन फिल्मों में न सिर्फ पारिवारिक मूल्य और नैतिकता झलकी, बल्कि उन्होंने समाज को सोचने पर भी मजबूर किया।

टेलीविजन पर बेहद लोकप्रिय रहा था ‘महाभारत’ महागाथा

1988 में जब उन्होंने टेलीविजन पर ‘महाभारत’ बनाने का निर्णय लिया, तो किसी ने नहीं सोचा था कि यह सीरियल भारतीय टीवी इतिहास की सबसे लोकप्रिय गाथा बन जाएगा। लगभग 9 करोड़ रुपये की लागत से बनी यह श्रृंखला आज भी यादों में ज़िंदा है और लोग इसे देखना पसंद करते है।

बी. आर. चोपड़ा ने इसके प्रोडक्शन की जिम्मेदारी संभाली जबकि उनके बेटे रवि चोपड़ा ने निर्देशन किया। रूपा गांगुली द्वारा निभाई गई द्रौपदी की भूमिका अमर हो गई, हालांकि शुरुआती तौर पर इसके लिए जूही चावला को विचार किया गया था। लेकिन जूही चावला ने एक टाइप्ड इमेज के डर से काम करने से इंकार कर दिया था।

भारतीय सिनेमा में अंतिम पड़ाव और सम्मान

बी. आर. चोपड़ा की आखिरी फिल्म ‘भूतनाथ’ (2008) थी, जिसमें अमिताभ बच्चन ने मुख्य भूमिका निभाई। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल रही और उनके जीवन की आखिरी रचना साबित हुई। उसी वर्ष 5 नवंबर 2008 को उन्होंने 94 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली।

उनके योगदान को कई बड़े सम्मानों से सराहा गया, जिनमें दादा साहब फाल्के पुरस्कार (1998), पद्म भूषण (2001), राष्ट्रीय रजत पदक (1961 धर्मपुत्र) और फिल्मफेयर पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक (कानून) शामिल हैं। 5 नवंबर कला और सिनेमा की दुनिया के लिए एक गहरा भावनात्मक दिन है। यह वही तारीख है जब दो ऐसे रचनाकार भूपेन हजारिका और बी. आर. चोपड़ा ने इस दुनिया को छोड़ दिया, लेकिन उनकी पहचान उनके योगदान के जरिए आज भी हमारे बीच जिंदा हैं। भूपेन हजारिका ने संगीत को इंसानियत की भाषा बनाया और बी. आर. चोपड़ा ने सिनेमा को समाज का आईना। दोनों ने अपनी कला से वह पुल बनाया जो दिलों और पीढ़ियों को जोड़ने का काम आज भी बखूबी कर रहा है।

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