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समाज के आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म चिंतन का है सही समय
Questions For Society: हमारा समाज किस ओर जा रहा है? ये एक ऐसा सवाल है जो पिछले काफी समय से लोगों के ज़हन में घूम रहा है, रिश्तों पर विश्वास करना भी कठिन होता जा रहा है।
Questions For Society (Image Credit-Social Media)
Questions For Society: बीता सप्ताह बहुत अधिक गहमागहमी वाला और स्तब्ध कर देने वाली घटनाओं वाला रहा। एयर इंडिया के बोइंग की हृदय विदारक दुर्घटना ने हर पढ़ने-सुनने और जानने वालों को न केवल स्तब्ध कर दिया बल्कि दुःख और विस्मय की परिधि में भी बांध दिया। इसकी आंतरिक जांच ही हमें इसके असली कारण तक पहुंचा पाएगी। जांच का नतीजा कुछ भी हो, जिन परिवारों ने अपने परिजनों को इस हादसे में खोया है उनके लिए यह कभी भी न भर सकने वाला घाव है।
एक दूसरी घटना जो कि पिछले कई दिनों से प्रत्येक नागरिक का ध्यान आकर्षित कर रही थी वह थी राजा रघुवंशी हत्याकांड। कहानी आप सभी जानते ही हैं इसलिए उसकी पुनरावृत्ति उचित नहीं पर इस घटना ने एक अनुत्तरित प्रश्न हम सबके सामने फेंका है कि हमारा समाज किस ओर जा रहा है। समाज में परिवर्तन होते हमें दिखाई दे रहे हैं, अच्छे भी और बुरे भी।
स्त्री शिक्षा जहां उसके लिए स्वतंत्रता, और अधिक अधिकार लाई है, एक बेहतरीन मंच और बराबर भागीदारी के दरवाजे भी खोले हैं पर यह स्वतंत्रता कब स्वेच्छाचारिता में बदल गई है, यह प्रश्न अब समाज के सामने अपने उत्तर की प्रतीक्षा में खड़ा है।
यह सही है की स्वतंत्रता की आड़ में समाज न तो पुरुष को और न ही स्त्री को वह छूट देता है जो कि अनाधिकृत हो पर यह भी सच है की कहीं एक समान भागीदारी की अवधारणा और सिद्धांत के कारण हम दोनों की भिन्नताओं और विविधताओं की उपेक्षा कर रहे हैं और साथ ही उन विशिष्टताओं को भी दबा रहे हैं जो कि उनकी अपनी मौलिक पहचान है। इसलिए पिछले महीने सामने आए सौरभ हत्याकांड और अभी सामने आए राजा हत्याकांड हमारे समाज के कौन से चेहरे को और कौन सी विसंगतियों पर से नकाब हटा रहे हैं, यह हमें देखना होगा। समाज के मूल्यों की अभिव्यक्ति का इतना पतन! यह सिर्फ एक हत्या या दंडनीय कानूनी अपराध नहीं है बल्कि समाज के हिलते, डगमगाते ढांचे की भी कहानी है। इस समय सोशल मीडिया पर आती रील्स और मीम्स सिर्फ हस कर देखकर आगे बढ़ जाने के लिए नहीं है बल्कि उनके गहरे निहितार्थ हैं। आखिर क्यों जरूरत पड़ गई है इस तरह की रील्स और मीम्स को बनाने की और उनको पसंद करने की। जिसमें कि पुरुष को दिखाया गया है कि वह लव मैरिज करे या अरेंज मैरिज मौत तो दोनों में ही निश्चित है। लड़के के द्वारा शादी के लिए देखते समय लड़की को पूछा जा रहा है कि तुम्हारे पहले कितने बॉयफ्रेंड थे, अगर आज भी तुम्हें उनसे प्यार है तो तुम मेरी जान बख्श दो और वहीं जाकर शादी कर लो। यह भी रील आ रही है कि पुरुष कहता है कि अगर उसने शादी नहीं की तो समाज वाले ताने मार- मार कर जीने नहीं देंगे और शादी की तो बीवी नहीं जीने देगी। एक रील में यह भी था कि लड़का लड़की को पूछता है कि तुम्हें सब्जी काटनी आती है , चाकू चलाना आता है। नहीं..... जवाब सुनकर लड़का शादी के लिए यह कहते हुए हां कह देता है कि जिस लड़की को सब्जी काटना ही नहीं आती वह मुझे क्या काटेगी। ऐसी बहुत सी रील्स और मीम्स सोशल मीडिया पर बहुत आ रही हैं, देखी जा रही हैं।
हमें हर बात के मनोविज्ञान को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलना होगा। पुरुष हमेशा से ही खुद को स्वतंत्र और स्वायत्त इकाई मानता रहा है और हमेशा खुद ही कर्ता के रूप में भी रहा है लेकिन स्त्री को हमेशा उस आचरण को करने को बाध्य करता गया है जो कि शास्त्र, धर्म और समाज ने उसके लिए चुने हैं और निर्धारित किए हैं। इसलिए स्त्रियों को हमेशा शांत, संवेदनशील और स्वीकार कर लेने वाली ममता की मूरत के रूप में माना गया है। लेकिन जब हम इन लकीरों से बाहर निकलती स्त्री को देखते हैं तो यह समाज, यह पुरुष वर्ग सतर्क हो उठता है कि यह कैसे हो गया। जब अब तक स्त्रियां भयावह दहेज हत्याओं, बलात्कार और अन्य पीड़ा दायक मौतों और क्रूरता की शिकार होती रहीं तब भी यह सब अक्षम्य में ही रहना चाहिए था, अब जबकि स्त्रियां उलट इसके ये हत्याएं, ये सुपारी किलिंग वगैरह की घटनाओं को अंजाम देने में खुद मास्टरमाइंड की भूमिका निभा रही है तो हमारे समाज और हमारी सामाजिक व्यवस्था की एक-एक ईंट खिसकने लगी है क्योंकि यह हमारी सोच से, पारंपरिक दायरे से कहीं बाहर जा रहा है। स्त्री अकेले उनमें नहीं थी यहां भी वह पुरुष के संग ही ऐसी निकृष्टतम और अक्षम्य वारदातों को अंजाम दे रही थी। मामला सिर्फ स्त्री- पुरुष का नहीं है, प्रेम विवाह, अरेंज विवाह का भी नहीं है बल्कि उस संवेदनशीलता, उन मानवीय, सामाजिक मूल्यों की अवनति की परिणिति का है जो कि हमारे समाज को बेचैन कर गए हैं। समाज में अब यह बात उठने लगी है की लड़कियों का या लड़कों का अगर पहले से प्रेम प्रसंग है तो जबरदस्ती उनकी शादी ना करें और अपने शादीशुदा बच्चों को हमेशा अपने बातों के खुलेपन के लूप में रखें जहां पारदर्शिता और सुनवाई हो, जिससे वह अपने मन की बात अपने घर पर कह सकें ना कि दूसरे के जीवन लीला ही खत्म कर दें ।
यह बड़ी ही विषादपूर्ण स्थिति है जहां पहले न निभा पाने की दशा में तलाक लेकर अलग हो जाना एक मात्र हल था, वहीं अब सुपारी किलिंग जैसे घिनौने काम हमारे समाज में हो रहे हैं। यह घटना शिक्षा देती है कि कोई भी अपराध या अपराधी पैदा हो उससे पहले सचेत हो जाइए। प्रेम को मान्यता दीजिए और अगर यह वाकई संभव न हो तो भी अन्य माध्यमों को अपनाना चाहिए न कि इस तरह के हिंसक रास्तों को। शादी जैसा पवित्र गठबंधन में दोनों की सतर्कता और सहभागिता बनी रहनी चाहिए। दो अनजान एक सफर पर शारीरिक रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी एक दूसरे को स्वीकार करें। शब्दों के बीच संवाद हो न कि मौन की स्थिति हो, किसी भी रिश्ते में आक्रोश या दमन न हो बल्कि स्वीकृति और सहभागिता हो ।सामाजिक परिवेश को एक बार फिर से गढ़ने की आवश्यकता है ,उसकी नई सीमा को बनाने की आवश्यकता है। माता-पिता को बच्चों की भावनाओं को समझना होगा न कि अपनी नाक की चिंता करनी होगी। परिवार जब स्वस्थ होगा, तभी समाज स्वस्थ होगा।
आज जब स्त्रियां बाहर निकल कर काम कर रहीं हैं तो वह अपनी भावनाओं को भी बाहर व्यक्त करने लगी हैं । ऐसे में उनको अगर घर पर सही संबल नहीं मिलता है तो गलत कंधे का सहारा लेकर वे अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने लगती हैं और यही गलत संगत उनके साथ और उनके संग वालों की जिंदगी भी खत्म कर देती है। समझना होगा पुरुष और स्त्री दोनों को कि सशक्त होने, स्वतंत्र और समान होने का अर्थ स्वेच्छाचारिता नहीं। इसका अर्थ है समान अधिकार, समान कर्तव्य और समान उत्तरदायित्व एवं समान अवसर। प्रेम के नाम पर न तो पुरुष को और न ही स्त्री को हिंसक होने की स्वीकार्यता मिलनी चाहिए और न हीं अपनी देहापूर्ति के लिए अपराधी बनने को मंजूरी। कुछ गलत उदाहरण पूरे स्त्री समाज को कटघरे में खड़ा कर देते हैं और उनके ऊपर लांछन लगा दिए जाते हैं। असामाजिक विकृतियों और विसंगतियों के कारण खोजे जाने चाहिए और उनका तथ्यगत और तर्कपूर्ण समाधान खोजा जाना चाहिए। यह हमेशा ब्रेकिंग न्यूज़ न बने। नैतिकता आवश्यक है एक बोझ या बंधन के रूप में नहीं बल्कि समाज को पिरोने वाली एक माला के रूप में जहां सबको समान और बराबर स्थान मिले। पुरुष भी अपने स्वार्थ के लिए स्त्रियों को न ललचाए और न हीं स्त्रियां। समाज के आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म चिंतन का यह सही समय है।
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