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Baba Bhimrao Ambedkar Politics: अंबेडकर को हाथियार मत बनायें

Baba Bhimrao Ambedkar Politics: अंबेडकरवादी लोग ‘मनुवाद’ के नाम पर सामाजिक व्यवस्था को कलंकित करने का प्रयास कर रहे हैं।

Yogesh Mishra
Published on: 25 July 2025 7:30 PM IST
Baba Bhimrao Ambedkar
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Baba Bhimrao Ambedkar (Image Credit-Social Media)

Baba Bhimrao Ambedkar Politics: बहुजन समाज पार्टी के अध्यक्ष कांशीराम अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि सामाजिक संरचना को उथल-पुथल कर जड़ से समाप्त किया जाएगा और उसकी जगह एक नई व्यवस्था खड़ी की जाएगी। परंतु उन्हें यह समझना चाहिए कि कोई भी संरचना जो ‘ऊर्ध्वाधर’ यानी अनुशासनिक ढांचे पर आधारित है, उसे एकदम से समाप्त कर देना अव्यावहारिक और असंभव है। क्योंकि उस संरचना का एक क्षैतिज आयाम भी होता है जो समाज की संतुलित गतिशीलता को दर्शाता है।

स्वतंत्र भारत को शताब्दियों की गुलामी के बाद प्राप्त स्वराज्य को बनाए रखना हमारा कर्तव्य है। यदि भारत में किसी भी प्रकार की विदेशी या आंतरिक ‘पुष्ट’ शक्तियाँ सक्रिय होती हैं, तो यह स्वराज्य खतरे में पड़ सकता है। गुलामी के लंबे कालखंड का प्रभाव हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में ऐसा समाया है कि आज भी जातिगत संकीर्णता और मजहबी उन्माद भारतीयता को प्रभावित करते हैं। कुछ सिर आज भी मक्का और मदीना की ओर झुकने लगते हैं, जबकि उन्हें भारतमाता की ओर नतमस्तक होना चाहिए।

कांशीराम और उनके अनुयायी इन दिनों डॉ. भीमराव अंबेडकर को एक जातीय फ्रेम में बांधने का प्रयास कर रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि अंबेडकर किसी जाति विशेष के नहीं, पूरे भारतवर्ष के थे। उन्होंने अपने विचारों और संघर्षों के माध्यम से सामाजिक न्याय, समानता और मानव गरिमा की पुनर्स्थापना की।

अंबेडकर को सीमित न करें


भारतीय संविधान का निर्माण कर डॉ. अंबेडकर 20वीं शताब्दी के स्मृतिकार बन गए। 26 जनवरी 1950 को संविधान को समर्पित करते हुए उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि सभी भारतीय नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय और विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, पूजा की स्वतंत्रता और समान अवसर का अधिकार प्राप्त होगा। इसी आधार पर उन्हें ‘भारत का मनु’ कहा गया।

आज वही अंबेडकरवादी लोग ‘मनुवाद’ के नाम पर सामाजिक व्यवस्था को कलंकित करने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने जातीय विभाजन को हवा देकर राजनीतिक सत्ता प्राप्त की, पर यह कोई नई बात नहीं थी। भारतीय राजनीति हमेशा से जातीय और साम्प्रदायिक शक्तियों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। फर्क बस इतना है कि इस बार सत्ता पाने वाली जातीय ताकतें अब पराजित लोगों को हीनता का बोध करा रही हैं।

स्थापित शक्तियाँ आमूलचूल परिवर्तन की बातें कर रही हैं, जबकि वे जानती हैं कि ऐसा परिवर्तन न तो संभव है और न ही व्यवहारिक। यदि ऐसा होता तो बहुजन समाज पार्टी जैसी संरचनाएं भी अपने ही सिद्धांतों से समझौता करने को मजबूर न होतीं।

डॉ. अंबेडकर का सच्चा उत्तराधिकार

कोई भी संस्था एक संरचना पर आधारित होती है, जैसे किसी स्कूल में शिक्षकों के ऊपर प्रधानाचार्य होता है, उसके ऊपर शिक्षा अधिकारी, फिर निदेशक। इसे नकार कर अगर यह कहा जाए कि अब सब कुछ ‘समान’ होगा, तो यह व्यावहारिक नहीं होगा। यह सोच बचकानी और भ्रमकारी है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि ऐसी बातें करने वाले लोग स्वयं को डॉ. अंबेडकर का उत्तराधिकारी बताते हैं।

आज कुछ राजनीतिक दल अंबेडकर के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं, लेकिन यह ध्यान देना होगा कि महात्मा गांधी, विनोबा भावे, राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे महापुरुष किसी संगठन की बंधक संपत्ति नहीं बने, तो अंबेडकर को जातीय दायरे में समेटने की कोशिश क्यों?

अंबेडकर की दृष्टि और चेतावनी


अंबेडकर ने 5 फरवरी 1950 को संसद में चेतावनी दी थी कि भारत ने अपनी स्वतंत्रता अपने ही लोगों की गद्दारी के कारण खोई थी। उन्होंने सिंध के राजा दाहिर की पराजय का उदाहरण दिया, जिसमें कासिम की विजय का कारण दाहिर के सेनापतियों का रिश्वत लेना था। आज के ‘अंबेडकरवादी’ उसी परंपरा को दोहरा रहे हैं — अज्ञात कारणों और स्वार्थों के तहत।

आज अंबेडकर को जाति में बांधकर, उन्हें हथियार बनाकर सामाजिक असमानता का खेल खेला जा रहा है। यह अंबेडकर के उस संघर्ष का अपमान है जो उन्होंने आत्मसम्मान और प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए किया था।

अंबेडकर की राष्ट्रीय दृष्टि

डॉ. अंबेडकर हरिजन नेता के रूप में कटु हो सकते थे, लेकिन वे पूर्णतः राष्ट्रवादी थे। वे विश्व के महानतम विद्वानों में से एक थे। उन्होंने बौद्ध धर्म को इसलिए स्वीकार किया क्योंकि वह हिन्दू समाज के भीतर सुधारवादी आंदोलन था। 1936 के बंबई सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने से हमारी भारतवर्षीय पहचान कमजोर पड़ेगी। उन्होंने पाकिस्तान को लेकर स्पष्ट कहा था कि वहां गैर-मुस्लिमों की स्थिति हिटलर के समय यहूदियों जैसी होगी। इतनी स्पष्ट भविष्यदृष्टि अंबेडकर में थी।

उन्होंने कहा था कि “मुझे यह स्वीकार नहीं कि कोई कहे, हम पहले हिन्दू या मुसलमान हैं, फिर भारतीय। मेरे लिए पहले और अंत तक सिर्फ एक पहचान होनी चाहिए — भारतीय।”

अंबेडकर का जाति विरोध

डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट कहा था कि जाति आधारित सोच आर्थिक विकास को बाधित करती है। यह समाज के सामूहिक प्रयासों के विरुद्ध है। ‘अंबेडकरवादी’ बनने का दावा करने वालों को यह पढ़ना और समझना चाहिए। लेकिन उन्हें अंबेडकर के जन्मस्थान, जीवन संघर्ष, विचारधारा तक की जानकारी नहीं है। ये लोग उतने ही नकली हैं जितने आज के राजनीतिक राष्ट्रवादी, जिन्हें राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत का फर्क नहीं मालूम।

डॉ. अंबेडकर की पत्नी सविता अंबेडकर को रायबरेली से हरवाने में उन्हीं तथाकथित अंबेडकरवादियों का हाथ था। यही लोग प्रकाश अंबेडकर को डॉ. अंबेडकर का असली उत्तराधिकारी मानने से रोकते हैं। यह जरूरी है कि इन चेहरों को बेनकाब किया जाए।

अंबेडकर का मार्गदर्शन और युगधर्म


भीमराव अंबेडकर ने लोकसभा चुनाव में हारने के बाद नेहरू को पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘अब दलित समाज अपने हितों को समझने योग्य हो गया है’। इस आत्मस्वीकृति को संसद में प्रस्तुत किया गया था। लेकिन आज उन्हीं दलित हितों की आड़ में नकली अंबेडकरवादी राजनीति कर रहे हैं।

गांधी, बुद्ध, ईसा और अंबेडकर ने अपने जीवन से हमें जो मूल्य दिए हैं, वे सत्य, समानता और करुणा पर आधारित हैं। भगवद्गीता में कृष्ण ने कहा है कि जब जब अधर्म बढ़ता है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ।

हमारे संतों की दृष्टि भी यही रही है —

“संत हृदय नवनीत समाना, कहा कविन पै कहत न जाना।

निज परिताप दवै नवनीता, पर दुःख दवै संत सुपुनीता।”

और—

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।”

अब समय आ गया है कि तथाकथित अंबेडकरवादी भी अंबेडकर को इस गहराई और समग्रता से देखने की आदत डालें।

( मूलरूप से 9 January, 1994 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित। अपडेटेड-July-2025)

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