Bharatendu Harishchandra Jayanti: 34 बरस की उम्र, हिंदी साहित्य को दिया ‘भारतेंदु युग’

Bharatendu Harishchandra: आधुनिक हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र ने नाटक, कविता और पत्रकारिता से साहित्य को नई दिशा दी और समाज को नई चेतना प्रदान की।

Jyotsna Singh
Published on: 9 Sept 2025 8:59 PM IST
Bharatendu Harishchandra Jayanti
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Bharatendu Harishchandra Jayanti ( image from Social Media).

Bharatendu Harishchandra Jayanti: भारतेंदु का जन्म 9 सितंबर 1850 को वाराणसी के एक समृद्ध वैश्य परिवार में हुआ। महज 34 वर्ष की छोटी उम्र में ही उन्होंने जितना लिखा, उतना शायद कई लेखक पूरी उम्र में भी नहीं लिख पाते। उनकी रचनाएं सिर्फ साहित्य तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि उनमें समाज की पीड़ा, देश की आत्मा और बदलाव की ललक भी झलकती है। यही वजह है कि उन्हें आज भी आधुनिक हिंदी का पितामह कहा जाता है।

हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाम लेते ही हिंदी साहित्य के एक ऐसे युग की तस्वीर उभरती है, जिसने भाषा को नई दिशा दी और समाज को नया आईना दिखाया। इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से साबित किया कि उम्र बड़ी नहीं, बल्कि काम बड़े होने चाहिए। महज 34 वर्ष की छोटी उम्र में ही उन्होंने जितना लिखा, उतना शायद कई लेखक पूरी उम्र में भी नहीं लिख पाते। उनकी रचनाएं सिर्फ साहित्य तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि उनमें समाज की पीड़ा, देश की आत्मा और बदलाव की ललक भी झलकती है। यही वजह है कि उन्हें आज भी आधुनिक हिंदी का पितामह कहा जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इतना कुछ रच दियाऔर हिंदी साहित्य के क्षेत्र में विरासत के तौर पर ऐसी गहरी छाप छोड़ी कि उनके समय को ही साहित्य के इतिहास में ‘भारतेंदु युग’ कहा जाने लगा।


आज हम जिस खड़ी बोली हिंदी को सहज भाव से बोलते और लिखते हैं, उसकी जड़ें भारतेंदु के ही प्रयासों में हैं। वे केवल कवि या नाटककार नहीं थे, बल्कि पत्रकार, समाज सुधारक और राष्ट्रभक्त भी थे। उनके लेखन ने भाषा को जीवन दिया और समाज को नई दृष्टि।

परिजन की मृत्यु से जिन्हें कम उम्र में ही मिले गहरे घाव

भारतेंदु का जन्म 9 सितंबर 1850 को वाराणसी के एक समृद्ध वैश्य परिवार में हुआ। उनके पिता गोपालचंद्र का भी लगाव हिंदी साहित्य से बेहद गहरा था। वे खुद भी एक सुकवि थे, जो ‘गिरधरदास’ नाम से कविताएं लिखते थे। लेकिन भारतेंदु हरिश्चंद्र के भाग्य ने बचपन में ही उन्हें गहरे घाव दिए। मात्र पांच वर्ष की आयु में ही इनकी माता का देहांत हो गया और दस वर्ष की आयु में पिता का सहारा छिन गया।


बचपन में ही भारतेंदु हरिश्चंद्र को मिली यह गहरी चोट ही उनके भीतर की संवेदनशीलता और सामाजिक चेतना का बीज बनी। मां की मृत्यु के बाद मात्र पांच वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने पहला दोहा रचा और पिता से सुकवि होने का आशीर्वाद पाया वह था -

' लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुद्ध सुजान,
बाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान॥'

अनोखी प्रतिभा के धनी थे भारतेंदु हरिश्चंद्र

भारतेंदु के बारे में कहा जाता है कि उनकी स्मरण शक्ति बहुत ही तीव्र और ग्रहण क्षमता अद्भुत थी। भाषाओं को जानने की उनकी जिज्ञासा के चलते वे बनारस के चर्चित लेखक राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ के संपर्क में आए और उनसे अंग्रेज़ी सीखी। वे पर यही तक नहीं रुके । स्वाध्याय से उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी और उर्दू भाषा पर भी मजबूत पकड़ बना ली। इस बहुभाषी ज्ञान ने उनके लेखन को और भी गहराई दी। वे न सिर्फ़ भारतीय परंपराओं से जुड़े रहे, बल्कि अन्य भाषाओं और संस्कृतियों की अच्छाइयों को भी आत्मसात करते गए।


खड़ी बोली का उत्कर्ष और ‘भारतेंदु युग’

उन दिनों हिंदी साहित्य में ब्रजभाषा का वर्चस्व था, उर्दू और फारसी राजकाज की भाषा थीं और अंग्रेज़ी नई ताक़त के रूप में उभर रही थी। ऐसे माहौल में भारतेंदु ने खड़ी बोली हिंदी को साहित्य की मुख्य धारा में स्थापित किया। सिर्फ़ 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने ‘कविवचनसुधा’ पत्रिका निकाली। यह पत्रिका उस दौर के साहित्यकारों और विचारकों का मंच बनी। गद्य लेखन को सरल और आमजन की भाषा में ढालना उनका हिंदी पाठकों को बढ़ावा देने की दिशा में सबसे बड़ा योगदान था। यही कारण है कि 1857 से 1900 तक का काल ‘भारतेंदु युग’ कहलाया।

मातृ भाषा से रहा गहरा रिश्ता

भारतेंदु का मानना था कि किसी भी राष्ट्र की असली प्रगति तभी संभव है जब लोग अपनी मातृभाषा को अपनाएं। इस प्रसंग से जुड़ी उनकी प्रसिद्ध पंक्तियां आज भी प्रेरक हैं-

'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,

बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल॥'

यह सिर्फ़ शब्द नहीं थे, बल्कि गुलामी के दौर में अपनी भाषा और पहचान बचाने का एक सशक्त आह्वान था।

नाटक, कविता और पत्रकारिता - बहु विधाओं के धनी थे भारतेंदु

हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने में भारतेंदु की कलम नाटक, कविता और पत्रकारिता हर विधा में चली। यही वजह है कि उन्हें हिंदी का पहला आधुनिक नाटककार कहा जाता है। ‘भारत दुर्दशा’, ‘अंधेर नगरी’, ‘नील देवी’, ‘सत्य हरिश्चंद्र’, ‘श्री चंद्रावली’ जैसे नाटकों ने साहित्य को नया आयाम दिया। ‘अंधेर नगरी’ का व्यंग्य आज भी मंचों पर दर्शकों को गुदगुदाने के साथ सोचने पर मजबूर करता है।


पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने ‘कविवचनसुधा’ (1868), ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ (1873) और ‘बाला बोधिनी’ (1874) जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया। इन पत्रिकाओं ने समाज सुधार और जनजागरण की अलख जगाई। कविता और गद्य की विद्या में उनकी कविताओं में भक्ति, श्रृंगार, राष्ट्रप्रेम और सामाजिक सरोकार बराबरी से झलकते हैं। यही नहीं वे व्यंग्य और हास्य लेखन में भी उस्ताद थे।

स्त्री शिक्षा और सामाजिक सुधार में रहा योगदान

उस समय जब स्त्रियों को पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा जाता था, भारतेंदु ने जोर देकर कहा कि समाज की उन्नति स्त्री शिक्षा के बिना अधूरी है। उन्होंने ‘बाला बोधिनी’ नामक पत्रिका शुरू की, जो खासकर महिलाओं के लिए थी। उनकी कविताओं में स्त्री शिक्षा और स्वतंत्रता की आवाज़ साफ़ सुनाई देती है-

'लिखाय नाहीं देत्यो, पढ़ाय नाहीं देत्यो,

सैयां फिरंगिन बनाय नाहीं देत्यो॥'

यह पंक्तियां उस दौर की संकीर्ण सोच पर व्यंग्य थीं।

शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रप्रेम और देश भक्ति की जलाई अलख

भारतेंदु का लेखन केवल साहित्य तक सीमित नहीं था, उसमें शिक्षा के महत्व की अलख जलाने के साथ देशभक्ति की गहरी लहरें बहती थीं। वे भारत के प्राचीन गौरव को याद दिलाते हुए लिखते हैं-

भारत के भुज बल जग रच्छित,

भारत विद्या लहि जग सिच्छित।।

भारततेज जगत बिस्तारा।

भारतभय कंपत संसारा॥

ये पंक्तियां उस समय के युवाओं में शिक्षा, आत्मविश्वास और स्वाभिमान भरने का काम करती थीं।



व्यंग्य लेखन में भी पैनी थी इनकी कलम

व्यवस्था और समाज की विसंगतियों पर भारतेंदु का व्यंग्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है। ‘बंदर सभा’ और ‘बकरी विलाप’ जैसे व्यंग्य उनके तीखे और हास्यपूर्ण लेखन की मिसाल हैं।

सम्मान, उपाधि और मृत्यु

उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर 1880 में काशी के विद्वानों ने उन्हें ‘भारतेंदु’ की उपाधि दी, जिसका अर्थ है 'भारतीयों का चांद'। यही नाम आगे चलकर उनके व्यक्तित्व की पहचान बन गया। 6 जनवरी 1885 को मात्र 34 वर्ष की आयु में भारतेंदु इस दुनिया को अलविदा कह गए। लेकिन इतने कम जीवन में भी उन्होंने हिंदी साहित्य को ऐसा खजाना दिया, जिसकी चमक आज भी बरकरार है।

उनके प्रपौत्र दीपेश चंद्र चौधरी कहते हैं कि आज भी उनके लेख, उनकी कलम और इत्रदानी सुरक्षित हैं। ये सिर्फ़ वस्तुएं नहीं, बल्कि उस युग की सजीव यादें हैं।

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साबित कर दिया कि उम्र नहीं, सोच और कर्म इंसान को महान बनाते हैं। उन्होंने हिंदी को आधुनिक रूप दिया, समाज को नई चेतना दी और साहित्य को राष्ट्रप्रेम और सुधार का हथियार बनाया।

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