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दिवाली की ‘महानिशा’: श्मशान में दीप, चिताओं के बीच साधना जानें अघोरियों की दिवाली कैसी होती है
दिवाली की रात जहां आम लोग लक्ष्मी पूजन करते हैं, वहीं अघोरी और तांत्रिक इसे ‘महानिशा’ मानकर श्मशान में साधना करते हैं। जानिए चिताओं के बीच की उनकी साधना, उज्जैन के चक्रतीर्थ और काशी के मणिकर्णिका घाट की रहस्यमयी परंपराएं।
Diwali Mahanisha (Image Credit-Social Media)
Diwali's 'Mahanisha': दिवाली का नाम सुनते ही मन में जगमगाते दीपक, मिठाइयों की खुशबू और लक्ष्मी पूजन का उल्लास तैरने लगता है। इस रात को लक्ष्मी की विशेष कृपा का प्रतीक माना जाता है। तभी गृहस्थ जीवन में लोग दिवाली की रात बड़े ही विधि-विधान के साथ लक्ष्मी और गणेश की उपासना करते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं, यही रात भारत के एक समुदाय के लिए बेहद खास होती है, जहां एक ओर घरों में दीप जलते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ तांत्रिक उसी अंधकार में खास शक्तियों को प्राप्त करने के लिए विशेष उपासना करते हैं। यह रात तांत्रिकों और अघोरियों के लिए केवल त्योहार नहीं, बल्कि 'महानिशा' कहलाती है। इस रात्रि को अमावस्या के गहरे अंधियारे में साधक मां काली का आह्वान करते हैं। आइए जानते हैं महानिशा से जुड़े रहस्यों और मान्यताओं के बारे में -
‘महानिशा’- घनघोर अंधकार और दिव्य साधना का संगम
कार्तिक अमावस्या की वह रात, जब चांद पूरी तरह लुप्त होता है और संसार अंधकार में डूब जाता है। तंत्र परंपरा में यह रात 'महानिशा' कही जाती है। शास्त्रों में इसे वह समय बताया गया है जब ब्रह्मांड की ऊर्जा अपनी चरम अवस्था में होती है। साधक मानते हैं कि इस रात के गहरे सन्नाटे में मंत्रों की शक्ति बढ़ जाती है और साधना का प्रभाव कई गुना हो जाता है।
मां महाकाली, जिन्हें सृष्टि की परम शक्ति और अंधकार की अधिष्ठात्री देवी माना गया है, इस रात की केंद्र हैं। अघोरी इसी अंधकार में विशेष शक्तियों की तलाश अपने भीतर करते हैं। उनके लिए यह रात धन की नहीं, बल्कि आत्म-ज्ञान और मुक्ति की होती है।
अघोरियों की साधना का केंद्र बनती है श्मशान भूमि
महानिशा की घड़ी में अघोरियों की साधना का केंद्र श्मशान भूमि होती है। आम लोगों के लिए यह भय का स्थान है, लेकिन अघोरी इसे तपोभूमि मानते हैं।
श्मशान वह जगह है, जहां जीवन और मृत्यु के बीच की सीमा मिट जाती है। वहां भय समाप्त हो जाता है और साधक स्वयं को ब्रह्म से एक रूप में अनुभव करता है।
दिवाली की अमावस्या पर अघोरी जलती चिताओं के पास बैठकर मां काली की आराधना करते हैं। वे अग्नि में दीप जलाते हैं, मंत्रों का उच्चारण करते हैं और उस मौन अंधकार में दिव्य ऊर्जा से जुड़ने की कोशिश करते हैं। माना जाता है कि इस साधना से उन्हें भयमुक्ति, आत्मबल और गूढ़ सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
तांत्रिकों की साधना भूमि है उज्जैन का चक्रतीर्थ श्मशानघाट
प्राचीन उज्जैन नगरी, जहां भगवान महाकाल दक्षिणमुखी रूप में विराजते हैं। यह स्थान सदियों से तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र रहा है। यहां का चक्रतीर्थ श्मशान घाट साधकों के लिए विशेष महत्व रखता है।
दिवाली की महानिशा पर देश के इन अलग-अलग हिस्सों से - असम, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश से तांत्रिक साधक यहां एकत्र होते हैं।
रातभर वे तंत्र क्रियाएं, ध्यान और यज्ञ के माध्यम से ऊर्जा का आह्वान करते हैं। यहां तीन प्रकार की साधनाएं प्रमुख हैं। पहली श्मशान साधना। जहां साधक चिता स्थल पर ध्यान लगाते हैं।
दूसरी शिव साधना। जहां वे महाकाल के तत्त्व से एकाकार होते हैं।
तीसरी शव साधना। जहां वे जीवन-मृत्यु के द्वंद्व से परे जाने का प्रयास करते हैं।
इन साधनाओं का मकसद भौतिक लाभ नहीं, बल्कि आत्मा को उसके परम स्रोत से जोड़ना होता है।
औघड़ दानी की उपासना का केंद्र है काशी का मणिकर्णिका घाट
महादेव का नगर यानी काशी जहां मृत्यु भी मोक्ष का द्वार मानी जाती है। काशी का मणिकर्णिका घाट अघोरियों की सबसे पवित्र साधना स्थली है। दिवाली की रात जब पूरा शहर दीपों से चमक रहा होता है, उस समय मणिकर्णिका घाट पर अघोरी साधक अग्नि और अंधकार के बीच अपनी तांत्रिक क्रियाएं करते हैं। वे एक पैर पर खड़े होकर मां काली और औघड़ दानी शिव की आराधना करते हैं। नरमुंडों से बने खप्परों में घी और चंदन भरकर विशेष आरती की जाती है, जो जीवन और मृत्यु दोनों के प्रति समान दृष्टि रखने की शिक्षा देती है।
यह साधना केवल शक्ति प्राप्ति नहीं, बल्कि 'स्व' को भस्म करने की प्रक्रिया है। जहां साधक अपने अस्तित्व को शिव में विलीन करता है।
यानी जो कुछ भी है सब का सब बस शिवमय है।
तांत्रिकों और अघोरियों के लिए वास्तव में दिवाली की महानिशा केवल बाहरी दीपों का उत्सव नहीं है। यह अपने भीतर के अंधकार अहंकार, भय और अज्ञान को समाप्त करने की रात्रि है।
जहां आम लोग अपने घरों को रोशन करते हैं, वहीं अघोरी अपने मन के भीतर आत्म ज्ञान का दीप जलाते हैं।उनके लिए यह रात उस क्षण का प्रतीक है जब साधक संसार के हर मोह से मुक्त होकर सच्चे आत्मज्ञान की ओर बढ़ता है।
(नोट: यह लेख तांत्रिक परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं पर आधारित सांस्कृतिक जानकारी प्रस्तुत करता है। इसका उद्देश्य किसी भी प्रकार की तांत्रिक साधना या अनुष्ठान को प्रोत्साहित करना नहीं है।)
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