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Kanwar Yatra Ka Itihas: क्यों की जाती है कांवड़ यात्रा, क्या चमत्कार होता है इससे?

Kanwar Yatra Ka Itihas: न्यूजट्रैक का यह लेख कांवड़ यात्रा की पौराणिक युगों की कथा से लेकर आधुनिक और विशाल स्वरुप का विस्तार से वर्णन करता है ।

Shivani Jawanjal
Published on: 16 July 2025 8:00 AM IST (Updated on: 16 July 2025 8:00 AM IST)
Kanwar Yatra Ka Itihas
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Kanwar Yatra Ka Itihas 

Kanwar Yatra Ka Itihas: भारत विविधताओं और परंपराओं का देश है। यहाँ हर कोना धार्मिकता की सुगंध से सुवासित है। इसी धार्मिक परंपरा की एक अद्भुत झलक है कांवड़ यात्रा। श्रावण मास के आते ही उत्तर भारत की सड़कें एक अभूतपूर्व आध्यात्मिक ऊर्जा से भर जाती हैं, जब लाखों श्रद्धालु कांवड़ यात्रा पर निकलते हैं। भगवा वस्त्रधारी कांवड़िए जब 'बोल बम' और 'हर हर महादेव' के जयघोष करते हुए गंगाजल से भरी कांवड़ लेकर शिवधाम की ओर बढ़ते हैं तो वह दृश्य आस्था की शक्ति का जीवंत प्रमाण बन जाता है। कांवड़ यात्रा अब केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि भारत की सांस्कृतिक एकता, जनशक्ति और श्रद्धा का विराट उत्सव बन चुकी है। हालांकि यह यात्रा समय-समय पर विवादों और बहसों का भी विषय बनी है - कभी इसके बढ़ते स्वरूप को लेकर, तो कभी कानून-व्यवस्था की दृष्टि से।

कांवड़ यात्रा का परिचय


कांवड़ यात्रा एक प्राचीन और गहराई से आस्था से जुड़ी धार्मिक पदयात्रा है जो विशेष रूप से श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) में आयोजित होती है। इस दौरान भगवान शिव के भक्त जिन्हें कांवड़िए कहा जाता है , उत्तर भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों जैसे हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख या वाराणसी से पवित्र गंगाजल एक विशेष प्रकार की बांस या लकड़ी की बनी कांवड़ में भरकर अपने कंधों पर लेकर पैदल यात्रा करते हैं। कांवड़ की रचना इस प्रकार होती है कि इसके दोनों सिरों पर जलपात्र बंधे होते हैं और इसे संतुलित रूप से कंधे पर रखा जाता है। यह गंगाजल भक्त अपने गांव या कस्बे के शिव मंदिरों में लाकर शिवलिंग पर अर्पित करते हैं, विशेष रूप से सावन शिवरात्रि के दिन। इस यात्रा का धार्मिक ही नहीं बल्कि गहरा सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व भी है। क्योंकि यह अनुशासन, तपस्या, समर्पण और सामूहिक भक्ति का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती है। कठिन परिस्थितियों में भी श्रद्धालु बिना थके, बिना रूके, सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पूरी करते हैं और भगवान शिव के प्रति प्रेम अपनी अकल्पनीय आस्था और श्रद्धा का प्रदर्शन करते है ।

कांवड़ क्या है?


कांवड़ की संरचना अपने आप में श्रद्धा, संतुलन और समर्पण का प्रतीक है। यह एक लंबी लकड़ी या बांस की छड़ी होती है जिसके दोनों सिरों पर मिट्टी के पात्र (मटके) बांधे जाते हैं, जिनमें भक्त पवित्र गंगाजल भरते हैं। इस कांवड़ को श्रद्धालु अपने कंधों पर रखकर यात्रा करते हैं और मान्यता है कि यात्रा पूरी होने तक इसे धरती पर नहीं रखा जाता। क्योंकि यह तप, संयम और आस्था की अग्निपरीक्षा मानी जाती है। कांवड़ के दोनों सिरों पर समान जल भार होने के कारण इसे संतुलन में रखना आवश्यक होता है। जो भक्त के भीतर भक्ति में स्थिरता और मानसिक समर्पण का प्रतीकात्मक रूप भी प्रस्तुत करता है। यह संतुलन केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक संतुलन का भी प्रतीक बन जाता है, जो इस यात्रा की गहराई को और भी अर्थपूर्ण बनाता है।

कांवड़ यात्रा का इतिहास और पौराणिक संदर्भ

कांवड़ यात्रा की उत्पत्ति के विषय में कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं।

समुद्र मंथन से जुड़ी कथा


कांवड़ यात्रा की परंपरा का पौराणिक आधार समुद्र मंथन की उस प्रसिद्ध कथा से जुड़ा है, जिसमें भगवान शिव ने सृष्टि की रक्षा के लिए 'हलाहल' नामक घातक विष का पान किया था। यह कथा श्रीमद्भागवत पुराण, शिव पुराण और अन्य ग्रंथों में विस्तार से वर्णित है। जब देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन किया तो उससे अमृत के साथ-साथ यह विनाशकारी विष भी निकला, जो समस्त ब्रह्मांड के लिए संकट बन गया। तब भगवान शिव ने करुणा भाव से उसे पी लिया लेकिन उसे गले में ही रोक लिया, जिससे उनका कंठ नीला हो गया और वे 'नीलकंठ' कहलाए। इस विष की जलन और प्रभाव को शांत करने के लिए देवताओं ने उन्हें पवित्र गंगाजल अर्पित किया। यही कारण है कि गंगाजल को शिव को अर्पित करना न केवल एक परंपरा बन गया बल्कि आस्था और श्रद्धा का अत्यंत पवित्र रूप भी माना जाता है। कांवड़ यात्रा इसी भावनात्मक और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से प्रेरित होकर जन्मी, जहां हर कांवड़िया गंगाजल लेकर शिव का अभिषेक करता है, मानो वह स्वयं ब्रह्मांड की रक्षा में सहभागी हो।

परशुराम की कथा


कांवड़ यात्रा से जुड़ी एक अन्य प्रचलित मान्यता यह भी है कि भगवान विष्णु के छठे अवतार, भगवान परशुराम ने स्वयं गंगाजल को कांवड़ में भरकर शिवलिंग का अभिषेक किया था। यह कथा विशेष रूप से लोककथाओं और मौखिक परंपराओं में सुनाई जाती है। एक मान्यता यह भी है कि परशुराम पहले कांवड़िए माने जाते हैं जिन्होंने गढमुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर शिवलिंग का जलाभिषेक किया। हालांकि यह प्रसंग प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में समुद्र मंथन की कथा जितनी व्यापकता से नहीं मिलता। फिर भी यह संकेत जरूर देता है कि कांवड़ यात्रा जैसी परंपराएं केवल देवताओं तक सीमित नहीं थीं। ऋषि-मुनियों और महान तपस्वियों ने भी इस अनुष्ठान को श्रद्धा और तपस्या के रूप में अपनाया। जिससे यह परंपरा समय के साथ जनमानस की भक्ति और आस्था का अभिन्न हिस्सा बन गई। परशुराम की यह कथा कांवड़ यात्रा को एक और ऐतिहासिक गहराई और धार्मिक महत्त्व प्रदान करती है।

रावण से जुड़ी कथा

धार्मिक ग्रंथों के अनुसार त्रेता युग में रावण ने भी भगवान शिव के लिए गंगाजल लाकर अभिषेक किया था। इसके अलावा कई स्थानों पर श्रवण कुमार की कहानी भी प्रचलित है जिसमें उन्होंने अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर तीर्थयात्रा कराई।

कांवड़ यात्रा का स्वरूप


कांवड़ यात्रा मुख्य रूप से उत्तर भारत के राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, बिहार, राजस्थान और दिल्ली में अत्यधिक लोकप्रिय है। श्रावण मास के पावन अवसर पर लाखों शिव भक्त गंगा के तटवर्ती तीर्थस्थलों जैसे हरिद्वार, गंगोत्री या गौमुख पहुंचते हैं और वहां से पवित्र गंगाजल को कांवड़ में भरकर पैदल यात्रा शुरू करते हैं। यह जल वे अपने क्षेत्र के शिव मंदिरों में लाकर शिवलिंग पर अर्पित करते हैं। इस संपूर्ण यात्रा के दौरान श्रद्धालु कठोर नियमों का पालन करते हैं जैसे नंगे पांव चलना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, मांस-मदिरा का पूर्ण त्याग और शुद्ध, सात्विक जीवनशैली अपनाना। यह अनुशासन न केवल शारीरिक तप का प्रतीक है बल्कि आत्मिक शुद्धि और भगवान शिव के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना का भी परिचायक है।

यात्रा की शुरुआत और रूट्स

उत्तर भारत में कांवड़ यात्रा की अनेक प्रमुख धाराएं हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध यात्रा हरिद्वार, ऋषिकेश और गंगोत्री से शुरू होती है। गंगोत्री को गंगा नदी का उद्गम स्थल माना जाता है और इसी कारण यह तीर्थ विशेष रूप से पवित्र माना जाता है। श्रावण मास में लाखों श्रद्धालु इन स्थलों से पवित्र गंगाजल लेकर कांवड़ के माध्यम से पैदल यात्रा पर निकलते हैं और अपने-अपने राज्यों के स्थानीय शिव मंदिरों में जल अर्पित करते हैं। उत्तर प्रदेश में काशी, मथुरा का बांके बिहारी क्षेत्र, गोरखपुर का बैजनाथ धाम और मेरठ-मुजफ्फरनगर जैसे क्षेत्रों के शिवधाम प्रमुख गंतव्य हैं। वहीं पूर्वी भारत में बाबा बैद्यनाथ धाम, देवघर की कांवड़ यात्रा भी अत्यंत लोकप्रिय है। इसमें श्रद्धालु बिहार के सुलतानगंज से गंगाजल भरते हैं और लगभग 105 किलोमीटर की कठिन पदयात्रा कर बाबा बैद्यनाथ को जल अर्पित करते हैं।

कांवड़ यात्रा के प्रकार


कांवड़ यात्रा की परंपरा में श्रद्धालुओं की आस्था और समर्पण के अनुरूप इसके कई प्रकार विकसित हुए हैं जिनमें तीन प्रमुख रूप अत्यंत प्रसिद्ध हैं:

नारियल कांवड़ (Nariyal Kanwar) - इस प्रकार की कांवड़ अपेक्षाकृत कम दूरी की यात्रा होती है जिसमें कुछ स्थानों पर गंगाजल की जगह प्रतीकात्मक रूप से नारियल चढ़ाया जाता है। हालांकि कई क्षेत्रों में इसे एक बार में जल चढ़ाने वाली कांवड़ के रूप में भी माना जाता है। नारियल कांवड़ को अधिकतर सामूहिक भक्ति, श्रद्धा और प्रतीकात्मक सहभागिता के रूप में देखा जाता है। इसकी व्याख्या और परंपराएं अलग-अलग क्षेत्रों में स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार भिन्न हो सकती हैं।

डाक कांवड़ (Dak Kanwar): - डाक कांवड़ को 'एक्सप्रेस कांवड़' भी कहा जाता है क्योंकि इसमें भक्त गंगाजल भरने के बाद दौड़ते हुए शिव मंदिर तक पहुंचते हैं। इस यात्रा में गंगाजल वाले पात्र को जमीन पर बिल्कुल नहीं रखा जाता और श्रद्धालु बिना रुके लगातार आगे बढ़ते हैं। समय की तीव्रता को ध्यान में रखते हुए इसमें बाइक, एम्बुलेंस या सपोर्ट वैन जैसी सहायता भी ली जाती है परंतु कांवड़ का पृथ्वी से संपर्क नहीं होना चाहिए। विशेष रूप से सावन सोमवार या शिवरात्रि के दिन जल चढ़ाने के लिए इस प्रकार की यात्रा का आयोजन होता है।

खड़ी कांवड़ (Khadi Kanwar) - यह कांवड़ यात्रा का सबसे कठिन और तपस्वी रूप माना जाता है। इसमें यात्रा के पूरे दौरान कांवड़ को कभी जमीन पर नहीं रखा जाता चाहे भक्त खड़े हों, विश्राम कर रहे हों या रुके हुए हों, कांवड़ को हमेशा खड़ा रखा जाता है। इस यात्रा में सहनशक्ति, संयम और श्रद्धा की चरम परीक्षा होती है और यह भक्ति की चरम अवस्था को दर्शाती है।

कांवड़ यात्रा से जुड़े नियम

कांवड़ को ज़मीन पर नहीं रखना चाहिए।

कांवड़िए नंगे पैर यात्रा करते हैं।

गंगाजल को अत्यंत पवित्र माना जाता है और यात्रा के दौरान अगर गंगाजल गिर जाए तो इसे अशुभ समझा जाता ।

यात्रा के दौरान शुद्धता, संयम और सात्विकता बनाए रखनी होती है।

जल चढ़ाने से पहले स्नान करना अनिवार्य होता है।

कांवड़ यात्रा का विस्तार


कांवड़ यात्रा का स्वरूप समय के साथ अद्भुत रूप से विकसित हुआ है। पहले यह यात्रा केवल गांवों और कस्बों के कुछ श्रद्धालुओं तक सीमित थी जहाँ भक्त सादे वस्त्रों में, छोटी टोलियों में पैदल चलते थे। सुविधाएं सीमित थीं - सादा भोजन, खुले में विश्राम और अधिकतर व्यक्तिगत भक्ति का शांतिपूर्ण वातावरण देखने को मिलता था। उस समय यात्रा का मूल उद्देश्य साधना, आत्मशुद्धि और शिवभक्ति का मौन प्रदर्शन था। लेकिन 1980 और 1990 के दशक के बाद संचार, सड़क, बिजली और मीडिया के विस्तार ने इस यात्रा को एक भव्य धार्मिक उत्सव का रूप दे दिया। धार्मिक फिल्मों, भजनों और टीवी कार्यक्रमों ने इसकी लोकप्रियता को जन-जन तक पहुंचाया।वहीं आज यह यात्रा एक विशाल जनआंदोलन का रूप ले चुकी है। जहां पहले हजारों भक्त शामिल होते थे, वहीं अब हर वर्ष 4–5 करोड़ से अधिक श्रद्धालु भाग लेते हैं। अब यह यात्रा केवल उत्तर भारत तक सीमित नहीं रही बल्कि बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से भी लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। सुल्तानगंज से देवघर तक की यात्रा इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। आज की कांवड़ यात्रा में आधुनिक तकनीक का भी गहरा प्रभाव दिखता है। LED लाइटों से सजी हाईटेक कांवड़, DJ साउंड सिस्टम, बुलेट कांवड़, डिजिटल अपडेट और मेडिकल सुविधाओं से लैस ट्रक इसके प्रमाण हैं।

कांवड़ यात्रा का आधुनिक रूप


कांवड़ यात्रा का स्वरूप समय के साथ गहराई से परिवर्तित हुआ है और आज यह यात्रा एक विशाल जनआंदोलन का रूप ले चुकी है। इस यात्रा में अब पैदल यात्रा के साथ-साथ बुलेट कांवड़, सजे-धजे ट्रक, हाईटेक DJ झांकियां और बड़े समूहों में ढोल-नगाड़ों के साथ यात्रा होती है। सरकारी तंत्र द्वारा 24x7 कंट्रोल रूम, ट्रैफिक मैनेजमेंट, मेडिकल सुविधाएं और सुरक्षा व्यवस्थाएं भी उपलब्ध कराई जाती हैं। सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से यह यात्रा अब केवल धार्मिक सीमाओं तक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित होती है। लाइव स्ट्रीमिंग, वायरल वीडियो और डिजिटल कांवड़ ने इसे आधुनिक भक्ति और आस्था के नए युग में प्रवेश करा दिया है। इसी कारण, आज कांवड़ यात्रा विश्व की सबसे बड़ी वार्षिक धार्मिक यात्राओं में शामिल हो चुकी है

यात्रा से जुड़े प्रमुख विवाद और घटनाएं

हालांकि कांवड़ यात्रा भक्ति और श्रद्धा का विराट प्रतीक है लेकिन बीते वर्षों में इससे जुड़े कुछ घटनाक्रमों ने यात्रा की गरिमा पर सवाल खड़े किए हैं।

गाड़ियों की तोड़फोड़ और पुलिस से झड़पें - वर्ष 2018 में दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में एक वायरल वीडियो में कांवड़ियों द्वारा एक गाड़ी को तोड़फोड़ करते हुए देखा गया, जिससे पुलिस और नागरिकों के बीच तनाव उत्पन्न हुआ।

मथुरा में डीजे विवाद - इसी तरह 2017 में मथुरा में डीजे बजाने को लेकर दो समुदायों के बीच विवाद हुआ, जो सांप्रदायिक तनाव में बदल गया।

नोएडा में कांवड़ मार्ग को लेकर विरोध - 2019 में नोएडा और ग्रेटर नोएडा के निवासियों ने कांवड़ मार्गों को लेकर यातायात जाम, स्कूल बंद होने और ध्वनि प्रदूषण जैसी समस्याओं पर विरोध जताया।

हरिद्वार में ट्रैफिक और अव्यवस्था - 2022 में कोविड के बाद हरिद्वार में जबरदस्त भीड़, अव्यवस्था, ट्रैफिक जाम और सफाई की कमी के चलते यात्रियों और पुलिस के बीच कहासुनी की घटनाएं सामने आईं।

धार्मिक टकराव और सांप्रदायिक तनाव - इसके अतिरिक्त 2015–16 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में नमाज़ और कांवड़ मार्ग को लेकर तनाव पैदा हुआ। डीजे की आवाज और धार्मिक स्थलों के समीप से गुजरने को लेकर विवाद बढ़ा, जिसे कई बार सांप्रदायिक रंग देने के आरोप भी लगे।

डीजे और अश्लीलता पर आलोचना - एक और महत्वपूर्ण आलोचना डीजे संस्कृति से जुड़ी है। पारंपरिक भक्ति गीतों की जगह कुछ स्थानों पर अश्लील और भड़काऊ गाने बजाए जाने लगे हैं, जिससे धार्मिक वातावरण प्रभावित होता है और महिलाओं व बुजुर्गों को असहजता का सामना करना पड़ता है। पुलिस और न्यायालयों द्वारा कई बार इस पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की गई है।

वर्त्तमान विवाद और चिंताएं


कांवड़ यात्रा भक्ति का प्रतीक है लेकिन इसके साथ कई चुनौतियाँ भी जुड़ी हैं। यात्रा के दौरान बनाए गए विशेष मार्गों से ट्रैफिक जाम आमजन के लिए समस्या बन जाता है। डीजे पर अश्लील गानों, नशे और शोरगुल से यात्रा की गरिमा पर सवाल उठते हैं। कुछ स्थानों पर धार्मिक असहिष्णुता और समुदायों के बीच टकराव की घटनाएं भी देखी गई हैं। इसके अलावा, प्लास्टिक कचरे और गंदगी से पर्यावरण और गंगा नदी को नुकसान होता है। ऐसे में आस्था के इस उत्सव को अनुशासन और जागरूकता के साथ मनाना ज़रूरी है।

सरकार और प्रशासन की भूमिका

कांवड़ यात्रा की विशालता को देखते हुए हर वर्ष राज्य और केंद्र सरकारें इसके सुचारु संचालन के लिए व्यापक तैयारियाँ करती हैं। कई जिलों में हालात कर्फ्यू जैसे हो जाते हैं जहाँ प्रशासन, पुलिस, स्वास्थ्य विभाग और कई बार सेना तक 24 घंटे सक्रिय रहती है। हरिद्वार, गंगोत्री, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के प्रमुख कांवड़ मार्गों पर सीसीटीवी कैमरे और ड्रोन से निगरानी की जाती है ताकि सुरक्षा और व्यवस्था पर नियंत्रण रखा जा सके। खुले में मांस-मदिरा सेवन, ध्वनि प्रदूषण और कचरा फैलाने जैसे कार्यों पर सख्त पाबंदी होती है। महिला श्रद्धालुओं की सुरक्षा के लिए विशेष हेल्पलाइन, महिला पुलिस बल और सहायता केंद्र तैनात किए जाते हैं। इसके अलावा यात्रियों के लिए टेंट, विश्राम स्थल, भोजन-जल की व्यवस्था, मेडिकल कैंप और ट्रैफिक कंट्रोल के लिए वैकल्पिक मार्ग सुनिश्चित किए जाते हैं। जिससे यह विशाल धार्मिक यात्रा सुरक्षित और व्यवस्थित ढंग से संपन्न हो सके।

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