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Intresting Story: पुराने दौर में कबूतर ही क्यों बनते थे चिट्ठी के वाहक? अनोखे कुदरती जीपीएस का रहस्य आया सामने
Intresting Story of Pigeons Messengers: कबूतर, जो आज हमें सिर्फ एक साधारण पक्षी लगता है, कभी संचार का सबसे भरोसेमंद साधन हुआ करता था।
Intresting Story of Pigeons Messengers (Image Credit-Social Media)
Intresting Story of Pigeons Messengers: पुराने जमाने में जब न टेलीफोन था, न इंटरनेट और न ही डाक सेवाएं आज की तरह विकसित थीं, तब लोग एक अनोखे तरीके से संदेश भेजा करते थे- कबूतरों के जरिए। जी हां, कबूतर, जो आज हमें सिर्फ एक साधारण पक्षी लगता है, कभी संचार का सबसे भरोसेमंद साधन हुआ करता था। ये छोटे-छोटे पक्षी हजारों किलोमीटर की दूरी तय करके चिट्ठियां अपने गंतव्य तक पहुंचा देते थे। लेकिन सवाल यह है कि आखिर कबूतर ही क्यों? क्या था इनमें ऐसा खास कि इन्हें संदेशवाहक बनाया गया? और कैसे ये बिना भटके अपने ठिकाने तक पहुंच जाते थे? वैज्ञानिकों ने इन सवालों का जवाब खोज लिया है और इसके पीछे छिपा है कुदरती जीपीएस का अनोखा राज।
कबूतरों का संदेशवाहक बनने का इतिहास
कबूतरों का उपयोग संदेश भेजने के लिए हजारों साल पुराना है। इतिहासकारों के अनुसार, इसका चलन कम से कम 3000 साल पहले शुरू हुआ था। प्राचीन मिस्र, ग्रीस, रोम और भारत जैसे देशों में कबूतरों को संदेशवाहक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। प्राचीन मिस्र में, फिरौन अपने युद्धों और व्यापार की खबरें कबूतरों के जरिए भेजते थे। भारत में भी, मौर्य और गुप्त काल में, कबूतरों को महत्वपूर्ण संदेश भेजने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था।
मध्यकाल में, विशेष रूप से यूरोप और एशिया में, कबूतरों का उपयोग और बढ़ गया। मंगोल शासक चंगेज खान और उनके वंशजों ने विशाल साम्राज्य में संदेश भेजने के लिए कबूतरों की पूरी व्यवस्था बनाई थी। भारत में मुगल काल के दौरान भी कबूतरों का इस्तेमाल आम था। बाद में, प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में कबूतरों ने सैन्य संदेशवाहक के रूप में अहम भूमिका निभाई। एक मशहूर कबूतर, जिसका नाम 'शेर अमी' था, ने प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांसीसी सेना के लिए इतना महत्वपूर्ण संदेश पहुंचाया कि उसे युद्ध में वीरता के लिए सम्मानित किया गया।
लेकिन इन सबके पीछे सबसे बड़ा सवाल यह था कि कबूतर इतनी सटीकता से अपने गंतव्य तक कैसे पहुंच जाते थे? क्या उनके पास कोई जादुई शक्ति थी, या प्रकृति ने उन्हें कोई खास तोहफा दिया था?
कबूतरों की खासियत: होमिंग इंस्टिंक्ट
कबूतरों को संदेशवाहक बनाने की सबसे बड़ी वजह थी उनकी 'होमिंग इंस्टिंक्ट' यानी घर लौटने की कुदरती क्षमता। कुछ खास प्रजातियों के कबूतर, जिन्हें 'होमिंग पिजन' या 'कैरियर पिजन' कहा जाता है, अपने घर या घोंसले को हजारों किलोमीटर दूर से भी ढूंढ सकते हैं। ये कबूतर अपने जन्मस्थान या उस जगह से गहरे जुड़े होते हैं, जहां इन्हें पाला जाता है। चाहे इन्हें कितनी भी दूर ले जाया जाए, ये वापस उसी जगह लौट आते हैं।
इस खासियत ने कबूतरों को संदेशवाहक के लिए आदर्श बनाया। लोग कबूतरों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते, उनके पैरों या पीठ पर छोटी-छोटी चिट्ठियां बांधते, और फिर उन्हें छोड़ देते। कबूतर बिना किसी नक्शे या गाइड के अपने घर वापस लौट जाता और संदेश अपने गंतव्य तक पहुंच जाता। लेकिन सवाल यह है कि ये कबूतर बिना भटके अपने रास्ते कैसे ढूंढ लेते थे? इसके पीछे छिपा है प्रकृति का एक अनोखा जीपीएस सिस्टम।
कुदरती जीपीएस: कबूतरों की नेविगेशन कला
वैज्ञानिकों ने लंबे समय तक कबूतरों की इस अनोखी क्षमता का अध्ययन किया और पाया कि उनके पास एक तरह का कुदरती जीपीएस सिस्टम है, जो कई प्राकृतिक संकेतों के संयोजन से काम करता है। आइए, इस सिस्टम के कुछ मुख्य हिस्सों को समझते हैं।
सूरज का कम्पास :कबूतर सूरज की स्थिति का उपयोग दिशा तय करने के लिए करते हैं। उनके दिमाग में एक तरह का सौर कम्पास होता है, जो सूरज की दिशा और समय के आधार पर उन्हें रास्ता दिखाता है। सुबह, दोपहर और शाम को सूरज की बदलती स्थिति के आधार पर वे अपनी दिशा को समायोजित कर लेते हैं। अगर आसमान में बादल छाए हों, तो भी वे अपनी इस क्षमता का इस्तेमाल कर सकते हैं, क्योंकि उनकी आंखें सूरज की हल्की रोशनी को भी पकड़ सकती हैं।
पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र: कबूतरों की चोंच में छोटे-छोटे चुंबकीय कण होते हैं, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को महसूस करने में उनकी मदद करते हैं। यह चुंबकीय क्षेत्र एक तरह का नक्शा प्रदान करता है, जो कबूतरों को उत्तर-दक्षिण दिशा समझने में मदद करता है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगों में पाया कि अगर कबूतरों की चोंच पर चुंबक लगाया जाए, तो उनकी नेविगेशन क्षमता प्रभावित होती है।
लैंडमार्क और गंध: कबूतरों की दृष्टि और सूंघने की क्षमता भी कमाल की होती है। वे अपने रास्ते में पहाड़, नदियां, जंगल और अन्य प्राकृतिक निशानों को याद रखते हैं। इसके अलावा, वे हवा में मौजूद गंधों को भी पहचान सकते हैं। उदाहरण के लिए, समुद्र की हवा, जंगल की गंध या किसी खास फसल की खुशबू उन्हें रास्ता ढूंढने में मदद करती है। यह गंध नक्शे की तरह काम करती है, जो उन्हें अपने घर की ओर ले जाती है।
आवाज और ध्वनि तरंगें: हाल के शोधों में यह भी पता चला है कि कबूतर बहुत कम आवृत्ति की ध्वनि तरंगों (इन्फ्रासाउंड) को सुन सकते हैं। ये तरंगें समुद्र, हवा या पृथ्वी की गतिविधियों से पैदा होती हैं और लंबी दूरी तक यात्रा करती हैं। कबूतर इन ध्वनियों का उपयोग अपने स्थान को समझने और दिशा तय करने के लिए करते हैं।
इन सभी प्राकृतिक संकेतों का संयोजन कबूतरों को एक ऐसा जीपीएस देता है, जो आज के आधुनिक नेविगेशन सिस्टम से भी ज्यादा सटीक है। यही वजह थी कि पुराने जमाने में लोग कबूतरों पर इतना भरोसा करते थे।
कबूतरों का प्रशिक्षण: एक कला
कबूतरों को संदेशवाहक बनाने के लिए उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया जाता था। यह काम इतना आसान नहीं था। प्रशिक्षक पहले कबूतरों को उनके घर या घोंसले से परिचित कराते थे। फिर उन्हें धीरे-धीरे छोटी दूरी से छोड़कर घर लौटने की प्रैक्टिस कराई जाती थी। जैसे-जैसे कबूतर की क्षमता बढ़ती, दूरी को बढ़ाया जाता।
प्रशिक्षण के दौरान कबूतरों को छोटे-छोटे कागज की चिट्ठियां बांधने की आदत डाली जाती थी। ये चिट्ठियां इतनी हल्की होती थीं कि कबूतर की उड़ान पर कोई असर न पड़े। कुछ मामलों में, संदेश को बांस या हल्की धातु की छोटी ट्यूब में रखा जाता था, जिसे कबूतर के पैर या पीठ पर बांधा जाता था। प्रशिक्षित कबूतर एक बार में 1000 किलोमीटर तक की दूरी तय कर सकते थे, और उनकी गति 60 से 100 किलोमीटर प्रति घंटा तक होती थी।
कबूतरों ने इतिहास में कई महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं। प्रथम विश्व युद्ध में, जब संचार के साधन सीमित थे, कबूतरों ने सैनिकों के बीच महत्वपूर्ण संदेश पहुंचाए। उदाहरण के लिए, 'शेर अमी' नाम का कबूतर 1918 में फ्रांस में एक घायल सैन्य टुकड़ी का संदेश लेकर 40 किलोमीटर की दूरी 25 मिनट में तय करके पहुंचा। इस संदेश ने 194 सैनिकों की जान बचाई, और कबूतर को 'क्रोइक्स डी गुएरे' सम्मान से नवाजा गया।
द्वितीय विश्व युद्ध में भी कबूतरों का उपयोग हुआ। ब्रिटिश सेना ने 250,000 से अधिक कबूतरों को प्रशिक्षित किया था, जो दुश्मन के क्षेत्रों से खुफिया जानकारी लाने में मदद करते थे। भारत में, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, कुछ क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश शासन से बचकर संदेश भेजने के लिए कबूतरों का उपयोग किया।
शांतिकाल में भी कबूतरों का उपयोग व्यापार, खेल और समारोहों में होता था। प्राचीन भारत में, व्यापारी अपने व्यापारिक सौदों की जानकारी कबूतरों के जरिए भेजते थे। कुछ राजा-महाराजा कबूतरों की उड़ान को एक खेल के रूप में भी देखते थे, जहां सबसे तेज कबूतर को पुरस्कार मिलता था।
आधुनिक युग में कबूतरों की प्रासंगिकता
जैसे-जैसे तकनीक विकसित हुई, टेलीग्राफ, टेलीफोन और बाद में इंटरनेट ने कबूतरों की जरूरत को खत्म कर दिया। आज के दौर में कबूतरों का उपयोग संदेशवाहक के रूप में नहीं होता, लेकिन उनकी होमिंग क्षमता अभी भी वैज्ञानिकों और पक्षी प्रेमियों के लिए आकर्षण का विषय है। कबूतरों की दौड़ (पिजन रेसिंग) आज भी कई देशों में एक लोकप्रिय खेल है, जहां प्रशिक्षित कबूतरों को सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए छोड़ा जाता है।
वैज्ञानिक कबूतरों की नेविगेशन क्षमता का अध्ययन करके आधुनिक तकनीकों को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, कबूतरों का चुंबकीय क्षेत्र पढ़ने का तरीका ड्रोन और स्वचालित वाहनों के लिए नेविगेशन सिस्टम को प्रेरित कर सकता है। इसके अलावा, कबूतरों की गंध पहचानने की क्षमता पर्यावरण निगरानी और प्रदूषण का पता लगाने में भी उपयोगी हो सकती है।
कबूतरों की यह अनोखी क्षमता हमें प्रकृति की जटिलता और सुंदरता का एहसास दिलाती है। बिना किसी आधुनिक उपकरण के, ये छोटे पक्षी हजारों किलोमीटर की दूरी तय करके अपने घर पहुंच जाते थे। यह हमें यह भी सिखाता है कि प्रकृति में हर प्राणी के पास कोई न कोई खास खूबी होती है, जो उसे अनोखा बनाती है।
कबूतरों की कहानी हमें यह भी बताती है कि पुराने जमाने में लोग प्रकृति के साथ कितने करीब से जुड़े थे। उन्होंने कबूतरों की इस प्राकृतिक क्षमता को समझा और उसका उपयोग अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए किया। आज भले ही हम तकनीक पर निर्भर हों, लेकिन कबूतरों की यह कहानी हमें प्रकृति के महत्व को याद दिलाती है।
कबूतरों का संदेशवाहक बनना कोई साधारण बात नहीं थी। यह प्रकृति के उस अनोखे जीपीएस सिस्टम का कमाल था, जो सूरज, चुंबकीय क्षेत्र, गंध और ध्वनि तरंगों के संयोजन से बना था। हजारों सालों तक कबूतरों ने युद्ध, शांति, व्यापार और संस्कृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी यह क्षमता न केवल वैज्ञानिकों के लिए एक रहस्य रही, बल्कि यह भी दिखाती है कि प्रकृति के पास कितने अनोखे समाधान हैं।
आज भले ही कबूतरों की जगह आधुनिक तकनीकों ने ले ली हो, लेकिन उनकी कहानी हमें प्रेरित करती है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि प्रकृति के पास अभी भी कितने रहस्य छिपे हैं, जिन्हें हमें खोजना और समझना बाकी है। कबूतरों की यह कहानी हर उस व्यक्ति के लिए एक प्रेरणा है, जो प्रकृति की सुंदरता और उसके कमाल को जानना चाहता है।
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