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क्या मासिक धर्म में महिलाओं को धार्मिक गतिविधि से दूर रहना चाहिए ? आइये जानते है!
Periods & Festivals: त्योहारों के इस मौसम में, आइए समझते हैं मासिक धर्म और धार्मिक परंपराओं का संबंध
Periods & Festivals: भारतीय समाज में धर्म, परंपरा और संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि जीवन के हर चरण और व्यवहार में इनका असर साफ दिखाई देता है। इन्हीं परंपराओं में से एक है - मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को धार्मिक गतिविधियों से दूर रखना। यह विषय सदियों से चर्चा और विवाद का केंद्र रहा है। कई लोग इसे सिर्फ धार्मिक मान्यता मानते हैं, तो कुछ इसे सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी कारणों से जोड़ते हैं। प्रश्न यह उठता है कि क्या यह परंपरा केवल आस्था पर आधारित है? या इसके पीछे छिपा हुआ कोई गहरा वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टिकोण भी है?
इस लेख में हम इसके धर्म, इतिहास, समाज और विज्ञान इन सभी पहलुओं को समझने की कोशिश करेंगे।
क्या कहती है शास्त्रीय मान्यताएँ
वेद, पुराण, मनुस्मृति और गरुड़ पुराण जैसे शास्त्रों में मासिक धर्म को महिलाओं के लिए एक प्राकृतिक 'शुद्धिकरण प्रक्रिया' माना गया है। इस दौरान शरीर विषैले तत्वों को बाहर निकालता है और संतुलन बनाता है, इसलिए महिला शारीरिक और मानसिक रूप से अधिक संवेदनशील होती है। इन्हीं कारणों से धर्मग्रंथों में सलाह दी गई कि इस समय उन्हें विश्राम और शांत वातावरण दिया जाए तथा वे कुछ दिनों तक पूजा-पाठ जैसे धार्मिक कार्यों से अलग रहें। आयुर्वेद और योग की मान्यताओं के अनुसार मासिक धर्म में शरीर की ऊर्जा नीचे की ओर बहती है, जिसे ‘अपान वायु’ कहा जाता है। ऐसा माना गया कि इस प्रवाह में कोई बाधा न आए, इसलिए मंदिर या धार्मिक अनुष्ठानों से दूरी रखी जाती थी। कुछ परंपरागत मान्यताओं में यह भी कहा गया कि इस समय महिला का मन और शरीर भारीपन महसूस करता है, जिससे पूजा स्थल की सकारात्मक ऊर्जा प्रभावित हो सकती है।
सामाजिक और ऐतिहासिक कारण
प्राचीन धर्मग्रंथों और परंपराओं में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को पूजा-पाठ और घरेलू कामों से दूर रखने का मुख्य उद्देश्य उन्हें आराम देना था। पुराने समय में न तो आधुनिक सुविधाएँ थीं और न ही स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता, इसलिए अधिक थकान और असुविधा से बचाने के लिए यह नियम बनाए गए। कई स्मृतियों में उल्लेख है कि महिलाएँ मासिक धर्म पूरा होने के बाद ही घरेलू कार्य और धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लें, ताकि वे अपने स्वास्थ्य का ध्यान रख सकें। लेकिन समय के साथ इस व्यवस्था को पितृसत्तात्मक सोच ने 'अशुद्धता' से जोड़ दिया। धीरे-धीरे मासिक धर्म को गंदगी और अपवित्रता का प्रतीक मान लिया गया और महिलाओं को देवी स्वरूपा कहने के बावजूद उन्हें सीमाओं में बाँध दिया गया। हालांकि कुछ संस्कृतियों में इसे शुभ भी माना गया, लेकिन अधिकांश धार्मिक परंपराओं में यह नकारात्मक सोच ज़्यादा प्रभावी रही।
क्या कहता है विज्ञान ?
मासिक धर्म एक प्राकृतिक जैविक प्रक्रिया है जिसमें अंडाशय से अंडाणु निकलता है और गर्भाशय की परत टूटकर रक्तस्राव होता है। इस समय महिलाओं के शरीर में हार्मोनल बदलाव होते हैं जिससे थकान, दर्द, कमजोरी, ऐंठन और मानसिक तनाव जैसी परेशानियाँ सामान्य हैं। ऐसे में शरीर को आराम, पोषण और अतिरिक्त ऊर्जा की ज़रूरत होती है। प्राचीन समाजों ने इसी कारण महिलाओं को इन दिनों विश्राम देने की व्यवस्था बनाई थी। पुराने समय में साफ-सफाई के साधन और सैनिटरी पैड्स उपलब्ध नहीं थे इसलिए संक्रमण और बीमारियों का खतरा भी ज़्यादा था। चूँकि मंदिर और पूजा स्थल अत्यंत पवित्र माने जाते थे, इसलिए उनकी स्वच्छता बनाए रखने के लिए महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान वहाँ जाने से रोका जाता था। इस परंपरा का उद्देश्य महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षा करना और धार्मिक स्थलों की पवित्रता बनाए रखना था।
विभिन्न धर्मों में मासिक धर्म को लेकर दृष्टिकोण
हिंदू - अधिकांश हिंदू मान्यताओं में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को पूजा, व्रत और धार्मिक अनुष्ठानों से दूर रखा जाता है। दक्षिण भारत के सबरीमाला मंदिर में भी लंबे समय तक 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश पर रोक थी जिसे धार्मिक परंपरा से जोड़ा गया, हालाँकि यह अब विवादित और बदलती हुई प्रथा है। माना जाता था कि इन दिनों महिलाओं का मंदिर प्रवेश पूजा स्थल की पवित्रता और धार्मिक ऊर्जा को प्रभावित कर सकता है।
इस्लाम - इस्लाम में भी महिलाओं को विश्राम देने के लिए मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को नमाज और रोज़ा से छूट दी जाती है।
ईसाई धर्म - ईसाई धर्म के पुराने नियमों में मासिक धर्म को अशुद्ध बताया गया था हालांकि आधुनिक ईसाई समाज में इसका पालन लगभग नहीं होता।
बौद्ध और जैन - बौद्ध धर्म मासिक धर्म को एक प्राकृतिक प्रक्रिया मानता है और इसमें कठोर धार्मिक प्रतिबंध नहीं मिलते। वहीं जैन धर्म में पारंपरिक रूप से महिलाओं को इस समय मंदिर जाने से रोका गया है, जिसे धार्मिक अनुशासन और पवित्रता से जोड़ा गया है।
मासिक धर्म को लेकर आधुनिक दृष्टिकोण
शिक्षा और वैज्ञानिक समझ बढ़ने के साथ आज मासिक धर्म को अशुद्धता नहीं बल्कि एक प्राकृतिक जैविक प्रक्रिया माना जाने लगा है। कई परिवारों में अब महिलाएँ इन दिनों भी पूजा-पाठ और धार्मिक गतिविधियों में भाग लेती हैं। पुराने धार्मिक और सामाजिक प्रतिबंधों को चुनौती दी जा रही है और सोच में बड़ा बदलाव आ रहा है। महिला सशक्तिकरण आंदोलनों ने भी यह संदेश मजबूत किया है कि मासिक धर्म से महिला की श्रद्धा, क्षमता या अधिकारों पर कोई असर नहीं पड़ता। पुरुष किसी भी समय धार्मिक कार्य कर सकते हैं तो महिलाओं को केवल मासिक धर्म के कारण अलग-थलग करना अनुचित है। आज स्वच्छता के आधुनिक साधन और स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध हैं, जिससे संक्रमण का खतरा बहुत कम हो गया है। ऐसे में महिलाओं को धार्मिक कार्यों से दूर रखने की अब कोई ठोस वजह नहीं रह गई। यही कारण है कि आधुनिक समाज में महिलाओं को पूजा, मंदिर प्रवेश और धार्मिक अनुष्ठानों में समान अधिकार मिलने लगे हैं। हालांकि आज भी कई घरो और मंदिरों में इस परंपरा का कठोरता से पालन किया जाता है ।
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