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Premanand Ji Maharaj Satsang: संत की शरण में जाएं आत्मा के जागरण के लिए, चमत्कार और समस्याओं के समाधान के लिए नहीं- प्रेमानंद महाराज
Premanand Ji Maharaj Satsang: प्रेमानंद महाराज जी ने स्पष्ट किया कि संत कोई 'चमत्कारिक मशीन’ नहीं हैं, जो आप गए और कोई चमत्कार कर दिया।
Premanand Ji Maharaj Satsang (Image Credit-Social Media)
Premanand Ji Maharaj Pravachan: राधा केलि कुंज, वृंदावन में आयोजित प्रवचन में श्री प्रेमानंद महाराज जी ने समाज की उस प्रवृत्ति पर सवाल उठाया जिसमें लोग संतों के पास केवल अपनी इच्छाएं पूरी करवाने, किसी चमत्कार या समस्याओं का समाधान पाने की उम्मीद लेकर पहुंचते हैं। उन्होंने बेहद सहज शब्दों में कहा कि संत कोई डॉक्टर, वकील या धनदाता नहीं होते कि आप अपने दुख-सुख लेकर जाएं और समाधान पा लें। संतों की भूमिका कहीं अधिक गहरी और सूक्ष्म होती है। वे आत्मा को झकझोरते हैं। वे आपके मन को निर्मल करते हैं और परमात्मा की ओर मोड़ने का माध्यम बनते हैं।
संतों की कृपा शरीर नहीं, चेतना के स्तर पर होती है
महाराज जी ने एक उदाहरण देते हुए बताया कि एक भक्त ने उनसे पीठ दर्द का समाधान पूछा, तो उन्होंने सीधा जवाब दिया कि, आप, डॉक्टर के पास जाओ।' यह जवाब किसी को कठोर लग सकता है लेकिन इसमें आध्यात्म का गूढ़ रहस्य छिपा है। प्रेमानंद जी का कहना है कि संत की कृपा शरीर पर नहीं, चेतना पर असर करती है। उनके पास आने का मकसद मन की शांति, आत्मा का जागरण और प्रेममय भक्ति होनी चाहिए, न कि सिरदर्द, नौकरी या संतान की समस्याएं आदि।
सच्चा साधक वह है जो संत की शरण में देने के भाव से आए
अपने प्रवचन के दौरान महाराज जी ने एक महत्वपूर्ण बात कही कि, 'जो व्यक्ति संत के पास कुछ मांगने जाता है, वह साधक नहीं, व्यापारी है। लेकिन जो संत के पास सेवा, प्रेम और भक्ति लेकर जाता है। वही सच्चा भक्त है।' उन्होंने बताया कि सेवा का भाव ही वह माध्यम है जिससे ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है। संत केवल माध्यम हैं जो भक्त को ईश्वर की गोदी तक पहुंचा सकते हैं, लेकिन यह तभी संभव है जब साधक अपने स्वार्थ को पीछे रखकर समर्पण करे।
मन की स्थिरता, आत्मा की शुद्धि और प्रेम का विस्तार ही संत का उद्देश्य
प्रेमानंद महाराज जी ने स्पष्ट किया कि संत कोई 'चमत्कारिक मशीन’ नहीं हैं, जो आप गए और कोई चमत्कार कर दिया। बल्कि उनका उद्देश्य है आपके मन को स्थिर करना, आत्मा को शुद्ध करना और हृदय में प्रेम का विस्तार करना। यह प्रेम केवल किसी देवता या व्यक्ति विशेष के लिए नहीं होता, बल्कि सम्पूर्ण जगत के लिए होता है। जब हृदय में निस्वार्थ प्रेम पैदा होता है, तो वही सच्चा भक्त कहलाता है और वही संत का असली आशीर्वाद होता है।
आत्मिक उन्नति के लिए सबसे सरल रास्ता है नामजप और सेवा
प्रवचन के दौरान महाराज जी ने नामजप की महिमा का विशेष रूप से उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि भक्ति में सबसे सरल और प्रभावशाली साधना है, 'नामजप'। जब एक व्यक्ति पूरी श्रद्धा से ‘राधे राधे’ या ‘हरे राम’ का जाप करता है, तब उसका मन धीरे-धीरे सांसारिक मोह से हटकर आत्मिक चेतना की ओर केंद्रित होने लगता है। साथ ही, सेवा चाहे संत की, समाज की, पशु-पक्षियों की या प्रकृति किसी की भी हो। ये ईश भक्ति का दूसरा महत्वपूर्ण स्तंभ है। सबसे ध्यान रखने वाली बात ये है कि, सेवा बिना शर्त की जाए, तभी उसका फल आत्मा को मिलता है।
भौतिक सुखों की चाह भक्ति में सबसे बड़ी बाधा
प्रेमानंद जी ने भक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा के रूप में ‘इच्छा’ को बताया। उन्होंने कहा कि जब तक भक्त के मन में मांग शेष है, तब तक भक्ति पूर्ण नहीं मानी जा सकती। उन्होंने कृष्ण और मीरा के उदाहरणों से यह समझाया कि मीरा ने कभी भगवान से कुछ नहीं मांगा, सिर्फ प्रेम मांगा और वह ईश्वर की प्रिय हो गई। वहीं जब भक्त भगवान को अपने स्वार्थ के लिए पुकारता है, तो वह संबंध व्यापार जैसा बन जाता है, जिसमें सच्चाई नहीं होती।
विवेक और धैर्य ही असली 'आशीर्वाद'
प्रेमानंद महाराज जी ने अपने प्रवचन में यह भी कहा कि आजकल भक्तों की सोच यह हो गई है कि संतों से मिलने से चमत्कार हो जाएगा, जीवन की हर समस्या खत्म हो जाएगी। लेकिन वास्तव में संत चमत्कार नहीं करते, वे भक्त को विवेक देते हैं, जिससे वह जीवन के उतार-चढ़ाव को संतुलन से झेल सके। विवेक और धैर्य ही असली 'आशीर्वाद' है, न कि अचानक से मिली धन-दौलत या पद-प्रतिष्ठा।
सच्चा भक्त वह है जो संत को गुरु मानकर मार्गदर्शक बनाए
प्रेमानंद जी ने भक्तों को याद दिलाया कि संत को केवल मनोरंजन, बातचीत या समाधान का साधन न समझें। उन्हें अपने आध्यात्मिक जीवन के 'गाइड' के रूप में देखें, एक ऐसे पथप्रदर्शक के रूप में जो आपको सत्य, भक्ति और प्रेम की ओर ले जाए। जब एक भक्त संत को 'गुरु' मानता है और पूरी निष्ठा से उनके बताए मार्ग पर चलता है, तभी वह अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ता है।
संत का संग चित्त को निर्मल करता है, भाग्य नहीं
प्रवचन के अंत में प्रेमानंद महाराज जी ने एक बार फिर स्पष्ट शब्दों में कहा कि संतों का संग किसी का भाग्य नहीं बदलता, लेकिन उसका चित्त बदल देता है। चित्त का परिवर्तन ही सबसे बड़ा वरदान है। क्योंकि यही परिवर्तन व्यक्ति को संयम, प्रेम, सेवा और भक्ति की ओर प्रेरित करता है। यदि कोई व्यक्ति बार-बार संतों के पास जाकर भी वैसा ही लालची, स्वार्थी और क्रोधित बना रहे, तो वह केवल समय व्यर्थ कर रहा है।
संत से चमत्कार नहीं, चेतना मांगिए
प्रेमानंद महाराज जी का यह प्रवचन भक्ति की दिशा बदल देने वाला संदेश है। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि संतों से मिलने का मतलब समस्या सुलझवाना नहीं, बल्कि आत्मा को सजग और मन को निर्मल करना होना चाहिए। उनके हर शब्द में एक सीधी, खरी और प्रेममयी सीख छिपी थी कि, 'संत के पास जाओ, लेकिन कुछ लेने नहीं, स्वयं को देने।' जब यह सोच बन जाएगी, तभी भक्त और भगवान का मिलन वास्तव में संभव होगा। अगर कोई इस प्रवचन को पूरी तरह आत्मसात करें, तो न केवल उसकी जीवनशैली बदलेगी, बल्कि वह आंतरिक संतोष भी मिलेगा जिसकी तलाश में ही लोग अक्सर संत की शरण में जाते हैं।
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