Premanand Ji Maharaj Sandesh: गणेश विसर्जन या गणेश अपमान? प्रेमानंद जी का चेतावनी भरा संदेश

Premanand Ji Maharaj Sandesh: प्रेमानंद महाराज जी कहते हैं कि, शास्त्रों के अनुसार, विसर्जन का अर्थ केवल मूर्ति को पानी में डुबोना नहीं है, बल्कि यह जीवन-दर्शन है।

Jyotsna Singh
Published on: 5 Sept 2025 10:33 AM IST
Premanand Ji Maharaj
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 Premanand Ji Maharaj (Image Credit-Social Media)

Premanand Ji Maharaj: गणेश चतुर्थी का पर्व केवल पूजा-अर्चना का नहीं, बल्कि आस्था, संस्कृति और समाज को जोड़ने का भी प्रतीक है। दस दिन तक घर-घर और पंडालों में विराजमान गणपति बप्पा जब विदा होते हैं तो परंपरा अनुसार उन्हें सदियों से अगाध जल में विसर्जित किया जाता रहा है। लेकिन पर्यावरण संरक्षण की आड़ में आज बदलते समय के साथ विसर्जन का तरीका ऐसा रूप ले रहा है, जो धर्म, परंपरा और श्रद्धा के पूरी तरह से विपरीत है। संत प्रेमानंद जी ने अपने संदेश में इस स्थिति पर गंभीर चिंता जताते हुए कहा है कि भगवान की प्रतिमाओं का अपमान करना, उन्हें घर के मंदिर से निकाल कर यूं ही कहीं छोड़ आना और उनका मशीनों से तोड़ा जाना और ढेर में पटकना हमारे धर्म के लिए बड़ा अपराध है।

परंपरा का अर्थ और महत्व

गणेश चतुर्थी का पर्व भारत में विशेष रूप से महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। दस दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में लोग भगवान गणेश की प्रतिमाओं को घर लाते हैं, पूजा करते हैं और फिर परंपरा के अनुसार उन्हें जल में विसर्जित करते हैं।


प्रेमानंद महाराज जी कहते हैं कि, शास्त्रों के अनुसार, विसर्जन का अर्थ केवल मूर्ति को पानी में डुबोना नहीं है, बल्कि यह जीवन-दर्शन है। इसका संदेश है कि इस भौतिक शरीर का अंत एक दिन निश्चित है, लेकिन आत्मा अमर रहती है। जिस तरह मिट्टी की प्रतिमा जल में घुलकर फिर से प्रकृति में मिल जाती है, उसी तरह मनुष्य को भी अहंकार छोड़कर परमात्मा में विलीन हो जाना चाहिए।

आज की विसर्जन व्यवस्था और धर्म संकट

प्रेमानंद जी देव प्रतिमाओं की विसर्जन के नाम पर उनकी दुर्गति को देखकर बेहद आहत हैं। वे कहते हैं कि आधुनिक समय में यह विसर्जन जिस प्रकार से किया जा रहा है, वह परंपरा से बिल्कुल विपरीत है। कई जगहों पर प्रतिमाओं का ढेर लगाया जाता है, उन्हें गड्ढों में एक-दूसरे के ऊपर पटक दिया जाता है। इतना ही नहीं, विसर्जन के दौरान जो प्रतिमाएं बाहर आती हैं, उन्हें जेसीबी और मशीनों से तोड़ा और बटोरा जाता है। प्रेमानंद जी का कहना है कि यह दृश्य देखकर आत्मा रो पड़ती है। जिस भगवान की हम दस दिन तक पूजा करते हैं, उन्हें ही बाद में पैरों तले रौंदना और मशीन से तोड़ना आस्था का मज़ाक है।

प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं कि 'क्या आपके विसर्जन करने से भगवान का अस्तित्व खत्म हो जाएगा?'

श्रद्धा और आस्था का अपमान

प्रेमानंद जी ने अपने संदेश में कहा कि हमारे धर्म में यदि भगवान गणेश की प्रतिमा हमारे सामने हो और दूसरी ओर तलवार हो तो हम तलवार से गर्दन कटवाना पसंद करेंगे, लेकिन गणेश जी की प्रतिमा को पैरों तले कुचला जाता हुआ नहीं देख सकते।

प्रेमानंद जी कहते हैं कि यह सवाल हर भक्त के हृदय में उठना चाहिए कि क्या गणेश चतुर्थी के बाद भगवान गणेश नहीं रहते? क्या उनका अस्तित्व विसर्जन के साथ ही समाप्त हो जाता है? बिल्कुल नहीं। गणेश जी सदैव मंगलमूर्ति हैं, वे विघ्नहर्ता हैं। उनका स्वरूप और शक्ति कभी समाप्त नहीं होती। विसर्जन केवल एक परंपरा भर है।

धार्मिक दृष्टिकोण से विसर्जन


प्रेमानंद जी महाराज बताते हैं कि हिंदू धर्म में मूर्ति विसर्जन का स्पष्ट विधान है। पूजा के बाद मूर्ति को जल में प्रवाहित करने की परंपरा हजारों साल पुरानी है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि भगवान के पूजन के बाद उन्हें जल में समर्पित किया जाए। इसका अर्थ यह है कि भगवान का स्वरूप असीम है और वे तत्वों के माध्यम से सृष्टि में व्याप्त रहते हैं।

लेकिन किसी भी शास्त्र या परंपरा में यह नहीं लिखा कि पूजित प्रतिमाओं को तोड़ा जाए, मशीन से कुचला जाए या ढेर में फेंका जाए। यह न केवल धर्मविरुद्ध है बल्कि आस्था का भी अपमान है।

पर्यावरण और परंपरा का संतुलन

आज विसर्जन का एक बड़ा पहलू पर्यावरण से जुड़ा है। प्लास्टर ऑफ पेरिस और रासायनिक रंगों से बनी प्रतिमाएं नदियों और तालाबों को प्रदूषित करती हैं। जिससे मछलियों और जलीय जीवों को नुकसान पहुंचता है। प्रेमानंद जी का सुझाव है कि सरकार और समाज मिलकर ऐसे सरोवरों का निर्माण करें, जहां सामूहिक रूप से विसर्जन किया जा सके। साथ ही ऐसी प्रतिमाओं का निर्माण हो जो केवल प्राकृतिक मिट्टी (रज) से बनी हों। ये प्रतिमाएं पानी में घुलकर पुनः मिट्टी बन जाएंगी और प्रकृति में विलीन हो जाएंगी। इससे न तो धर्म का अपमान होगा और न ही पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा। साथ ही घरों में लोग किसी पात्र में रज से बनी गणेश प्रतिमा का विसर्जन कर उस पवित्र जल को किसी गमले या पेड़ की जड़ों में अर्पित कर सकते हैं।

प्रेमानंद जी की चेतावनी

आज के विसर्जन दृश्य यह संकेत देते हैं कि हम केवल बाहरी दिखावे पर जोर दे रहे हैं, असल परंपरा को भूल रहे हैं। बड़े-बड़े पंडाल, भव्य प्रतिमाएं, सजावट और प्रतियोगिताएं सब कुछ चमक-दमक में बदल गया है। लेकिन विसर्जन के बाद जब इन्हीं प्रतिमाओं को खड्डों में मशीन से तोड़कर फेंका जाता है, तो यही समाज मौन रह जाता है। प्रेमानंद जी चेतावनी देते हैं कि भगवान का अपमान कभी सहन नहीं होगा। 'मां अंबे जिनकी माता हैं और भगवान शिव जिनके पिता हैं, उन गणेश जी का अनादर समाज को भारी पड़ेगा।'

क्या हैं समाधान

देव प्रतिमाओं के विसर्जन को लेकर धर्म और पर्यावरण दोनों को बचाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जा सकते हैं, जैसे सिर्फ मिट्टी और प्राकृतिक रंगों की प्रतिमाएं बनाना और प्रोत्साहित करना। नगर निगमों द्वारा कृत्रिम सरोवर और टैंक की व्यवस्था करना। प्रतिमाओं को सम्मानपूर्वक विसर्जित करने की सामूहिक व्यवस्था। भक्तों को जागरूक करना कि भगवान की प्रतिमा कोई खिलौना या सजावट की वस्तु नहीं है।

आस्था और अस्तित्व


प्रेमानंद जी का संदेश है कि विसर्जन का अर्थ यह नहीं कि भगवान हमें छोड़कर चले गए। कहावत है कि दस दिन बाद बप्पा अपने लोक में लौट जाते हैं और विघ्नों को हर ले जाते हैं। लेकिन उनका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता। वे तो सदा ही हमारे जीवन में, हमारे मन में और हमारे घर में रहते हैं।

यह समझना ज़रूरी है कि प्रतिमा पूज्य है, उसका अपमान नहीं होना चाहिए। विसर्जन का अर्थ है सम्मानपूर्वक विदा करना, न कि पैरों तले कुचलना या जेसीबी से तोड़ना।

गणेश विसर्जन केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि समाज की आस्था और संस्कृति का प्रतीक है। प्रेमानंद जी का संदेश यह सोचने पर मजबूर करता है कि आधुनिकता और दिखावे की दौड़ में हम धर्म की मूल भावना को खोते जा रहे हैं।

जरूरत इस बात की है कि हम परंपरा और पर्यावरण का संतुलन बनाते हुए, पानी में आसानी से घुल जाने वाली मिट्टी से निर्मित गणेश प्रतिमाओं का पूजन करें और विसर्जन को वास्तविक धार्मिक भाव के साथ सम्पन्न करें। क्योंकि बप्पा का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता वे हमेशा हमारे जीवन के विघ्नहर्ता-मंगलकर्ता रहेंगे।

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