Teachers Day Special: भारत की प्रसिद्ध गुरु-शिष्य जोड़ियाँ और उनकी प्रेरक कहानियाँ

Teachers Day Special : इस लेख में हम कुछ ऐसी प्रमुख गुरु-शिष्य जोड़ियों के बारे में जानेंगे।

Shivani Jawanjal
Published on: 5 Sept 2025 11:05 AM IST
Teachers Day Special Famous Guru Shishya Ki Kahani in Hindi
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Teachers Day Special Famous Guru Shishya Ki Kahani in Hindi

Teachers Day 2025: गुरु वह होता है जो शिष्य को अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान का प्रकाश दिखाता है। भारतीय परंपरा में गुरु-शिष्य का रिश्ता बहुत पवित्र और खास माना जाता है। गुरु केवल पढ़ाई नहीं कराता, बल्कि शिष्य के अच्छे संस्कार, चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण भी करता है। भारत में हर साल 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है, जो महान दार्शनिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती के अवसर पर मनाया जाता है। हमारे इतिहास और पुराणों में कई ऐसी प्रसिद्ध गुरु-शिष्य जोड़ियाँ हैं जिन्होंने समाज, संस्कृति और देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

गुरु - शिष्य परंपरा का महत्व

भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा बहुत प्राचीन और पवित्र मानी जाती है। यह केवल पढ़ाई-लिखाई तक सीमित नहीं है बल्कि शिष्य के चरित्र, नेतृत्व क्षमता और जीवन दृष्टि का निर्माण भी करती है। गुरु शिष्य की छिपी प्रतिभा को पहचानकर उसे सही दिशा देता है। यह संबंध सिर्फ शैक्षणिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और नैतिक भी होता है, जिसमें गुरु शिष्य का मार्गदर्शक और संरक्षक बनता है। भारतीय संस्कृति में गुरुपूर्णिमा का पर्व इसी परंपरा के सम्मान में मनाया जाता है। इस दिन हम गुरु के महत्व, उनके आदर्शों और उनके दिए जीवन दर्शन को याद करते हैं। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान स्थान दिया गया है और उन्हें ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाला तथा अज्ञान का नाश करने वाला माना गया है।

द्रोणाचार्य और अर्जुन


द्रोणाचार्य और अर्जुन का रिश्ता भारतीय इतिहास में गुरु-शिष्य संबंध का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है। द्रोणाचार्य हस्तिनापुर के कौरव और पांडव राजकुमारों के गुरु थे और उन्होंने सभी को युद्धकला और धनुर्विद्या की शिक्षा दी। अर्जुन द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य थे। द्रोणाचार्य ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का संकल्प लिया और अर्जुन ने भी कड़ी मेहनत कर अपनी योग्यता साबित की। गुरु दक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने अर्जुन से अपने अपमान का बदला लेने के लिए राजा द्रुपद को बंदी बनाकर लाने को कहा, और अर्जुन ने यह कार्य सफलतापूर्वक पूरा किया। महाभारत के युद्ध में भले ही द्रोणाचार्य कौरव पक्ष के सेनापति बने और अर्जुन पांडवों की ओर से लड़े, लेकिन उनके बीच गुरु-शिष्य का सम्मान हमेशा बना रहा। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को सिर्फ धनुर्विद्या ही नहीं, बल्कि अनुशासन, निष्ठा और धर्म का महत्व भी सिखाया। यही कारण है कि इन दोनों का नाम गुरु-शिष्य आदर्श के रूप में आज भी याद किया जाता है।

चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य


चाणक्य जिन्हें कौटिल्य या विष्णुगुप्त भी कहा जाता है, तक्षशिला के महान आचार्य, विद्वान और कुशल राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने नंद वंश के अन्यायपूर्ण शासन को खत्म करने का संकल्प लिया। इसी दौरान उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य में नेतृत्व की अद्भुत क्षमता देखी। चाणक्य ने चंद्रगुप्त को तक्षशिला ले जाकर राजनीति, युद्धकला और प्रशासन की गहरी शिक्षा दी। चाणक्य की नीतियों और मार्गदर्शन से चंद्रगुप्त ने नंद वंश का अंत किया और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की, जो तत्कालीन भारत का सबसे बड़ा और शक्तिशाली साम्राज्य बना। चाणक्य और चंद्रगुप्त की यह जोड़ी गुरु-शिष्य संबंध, समर्पण और दूरदृष्टि का सर्वोत्तम उदाहरण है, जिसने राष्ट्र निर्माण में गुरु के महत्व को सदा के लिए अमर कर दिया।

वाल्मीकि और लव-कुश


महर्षि वाल्मीकि जिन्हें आदिकवि कहा जाता है, रामायण के रचयिता और लव-कुश के गुरु थे। उन्होंने अपने आश्रम में लव और कुश को वेद-पुराण, धर्म ज्ञान, युद्धकला, धनुर्विद्या, शास्त्र, संगीत और दैवीय अस्त्रों का ज्ञान दिया। वाल्मीकि की शिक्षा का प्रभाव इतना गहरा था कि लव-कुश ने अपने पिता भगवान राम को भी धर्म और न्याय का बोध कराया। उन्होंने रामायण की कथा सुनाकर सत्य का संदेश फैलाया और राम के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े की रक्षा करके अपना युद्ध कौशल भी दिखाया। यह गुरु-शिष्य जोड़ी इस बात का उदाहरण है कि गुरु केवल ज्ञान देने वाला नहीं होता, बल्कि वह शिष्य के जीवन की दिशा तय करता है और उसे धर्म, साहस और न्याय के मार्ग पर चलना सिखाता है।

संत रामानुजाचार्य और उनके शिष्य

रामानुजाचार्य (1017–1137) दक्षिण भारत के महान वैष्णव संत और विशिष्टाद्वैत वेदांत के प्रवर्तक थे। उन्होंने भक्ति को केवल विद्वानों या किसी विशेष वर्ग तक सीमित न रखकर हर जाति और वर्ग तक पहुँचाया। रामानुजाचार्य ने अपने शिष्यों को सिखाया कि भक्ति का मार्ग जाति-पांति से ऊपर है और ईश्वर के समक्ष सभी समान हैं। वे समाज में समानता, समरसता और न्याय के समर्थक थे। उनके शिष्यों ने गुरु के इन विचारों को पूरे भारत में फैलाया और भक्ति आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाया। रामानुजाचार्य और उनके शिष्यों की यह जोड़ी भक्ति आंदोलन के विस्तार और सामाजिक सुधार का महत्वपूर्ण आधार बनी।

रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद


रामकृष्ण परमहंस 19वीं सदी के महान संत और आध्यात्मिक गुरु थे, जिन्होंने स्वामी विवेकानंद को अपना शिष्य बनाया। विवेकानंद ने अपने गुरु से अद्वैत वेदांत की शिक्षा ली और सीखा कि “मनुष्य की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।” रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद के तर्क और ज्ञान को भक्ति की गहराई से जोड़कर उन्हें आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ाया। स्वामी विवेकानंद ने गुरु के इन विचारों को पूरी दुनिया तक पहुँचाया और भारत को उसकी आध्यात्मिक शक्ति का बोध कराया। उन्होंने सेवा और आध्यात्मिक जागरण को आधुनिक भारत के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया। यह गुरु-शिष्य जोड़ी आज भी प्रेरणा का स्रोत है।

गुरु गोबिंद सिंह और पंच प्यारे


गुरु गोबिंद सिंह जी सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरु थे जिन्होंने 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की। इस अवसर पर उन्होंने पांच वीर शिष्यों भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह, भाई मोहकम सिंह, भाई हिम्मत सिंह और भाई साहिब सिंह को बुलाकर बलिदान स्वरूप शीश मांगा। पांचों शिष्यों ने बिना किसी डर या हिचकिचाहट के अपना जीवन अर्पित करने की स्वीकृति दी। गुरु जी ने इन्हें ‘पंच प्यारे’ की उपाधि दी और ‘सिंह’ की उपाधि प्रदान की, जो साहस, बलिदान और समानता का प्रतीक बनी। खालसा पंथ के ये पंच प्यारे जाति और वर्ग से ऊपर उठकर धर्म की रक्षा के लिए एकजुट हुए। गुरु गोबिंद सिंह और पंच प्यारे की यह जोड़ी साहस, त्याग और गुरु-शिष्य संबंध की अद्भुत मिसाल है।

रवींद्रनाथ टैगोर और उनके शिष्य

रवींद्रनाथ टैगोर केवल नोबेल पुरस्कार विजेता कवि ही नहीं बल्कि एक महान शिक्षाशास्त्री और दार्शनिक भी थे। 1901 में उन्होंने अपने पिता महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर के आश्रम को आधार बनाकर शांति निकेतन में एक स्कूल की स्थापना की, जो आगे चलकर विश्वभारती विश्वविद्यालय बना। यहाँ पारंपरिक शिक्षा के साथ - साथ कला, संगीत, साहित्य और संस्कृति को विशेष महत्व दिया गया। टैगोर की शिक्षा पद्धति में रचनात्मकता, स्वतंत्र सोच और व्यक्तित्व विकास को सबसे अहम स्थान मिला। उनके शिष्यों ने पारंपरिक ज्ञान के साथ आधुनिक विचार भी अपनाए और समग्र विकास की दिशा में आगे बढ़े। रवींद्रनाथ टैगोर और उनके शिष्यों की यह जोड़ी रचनात्मकता, स्वतंत्रता और नई सोच का प्रेरणादायक उदाहरण मानी जाती है।

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