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Today History: तिब्बत के रक्षक देवता की दोलग्याल साधना
Dolgyal Sadhana Full Information: दोलग्याल साधना तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग्पा संप्रदाय से जुड़ी है और इसे लेकर पिछले कई दशकों से विवाद चल रहा है।
Dolgyal Sadhana (Image Credit-Social Media)
Dolgyal Sadhana of Protector Deity of Tibet: तिब्बती बौद्ध धर्म की दुनिया में कुछ परंपराएँ ऐसी हैं जो अपनी गहरी आध्यात्मिकता और जटिल इतिहास के लिए जानी जाती हैं। इन्हीं में से एक है दोलग्याल साधना जिसे डोरजे शुगदेन की पूजा के नाम से भी जाना जाता है। यह साधना तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग्पा संप्रदाय से जुड़ी है और इसे लेकर पिछले कई दशकों से विवाद चल रहा है। 14वें दलाई लामा तेनज़िन ग्यात्सो ने इस साधना को समाज विरोधी और विभाजनकारी बताकर इसका कड़ा विरोध किया है। यह लेख दोलग्याल साधना के इतिहास महत्व विवाद और दलाई लामा के विरोध के कारणों को विस्तार से समझाने का प्रयास करता है। साथ ही यह तिब्बती समाज पर इसके प्रभाव और इससे जुड़ी भावनात्मक कहानियों को भी उजागर करता है।
दोलग्याल साधना क्या है
दोलग्याल साधना तिब्बती बौद्ध धर्म में एक रक्षक देवता डोरजे शुगदेन की पूजा से जुड़ी है। डोरजे शुगदेन को गेलुग्पा संप्रदाय का एक शक्तिशाली रक्षक माना जाता है जो इस संप्रदाय की शुद्धता और परंपराओं की रक्षा करता है। इस साधना में भक्त डोरजे शुगदेन को प्रसन्न करने के लिए विशेष मंत्र ध्यान और पूजा-अर्चना करते हैं। मान्यता है कि यह देवता भक्तों को बाहरी और आंतरिक बाधाओं से बचाता है और उनकी आध्यात्मिक यात्रा को सुगम बनाता है। डोरजे शुगदेन को एक भयंकर योद्धा के रूप में चित्रित किया जाता है जो तलवार और ढाल लिए हुए है और जो बौद्ध धर्म के शत्रुओं का नाश करता है।
Today History: इस साधना की शुरुआत 17वीं शताब्दी में मानी जाती है जब गेलुग्पा संप्रदाय के पांचवें दलाई लामा के समय में तिब्बती बौद्ध धर्म में विभिन्न संप्रदायों के बीच वैचारिक मतभेद उभर रहे थे। कुछ विद्वानों का मानना है कि डोरजे शुगदेन की उत्पत्ति एक तुल्कु यानी पुनर्जनन वाले लामा के रूप में हुई थी जो बाद में एक रक्षक देवता के रूप में पूजे जाने लगे। यह तुल्कु तुल्कु ड्राक्पा ग्याल्त्सेन थे जो पांचवें दलाई लामा के समकालीन थे। किंवदंती के अनुसार उनकी मृत्यु के बाद उनकी आत्मा एक शक्तिशाली रक्षक के रूप में प्रकट हुई जिसे डोरजे शुगदेन कहा गया।
दोलग्याल साधना का महत्व
दोलग्याल साधना के समर्थकों का मानना है कि डोरजे शुगदेन गेलुग्पा संप्रदाय की शुद्धता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गेलुग्पा तिब्बती बौद्ध धर्म की चार प्रमुख शाखाओं में से एक है और इसे येलो हैट संप्रदाय के नाम से भी जाना जाता है। इस संप्रदाय के अनुयायी डोरजे शुगदेन को एक ऐसे रक्षक के रूप में देखते हैं जो उनकी परंपराओं को अन्य संप्रदायों जैसे न्यिंग्मा या काग्यू के प्रभाव से बचाता है। समर्थकों का कहना है कि यह साधना उनके आध्यात्मिक जीवन को शक्ति देती है और उन्हें बौद्ध धर्म के सही मार्ग पर चलने में मदद करती है।
इस साधना में विशेष मंत्र और अनुष्ठान शामिल हैं जो गुप्त रूप से किए जाते हैं। भक्तों का मानना है कि डोरजे शुगदेन उनकी प्रार्थनाओं का तुरंत जवाब देता है और उनकी समस्याओं का समाधान करता है। कुछ लोग इसे धन संपत्ति और सुरक्षा से भी जोड़ते हैं। यह साधना विशेष रूप से तिब्बती समुदाय के कुछ हिस्सों और निर्वासित तिब्बतियों में लोकप्रिय रही है।
दलाई लामा का विरोध
14वें दलाई लामा ने 1996 में पहली बार सार्वजनिक रूप से दोलग्याल साधना का विरोध किया। उन्होंने इसे तिब्बती समाज के लिए हानिकारक और समाज विरोधी करार दिया। दलाई लामा का कहना है कि यह साधना तिब्बती बौद्ध धर्म में गहरे विभाजन का कारण बन रही है। उनके अनुसार डोरजे शुगदेन की पूजा एक भटकाव है जो बौद्ध धर्म की मूल भावना यानी करुणा और अहिंसा को कमजोर करती है। उन्होंने इसे एक भ्रमजाल कहा जो भक्तों को उनके आध्यात्मिक उद्देश्य से भटकाता है।
दलाई लामा का विरोध कई कारणों से है। पहला यह कि वे तिब्बती बौद्ध धर्म के सभी संप्रदायों को एकजुट करना चाहते हैं। गेलुग्पा संप्रदाय में डोरजे शुगदेन की पूजा को अन्य संप्रदायों जैसे न्यिंग्मा के खिलाफ देखा जाता है। यह तनाव तिब्बती समुदाय में सामाजिक और धार्मिक एकता को नुकसान पहुँचाता है। दूसरा दलाई लामा का मानना है कि डोरजे शुगदेन की पूजा एक अंधविश्वास पर आधारित है जो तिब्बती समाज को रूढ़ियों में जकड़ती है। तीसरा कुछ लोग इस साधना को चीन के साथ जोड़कर देखते हैं क्योंकि कुछ शुगदेन समर्थक तिब्बती स्वतंत्रता आंदोलन के खिलाफ हैं जिसे दलाई लामा नेतृत्व करते हैं।
दलाई लामा ने अपने कई भाषणों में कहा है कि यह साधना तिब्बती समाज में फूट और भ्रम पैदा करती है। 2025 में धर्मशाला के मैक्लोडगंज में एक सार्वजनिक सभा के दौरान एक तिब्बती परिवार ने अपनी पीड़ा साझा की। एक बुजुर्ग महिला ने कहा कि इस साधना के कारण उन्होंने अपने रिश्तेदारों दोस्तों और सामाजिक सम्मान को खो दिया। इस भावनात्मक अपील ने दलाई लामा और वहाँ मौजूद लोगों को झकझोर दिया। दलाई लामा ने इस मौके पर स्पष्ट किया कि यह साधना न केवल व्यक्तिगत अशांति का कारण है बल्कि पूरे तिब्बती समुदाय की एकता के लिए खतरा है।
विवाद का इतिहास
दोलग्याल साधना को लेकर विवाद नया नहीं है। 17वीं शताब्दी में जब यह साधना शुरू हुई तब भी गेलुग्पा और अन्य संप्रदायों के बीच तनाव था। पांचवें दलाई लामा ने भी इस साधना के कुछ पहलुओं पर सवाल उठाए थे। हालांकि 20वीं शताब्दी तक यह साधना गेलुग्पा संप्रदाय में एक सामान्य प्रथा बन चुकी थी। 1970 के दशक में दलाई लामा ने इस साधना पर सवाल उठाना शुरू किया और 1996 में उन्होंने इसे पूरी तरह से प्रतिबंधित करने का फैसला लिया। इस फैसले ने तिब्बती समुदाय में तीव्र प्रतिक्रिया को जन्म दिया। कुछ लोगों ने दलाई लामा के फैसले का समर्थन किया तो कुछ ने इसका विरोध किया।
विरोध करने वालों में एक बड़ा समूह न्यू कदम्पा ट्रेडिशन का है जो पश्चिमी देशों में तिब्बती बौद्ध धर्म का एक समूह है। इस समूह ने डोरजे शुगदेन की साधना को अपनी परंपरा का अभिन्न हिस्सा माना और दलाई लामा के विरोध को गलत ठहराया। इस विवाद ने तिब्बती समुदाय को दो हिस्सों में बाँट दिया। एक तरफ वे लोग थे जो दलाई लामा की बात मानते थे और दूसरी तरफ वे जो अपनी पारंपरिक साधना को छोड़ना नहीं चाहते थे।
तिब्बती समाज पर प्रभाव
दोलग्याल साधना के विवाद ने तिब्बती समाज पर गहरा प्रभाव डाला है। कई परिवारों में इस साधना को लेकर मतभेद हुए हैं। कुछ लोगों ने सामाजिक बहिष्कार का सामना किया क्योंकि उन्होंने दलाई लामा के आदेश का पालन नहीं किया। धर्मशाला में 2025 में एक सार्वजनिक सभा में एक महिला ने कहा कि इस साधना के कारण उनके परिवार ने सामाजिक सम्मान और रिश्ते खो दिए। यह बयान तिब्बती समाज में इस विवाद की गंभीरता को दर्शाता है।
यह विवाद केवल धार्मिक नहीं बल्कि सामाजिक और राजनीतिक भी है। कुछ लोग मानते हैं कि चीन इस विवाद को बढ़ावा देता है ताकि तिब्बती समुदाय में फूट पड़े और दलाई लामा का प्रभाव कम हो। दलाई लामा ने इसे समाज विरोधी बताया है क्योंकि यह तिब्बती एकता को तोड़ता है और बौद्ध धर्म की करुणा और अहिंसा की भावना के खिलाफ है।
दलाई लामा का दृष्टिकोण
दलाई लामा तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग्पा संप्रदाय के सबसे बड़े नेता हैं और उन्हें अवलोकितेश्वर यानी करुणा के बोधिसत्व का अवतार माना जाता है। वे तिब्बती समाज को एकजुट करने और आधुनिक बनाने के लिए काम कर रहे हैं। उनका मानना है कि दोलग्याल साधना तिब्बती समाज को पीछे ले जाती है और इसे छोड़ना जरूरी है। उन्होंने अपने अनुयायियों से इस साधना को त्यागने की अपील की है ताकि तिब्बती समुदाय एकजुट होकर अपनी संस्कृति और धर्म को बचा सके।
दलाई लामा का कहना है कि डोरजे शुगदेन की पूजा एक भूत या आत्मा की पूजा जैसी है जो बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। उन्होंने इसे एक ऐसी प्रथा बताया जो तिब्बती समाज में भेदभाव और तनाव को बढ़ावा देती है। 2025 में राटो मठ के भिक्षुओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि यह साधना एक भ्रमजाल है जो बौद्ध धर्म के उद्देश्य से भटकाता है।
चीन का रोल
दोलग्याल साधना के विवाद में चीन का नाम भी बार-बार आता है। कुछ लोग मानते हैं कि चीन इस साधना को समर्थन देता है ताकि तिब्बती समुदाय में फूट पड़े। दलाई लामा 1959 में तिब्बत से भारत भाग आए थे और तब से वे धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती सरकार के नेता हैं। चीन दलाई लामा को एक अलगाववादी नेता मानता है और तिब्बत पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए तिब्बती समुदाय को कमजोर करना चाहता है। दोलग्याल साधना का समर्थन करने वाले कुछ समूहों को चीन का समर्थन मिलने की बात कही जाती है जिसे दलाई लामा और उनके समर्थक तिब्बती एकता के लिए खतरा मानते हैं।
सांस्कृतिक महत्व
दोलग्याल साधना का विवाद तिब्बती संस्कृति का एक हिस्सा है और यह धर्मशाला जैसे स्थानों पर पर्यटकों के लिए भी रुचिकर है। धर्मशाला में त्सुगलागखांग कॉम्प्लेक्स यानी दलाई लामा मंदिर तिब्बती संस्कृति का केंद्र है। यहाँ आने वाले पर्यटक तिब्बती बौद्ध धर्म और इसके विवादों के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। दोलग्याल साधना का विवाद तिब्बती समाज की जटिलता और उनकी धार्मिक परंपराओं को समझने का एक मौका देता है। दोलग्याल साधना तिब्बती बौद्ध धर्म की एक विवादास्पद प्रथा है जो डोरजे शुगदेन की पूजा से जुड़ी है।
यह साधना गेलुग्पा संप्रदाय के लिए महत्वपूर्ण है लेकिन दलाई लामा ने इसे समाज विरोधी और विभाजनकारी बताया है। यह विवाद तिब्बती समाज में गहरे सामाजिक और धार्मिक प्रभाव डालता है और कई परिवारों को प्रभावित करता है। दलाई लामा का मानना है कि यह साधना तिब्बती एकता और बौद्ध धर्म की मूल भावना के खिलाफ है। दूसरी ओर इसके समर्थक इसे अपनी परंपरा का हिस्सा मानते हैं। यह विवाद धार्मिक सामाजिक और राजनीतिक आयामों को छूता है और तिब्बती समुदाय के लिए एक गंभीर चुनौती है।
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