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Chhatrasal Bundela History: जिसकी तलवार के सामने झुक गया मुगल साम्राज्य
Chhatrasal Bundela History: बुंदेलखंड के वीर छत्रसाल ने अपनी युद्धकला, साहस और स्वराज्य की भावना से औरंगजेब को चुनौती दी और एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
Chhatrasal Bundela History
Chhatrasal Bundela History: भारत की इस वीरों की भूमि पर कई ऐसे योद्धा हुए हैं जिनके साहस ने साम्राज्यों की नींव हिला दी। उन्हीं वीरों में से एक नाम वीर छत्रसाल बुंदेला का भी है।1648 में बुंदेलखंड की मिट्टी पर जन्मा यह बालक तलवारों की खनक के बीच युद्ध कौशल में ऐसा पारंगत हुआ कि आगे चलकर उसने औरंगजेब की नींदें उड़ा दीं। छत्रसाल ने न केवल अपनी सूझबूझ और रणनीति से मुगल सत्ता को चुनौती दी, बल्कि जनकल्याण, धर्म और संस्कृति के आदर्शों पर आधारित एक स्वतंत्र राज्य की नींव रखी।
उनका जीवन बताता है कि सच्चा राजा वही होता है जो तलवार के साथ-साथ शास्त्र, नीति और न्याय से भी अपने राज्य की रक्षा करे। आज भी बुंदेलखंड की धरती पर उनके नाम का जयघोष गूंजता है- 'छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय, जित-जित घोड़ा मुख करे, तित-तित फत्ते होय।'
छत्रसाल का जन्म और प्रारंभिक जीवन
वीर छत्रसाल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत 1706 (17 जून 1648 ईस्वी) को बुंदेलखंड के एक पहाड़ी ग्राम में हुआ था। उनके पिता चम्पतराय बुंदेला एक वीर योद्धा और स्वतंत्रता के प्रतीक थे, जबकि माता लालकुंवरि साहस और धर्मनिष्ठा की प्रतिमूर्ति थीं।
छत्रसाल का बचपन रणभूमि की आवाज़ों के बीच बीता। तलवारों की टंकार, घोड़ों की टापें और युद्ध के नारे उनकी परवरिश का हिस्सा थे।
माता-पिता ने उन्हें अन्याय के खिलाफ़ खड़े होने और धर्म के प्रति अडिग रहने की प्रेरणा दी। यही कारण था कि बचपन से ही उनके भीतर स्वतंत्रता की ज्योति जल उठी।
बाल्यकाल से ही शुरू हुई युद्धकला की शिक्षा
छत्रसाल अपने मामा के घर पर रहकर अस्त्र-शस्त्रों का संचालन और घुड़सवारी की शिक्षा प्राप्त करते रहे। मात्र दस वर्ष की आयु में वे युद्धकला में निपुण हो गए थे। वे न केवल शारीरिक रूप से पराक्रमी थे, बल्कि रणनीति और नेतृत्व में भी तेज़ बुद्धि के धनी थे।
सोलह वर्ष की आयु में माता-पिता के निधन और जागीर छिन जाने के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
मां के गहने बेचकर उन्होंने एक छोटी-सी सेना खड़ी की और प्रतिज्ञा ली कि, 'अब अपने बल पर ही राज्य बनाऊंगा।'
यहीं से शुरू हुआ वह सफर, जिसने आगे चलकर उन्हें बुंदेलखंड का सर्वशक्तिशाली राजा बना दिया।
रणनीतिक नेतृत्व और औरंगजेब से टकराव
छत्रसाल की युद्धनीति और संगठन क्षमता असाधारण थी। मुगल साम्राज्य के चरमकाल में जब औरंगजेब की शक्ति का कोई मुकाबला नहीं था, तब बुंदेलखंड के इस नवयुवक ने उसकी नींव हिलाने का साहस किया।
औरंगजेब को यह भय सताने लगा कि यदि छत्रसाल की शक्ति इसी तरह बढ़ती रही, तो बुंदेलखंड ही नहीं, पूरा मध्य भारत मुगलों के नियंत्रण से बाहर चला जाएगा। छत्रसाल ने अपने रणनीतिक युद्ध संचालन और गुरिल्ला युद्ध शैली से मुग़लों को कई बार हराया।
उनकी सेना में अनुशासन, निष्ठा और आत्मबल का अद्भुत संगम था, जिसके आगे औरंगजेब की बड़ी से बड़ी टुकड़ी भी परास्त हो गई।
राज्य विस्तार और प्रजा के प्रति समर्पण
छत्रसाल ने धीरे-धीरे बुंदेलखंड के छोटे-छोटे रियासतों को अपने अधीन कर एक सशक्त राज्य की नींव रखी। उनकी राजधानी महोबा थी और उन्होंने छतरपुर नगर बसाया, जो आज भी उनके नाम की याद दिलाता है। शासनकाल में उन्होंने प्रजा की भलाई को सर्वोपरि रखा। जिसमें किसानों को संरक्षण, व्यापारियों को सुरक्षा और जनता को न्याय देने में वे हमेशा आगे रहे।
वे मानते थे कि जहां शस्त्र से राष्ट्र की रक्षा होती है, वहीं शास्त्र सुरक्षित रहते हैं।
छत्रसाल का शासन केवल शक्ति पर नहीं, बल्कि नैतिकता और धर्म पर टिका था।
शिवाजी महाराज से मिली थी प्रेरणा
इतिहासकारों और लोककथाओं में उल्लेख मिलता है कि छत्रसाल की मुलाकात एक बार छत्रपति शिवाजी महाराज से हुई थी।
दक्षिण में मुग़लों के लिए शिवाजी का नाम भय का प्रतीक था। उन्होंने छत्रसाल से कहा कि, 'छत्रसाल! तुम बुंदेलखंड जाओ और वहां की देखभाल करो।'
शिवाजी की नीति और स्वराज्य के सिद्धांत से प्रेरित होकर छत्रसाल ने बुंदेलखंड में स्वशासन और आत्मसम्मान की भावना को पुनर्जीवित किया।
इस तरह वे मध्य भारत में स्वराज्य की ज्वाला जलाने वाले पहले बड़े योद्धाओं में गिने गए। छत्रसाल केवल योद्धा नहीं थे, वे गहराई से धार्मिक और सांस्कृतिक व्यक्तित्व भी थे।
वे प्रतिदिन पूजा-पाठ करते और अपने दरबार में विद्वानों, कवियों और संतों को सम्मान देते थे।
कवि भूषण कविराज, जो पहले शिवाजी के दरबार में थे। उन्होंने छत्रसाल की वीरता और नीति की प्रशंसा में अनेक कविताएं लिखीं।
‘छत्रसाल-दशक’ में कवि ने इस वीर बुंदेले के शौर्य, त्याग और जनकल्याण की भावना को अमर कर दिया।
शांतिपूर्ण समय में स्वयं छत्रसाल भी कविता-लेखन किया करते थे, जिससे स्पष्ट होता है कि उनके भीतर एक संवेदनशील कवि का हृदय भी बसता था।
बुंदेलखंड में आज प्रेरणा बन चुका है उनका नाम, नीतियां और साहस
14 दिसंबर 1731 ईस्वी को 83 वर्ष की आयु में छत्रसाल का देहांत हुआ। लेकिन उनके जाने के बाद भी उनका नाम, उनकी नीतियां और उनका साहस बुंदेलखंड की आत्मा में रच-बस गया।
आज भी महोबा, छतरपुर और आसपास के क्षेत्रों में लोकगीतों और जनश्रुतियों में छत्रसाल की वीरता का वर्णन होता है। उनकी कहावतें आज भी बच्चों की ज़ुबान पर हैं, उनकी स्मृति लोगों में उत्साह और साहस भरने का काम करती है।
वे न केवल एक राजा थे, बल्कि एक आदर्श लोकनायक भी थे। जिसने धर्म, न्याय और स्वराज्य के सिद्धांतों को एक सूत्र में पिरोने का काम किया है।
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