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नास्तिकता का अस्तित्व संघर्ष: धर्म की सत्ता और चार्वाक की चुनौती
Power of Religion and Challenge of Charvaka:
Power of Religion and Challenge of Charvaka (Image Credit-Social Media)
Power of Religion and Challenge of Charvaka: दुनिया आज भी नास्तिकता को एक जटिल व अक्सर विवादास्पद नज़र से देखती है। दृष्टिकोण भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भों पर निर्भर करता है: पश्चिमी देशों में बढ़ती स्वीकृति: यूरोप, उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे क्षेत्रों में नास्तिकता और अज्ञेयवाद तेज़ी से बढ़े हैं। यहाँ अक्सर इसे बौद्धिक स्वतंत्रता, वैज्ञानिक चिंतन और व्यक्तिगत पसंद के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। संगठित धर्मों में गिरावट और सूचना की आसान पहुँच ने इसे बढ़ावा दिया है।
धार्मिक बहुल समाजों में चुनौती: मुस्लिम बहुल देशों, अमेरिका के कुछ हिस्सों और भारत जैसे स्थानों पर नास्तिकता को अक्सर संदेह, अस्वीकृति या यहाँ तक कि उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। इसे नैतिकता के लिए खतरा, सामाजिक एकता को कमज़ोर करने वाला या पारिवारिक/सांस्कृतिक मूल्यों के विरुद्ध माना जा सकता है। "नास्तिक" शब्द स्वयं कुछ संदर्भों में गाली बन जाता है।
वैश्विक सर्वेक्षण: प्यू रिसर्च जैसे संस्थानों के सर्वे बताते हैं कि नास्तिकों/अज्ञेयवादियों की संख्या बढ़ रही है, विशेषकर युवा पीढ़ी में। फिर भी, विश्व की बहुसंख्यक आबादी किसी न किसी धर्म में विश्वास रखती है।
धर्म की सतत प्रभावशीलता: क्यों बचा हुआ है?
धर्म के सहस्राब्दियों तक जीवित रहने और आज भी प्रभावी बने रहने के पीछे गहरे मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारण हैं:
1. मौलिक प्रश्नों के उत्तर: धर्म मृत्यु, दुख, अस्तित्व के अर्थ और ब्रह्मांड की उत्पत्ति जैसे गूढ़ प्रश्नों के स्पष्ट (हालाँकि अलौकिक) उत्तर देता है। यह अस्तित्वगत अनिश्चितता से उपजी चिंता को कम करने का एक सशक्त साधन है।
2. आशा और सांत्वना: कठिन समय में (बीमारी, हानि, असफलता) धार्मिक विश्वास आशा, सांत्वना और आंतरिक शक्ति प्रदान करता है। एक सर्वशक्तिमान, करुणामय सत्ता की कल्पना में भरोसा डर को दूर करता है।
3. समुदाय और पहचान: धर्म सामाजिक बंधन का शक्तिशाली स्रोत है। यह साझा विश्वासों, अनुष्ठानों और उत्सवों के माध्यम से एक मज़बूत समुदाय की भावना पैदा करता है, व्यक्ति को एक बड़े सामूहिक पहचान से जोड़ता है।
4. नैतिक ढाँचा: अधिकांश धर्म अच्छे-बुरे, सही-गलत का एक व्यापक नैतिक ढाँचा प्रदान करते हैं। यह सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने, सहयोग को बढ़ावा देने और व्यवहार को नियंत्रित करने में मदद करता है (हालाँकि नैतिकता के धर्मनिरपेक्ष स्रोत भी मौजूद हैं)।
5. सांस्कृतिक अंतर्निहितता: धर्म अक्सर कला, संगीत, साहित्य, त्योहारों, परंपराओं और यहाँ तक कि राजनीति में गहराई से समाया हुआ है। यह सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग बन जाता है।
धार्मिकता: जीवन की धुरी
किसी धर्म में गहरी आस्था व्यक्ति के जीवन को कई स्तरों पर चला सकती है:
दैनिक आचरण: प्रार्थना, उपवास, धार्मिक पाठ, नैतिक निर्देश (सत्य बोलना, दान देना, अहिंसा) दैनिक जीवन और निर्णयों को प्रभावित करते हैं।
जीवन के लक्ष्य: जीवन का अर्थ अक्सर धार्मिक लक्ष्यों (मोक्ष, स्वर्ग, ईश्वर की इच्छा पूरी करना) के इर्द-गिर्द घूमता है। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ इनसे जुड़ी हो सकती हैं।
संकट प्रबंधन: संकट के समय धार्मिक विश्वास और समुदाय सहारा बनते हैं, तनाव से निपटने में मदद करते हैं।
सामाजिक संपर्क: धार्मिक स्थल, उत्सव और समूह सामाजिक जीवन का केंद्र होते हैं, रिश्तों और समर्थन नेटवर्क को आकार देते हैं।
चार्वाक: भारतीय भौतिकवाद और नास्तिकता का बीज
प्राचीन भारत में चार्वाक (या लोकायत) दर्शन एक क्रांतिकारी नास्तिक और भौतिकवादी विचारधारा थी। उन्होंने नास्तिकता को क्यों चुना?
1. प्रत्यक्ष प्रमाणवाद: चार्वाक का मूल सिद्धांत था - "प्रत्यक्षं एव प्रमाणम्" (केवल प्रत्यक्ष अनुभव ही प्रमाण है)। वेदों, आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक जैसी अदृश्य, अलौकिक अवधारणाओं को, जिन्हें इंद्रियों द्वारा सीधे सत्यापित नहीं किया जा सकता, उन्हें उन्होंने खारिज कर दिया।
2. भौतिकवादी दृष्टिकोण: उनका मानना था कि संसार केवल चार तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) से बना है। चेतना भी इन्हीं के एक विशेष संयोजन (शरीर) से उत्पन्न होती है। शरीर के नष्ट होने पर चेतना भी समाप्त हो जाती है। इसलिए आत्मा या पुनर्जन्म जैसी कोई चीज नहीं है।
3. कर्मकांडों की निरर्थकता की आलोचना: उन्होंने जटिल, महंगे और अक्सर हिंसक वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों को पाखंड और शोषण का साधन माना, जिनका कोई वास्तविक लाभ नहीं है।
4. सुखवादी जीवन दर्शन: चार्वाक मुख्यतः जीवन को सुखपूर्वक जीने पर बल देते थे ("यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्" - जब तक जियो, सुख से जियो)। उनका तर्क था कि अदृश्य स्वर्ग के लिए वर्तमान सुख को त्यागना बुद्धिमानी नहीं है। यहाँ "सुख" का अर्थ संयमित भोगवाद था, न कि अंधा विलासिता (जैसा कि अक्सर गलत समझा जाता है)।
5. धर्म का शास्त्र के रूप में विरोध: उन्होंने वेदों को "मूर्खों, धूर्तों और राक्षसों द्वारा रचित" बताया। धर्म को मनुष्य द्वारा नियंत्रण के लिए गढ़ी गई व्यवस्था माना।
सामंजस्य की खोज
चार्वाक का दर्शन प्राचीन भारत में बहस और विवाद का एक महत्वपूर्ण स्रोत था, जो दिखाता है कि नास्तिक चिंतन की परंपरा भी उतनी ही पुरानी है। आज भी, दुनिया में नास्तिकता और धर्म का सह-अस्तित्व जारी है। नास्तिकता बढ़ रही है, फिर भी धर्म मानवीय भावनाओं, सामाजिक संरचना और अस्तित्वगत प्रश्नों के उत्तर देने की अपनी क्षमता के कारण एक शक्तिशाली शक्ति बना हुआ है।
अंततः, आस्तिकता या नास्तिकता का चुनाव व्यक्तिगत अनुभव, तर्क और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं से प्रभावित होता है। चार्वाक जैसे विचारक हमें याद दिलाते हैं कि बिना किसी अलौकिक शक्ति के भी, प्रत्यक्ष अनुभव, तर्क और मानवीय मूल्यों पर आधारित एक सार्थक, नैतिक जीवन जिया जा सकता है। यह संवाद जारी रहेगा, मानवता के उन मौलिक प्रश्नों की खोज जारी रहेगी जिनके उत्तर हम सदियों से ढूँढ़ रहे हैं।
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