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ताकि सनद रहे... विजय का रथ और ज्ञान का मार्ग
विजयदशमी पर श्रीराम की विजय कथा, धर्म, साहस और ज्ञान से अहंकार पराजित हुआ
Vijayadashami विजय रथ और ज्ञान का मार्ग (image from Social Media)
धरम धुरंधर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और लंकाधिपति महाप्रतापी रावण की सेनाएं युद्ध स्थल पर आमने-सामने हैं। लंका में कई दिनों से युद्ध चल रहा है। एक से बढ़कर एक रणबांकुरे युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं। लंका का अंतिम और सर्वश्रेष्ठ महायोद्धा सुसज्जित रथ पर आरूढ़ होकर दुष्टदलन श्रीराम को ललकार रहा है। कल्पना कीजिए, तब का क्या दृश्य रहा होगा।
श्रीराम की सेना अति उत्साह में है। सैनिकों को लग रहा है कि प्रभु आज इस अधम का वध कर देंगे दोनों दिशाओं से सेनाएं अपने-अपने सेनापति की जय-जयकार करते हुए युद्धरत हैं। यह देख श्रीराम के मित्र विभीषण वहां आते हैं।
रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को पैदल देखकर विभीषण का मन आशंकाओं से घिर जाता है। विभीषण ने प्रभु के चरण पकड़ लिए हैं। उस अद्भुत दृश्य की कल्पना करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं --
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा॥
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहिं बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥
(हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान् वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा? कृपानिधान श्री रामजी ने कहा- हे सखे सुनो! जिससे विजय होती है, वह रथ ही दूसरा है।)
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥
(शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं।)
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
(ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है।)
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥
(निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है।)
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥
(हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है।)
महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़, सुनहु सखा मतिधीर॥
इसलिए हे धीरबुद्धि सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है, रावण का भला अस्तित्व ही क्या है।)
सुनि प्रभु बचन बिभीषन, हरषि गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु, राम कृपा सुख पुंज॥
(प्रभु के वचन सुनकर विभीषण ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड़ लिए और बोले, हे कृपा-सुख पुंज श्री राम! आपने इसी बहाने सही मुझे यह महान उपदेश दिया, आपकी जय हो।
यह सृष्टि की विलक्षण घटना है। देवलोक भी इस महान दृश्य को देख रहा है और रावण का अंत देखने को आतुर है। तभी देवलोक से दिव्य रथ उतरता है, जिस पर श्रीराम आरूढ़ होते हैं--
"तेज पुंज रथ दिव्य अनूपा। हरसि चढ़े कोसलपुर भूपा।।"
और फिर दोनों के बीच युद्ध छिड़ गया है। महाबली रावण तो अपना पराक्रम दिखा रहा है। श्रीराम के बाणों से वह मारे नहीं मर रहा है। उसकी बीस भुजाएं और दस सिर हैं। मायावी शक्तियों का भी ज्ञाता हैं, इसलिए वह सारे छल प्रपंच कर रहा है। श्रीराम को ज्ञात है कि रावण की नाभि में अमृत है। जब तक वह नहीं सूखेगा, तब तक उसका अंत नहीं होगा। यही सोचकर -
"खैंचि सरासन स्रवन लगि, छांड़े सर इकतीस।
रघुनायक सायक चले, मानहु काल फनीस।।"
और इस प्रकार कालसर्प के समान श्रीराम के बाणों ने उसके सभी सिर और भुजाएं धड़ से अलग कर दीं।
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा।।
जब रावण का धड़ दो पैरों पर बचा। तब भी वह दौड़ रहा है और उसके वेग से धरती धंसी जा रही है। इस पर श्रीराम ने बाण चलाकर उसका धड़ भी दो खंडों में कर दिया। पूरे जीवन श्रीराम को तपसी, वनवासी कहने वाला रावण तब अंत में राम का नाम लेता है। कहता है कहां हैं राम, मैं उनको ललकार कर मारूं --
"धरनि धसइ धरि धाव प्रचंडा।
तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा।।"
"गरजेउ मरत घोर रव भारी।
कहां रामु रन हतौं पचारी।।"
यही रावण के मोक्षकामी होने का प्रमाण है। कि वह युद्ध तो भौतिक शरीरधारी राम से कर रहा था लेकिन प्रभु श्रीराम जो विष्णु के अवतार हैं, के हाथों मरकर मोक्ष प्राप्त करने की उसकी कामना भी थी।
बहरहाल, इस समूची कथा का सारांश यही है कि असत्य कितना भी सजा हुआ हो, सत्य की धार उसे काट ही डालती है। अंधकार कितना भी गहरा क्यों न हो, दीपक की छोटी सी लौ उसे समाप्त कर देती है। इसी प्रकार अहंकार को स्वाभिमान से, अज्ञान को ज्ञान से, कुमार्ग को सुमार्ग से, द्वेष को प्रेम की भावना से समाप्त किया जा सकता है। रावण पर श्रीराम की विजय की यह घटना दशमी के दिन की है, इसीलिए इस दिन को इसे विजय दशमी के रूप में मनाया जाता है।
आप सबको विजय पर्व की बधाई। शुभकामनाएं।।
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