RSS: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: 100 वर्षों की सांस्कृतिक यात्रा

RSS: राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, सनातन हिंदू विचारधारा का वैश्विक अनुष्ठान

Acharya Sanjay Tiwari
Published on: 15 Aug 2025 7:39 PM IST (Updated on: 15 Aug 2025 7:45 PM IST)
Rashtriya Swayamsevak Sangh – 100 Years of Cultural Journey
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RSS: सृष्टि नैसर्गिक है। सनातन शाश्वत है। भारत वर्ष सनातन शाश्वत नैसर्गिक सृष्टि का संरक्षक है। भूदेवी, अर्थात पृथ्वी के सुख, शांति और समृद्धि पूर्वक संरक्षण का दायित्व भारत को ही निभाना है। यह ईश भूमि है। इसलिए इसके पास नैसर्गिक ब्रह्म शक्तियों का उद्भव होता है। वर्तमान भारत में इसके लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के रूप में एक महान सांस्कृतिक इकाई निरंतर तपस्या कर रही है। इसकी तपस्या के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस तपस्या की शताब्दी की घड़ी में इसकी इस यात्रा पर अब विश्व भी मंथन कर रहा है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का सनातन हिन्दू राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक, लोकसैनिक, स्वयंसेवक संगठन हैं, जो व्यापक रूप से भारत के वर्तमान सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का पैतृक संगठन माना जाता हैं। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपेक्षा संघ या आर.एस.एस. के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। संघ विश्व का सबसे बड़ा सांस्कृतिक स्वयंसेवी संस्थान है। अपने स्थापना काल में इसका प्रारंभिक प्रोत्साहन हिंदू अनुशासन के माध्यम से चरित्र प्रशिक्षण प्रदान करना था और हिन्दू संस्कृति युक्त राष्ट्र बनाने के लिए सनातन हिंदू समुदाय को एकजुट करना था। संगठन भारतीय संस्कृति और नागरिक समाज के मूल्यों को बनाए रखने के आदर्शों को बढ़ावा देता है और बहुसंख्यक हिंदू समुदाय की महान नैसर्गिक संस्कृति को मजबूत करने के लिए हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार करता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यूरोपीय अधिकार-विंग समूहों से भी इस संगठन को प्रारंभिक प्रेरणा मिली। धीरे-धीरे, आरएसएस एक प्रमुख हिंदू राष्ट्रवादी छतरी संगठन में उभरा, कई संबद्ध संगठनों को जन्म दिया जिसने कई विचारधाराओं, दानों और क्लबों को अपनी वैचारिक मान्यताओं को फैलाने के लिए स्थापित किया। इन धारणाओं को पुष्पित पल्लवित करना कठिन कार्य था। संघ ने इसे बहुत ही सामंजस्य और समरस भाव में आगे बढ़ाया और आज भी दुनिया को इसका लाभ निरंतर मिल रहा है।

संघ की स्थापना से अब तक दुनिया ने बहुत उतार चढ़ाव देखे हैं। जब भारत अपनी स्वाधीनता की लड़ाई में त्रस्त था उसी समय संघ का अस्तित्व में आना केवल एक घटना भर नहीं है। निश्चित रूप से विधाता ने ही यह सुनिश्चित कर इसकी नींव की प्रेरणा दी होगी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर सन् 1925 में विजयादशमी के दिन डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा की गयी थी। सबसे पहले 50 वर्ष बाद 1975 में जब तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश में आपातकाल की घोषणा की गई तो तत्कालीन जनसंघ पर भी संघ के साथ प्रतिबंध लगा दिया गया। आपातकाल हटने के बाद जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हुआ और केन्द्र में मोरारजी देसाई के प्रधानमन्त्रित्व में मिलीजुली सरकार बनी। 1975 के बाद से धीरे-धीरे इस संगठन का राजनैतिक महत्व भी बढ़ता गया और इसकी परिणति भाजपा जैसे राजनैतिक दल के रूप में हुई जिसे आमतौर पर संघ की राजनैतिक शाखा के रूप में देखा जाता है। संघ की स्थापना के 75 वर्ष बाद सन् 2000 में प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एन०डी०ए० की मिलीजुली सरकार भारत की केन्द्रीय सत्ता पर आसीन हुई थी।

संघ की राष्ट्रनिर्माण और चरित्र निर्माण की गतिविधियों से अब विश्व भी परिचित है। संघ अपने संगठन और सैकड़ों आनुषांगिक संगठनों के माध्यम से व्यक्ति और चरित्र निर्माण के लिए कार्य करता है। इसमें कोई क्रांति या आंदोलन नहीं होता बल्कि नैसर्गिक संक्रांति घटती है। विचार सुदृढ़ होते हैं। रचनात्मक शक्ति उभरती है । राष्ट्रोन्मुखी विकास की अवधारणा धरातल पर उतारी जाती है। चरित्र, कुटुंब, समाज, राष्ट्र और विश्व को सुख, शांति, संतुष्टि के लिए समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करने के गुर सिखाए जाते हैं। अनुभव जोड़े जाते हैं।

यह कार्य अद्भुत है। शताब्दी पूरी हो गई। कार्य की गति और तीव्र होती गई। व्यक्ति, चरित्र और अनुशासन की त्रिगुण शक्तिंके साथ संघ के कार्य आगे बढ़ रहे हैं। यह ठीक वैसे ही चल रहा है जैसे प्रकृति और यह ब्रह्मांड अपनी त्रिगुणी शक्ति को अंगीकार कर अपनी रचना कर रहे हैं। बालक, विद्यार्थी, अधिवक्ता, शिक्षक, स्त्री, पुरुष, अध्येता, वैज्ञानिक, शोधार्थी, संस्कृति कर्मी, नेता, अभिनेता, कलाकार, लेखक, विद्वान, रंगकर्मी, संत, महात्मा, योगी, संन्यासी, वक्ता, श्रमिक, विधिवेत्ता और समाज के सभी वर्गों के लोग संघ की इस यात्रा में सहभागी बन कर नए भारत और नए विश्व के निर्माण में समान रूप से योगदान दे रहे हैं।


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी अनेक बार संघ और इसके उद्देश्य से वर्तमान पीढ़ी को अवगत कराते रहते हैं। उनकी भाषा में यदि उसी दृष्टि से संघ को समझा जाय तो समीचीन होगा। संघ केवल एक ही काम करता है, शाखा चलाना, मनुष्य निर्माण करना, लेकिन स्वयंसेवक कुछ नहीं छोड़ता, कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें स्वयंसेवक कार्य न कर रहा हो। संघ का कार्य व विचार सत्य पर आधारित है, किसी के प्रति विरोध या द्वेष पर नहीं। संघ सुनने, पढ़ने, चर्चा करने से समझ आने वाला नहीं है। संघ को समझना आसान है, पर साथ ही असंभव भी है। श्रद्धा भक्ति भाव से, शुद्ध-पवित्र मन से जिज्ञासा लेकर आएंगे तो संघ को समझना आसान है। प्रतिदिन की शाखा में स्वयंसेवक यही नित्य साधना करता है। संघ के बारे में पहले से पूर्वाग्रह बनाकर, उद्देश्य लेकर आएंगे तो संघ समझ में आने वाला नहीं है। संघ में कोई बंधन नहीं है, आइये, देखिये, समझिये, जंचे तो ठीक, नहीं जंचे तो ठीक। संघ को सुनकर, पढ़कर समझना टेढ़ी खीर है। संघ का उद्देश्य या लक्ष्य शुरूआत में ही निश्चित हो गया था, लेकिन कार्यपद्धति स्थापना के 14 साल बाद 1939 में निश्चित हुई।

संघ कभी किसी विरोध में नहीं पड़ता, विवाद को टालता है, लेकिन सभी से दोस्ती करता है, सभी को आत्मीयता देता है। संघ ने कोई नया विचार नहीं दिया है, इस सनातन संस्कृति से ही प्राप्त सभी को जोड़ने वाले विचार को अपनाया है। वर्ष 1940 तक कम्युनिस्टों सहित सभी लोग इसी समान विचार के आधार पर कार्य कर रहे थे, लेकिन उसके बाद अपने स्वार्थों के कारण अलग-अलग हो गए, बिखर गए। सनातन हिन्दू या हिन्दुत्व कोई धर्म-संप्रदाय अथवा पंथ नहीं है, जो कोई भी देश की विविधता में विश्वास करता है, वह हिन्दू है। फिर चाहे वह अपने आप को भारतीय कहे या हिन्दू। इस देश में रहने वाले किसी भी व्यक्ति के पूर्वज बाहर से नहीं आए, यहीं के थे और हिन्दू थे। विभिन्न भाषा-भाषी, खान-पान, परंपराओं आदि की विविधताओं के बीच हमें जोड़ने वाली सनातन काल से चलती आई हमारी संस्कृति है, जो हमें विविधता में एकता सिखाती है, हमें जोड़ती है। संपूर्ण विश्व को सुखी बनाना, भारत माता को विश्व गुरू के पद पर आसीन करना है, और इसमें सबको मिलकर यह कार्य करना है और इसका दूसरा कोई रास्ता नहीं है। संघ की ये पद्धति नहीं रही है कि भारतवासियों तुम आश्वत हो जाओ कि तुम्हें कुछ नहीं करना है, हम सारे कार्य कर देंगें। बल्कि, संघ की पद्धति रही है और है कि हम सब मिलकर कार्य करेंगे। सबको साथ लेकर चलना ही संघ का आचरण और कर्तव्य है। संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने डॉक्टरी करने के बाद प्रैक्टिस नहीं की। उस दौरान जितने कार्य चल रहे थे, उन्होंने हर क्षेत्र में निस्वार्थ भाव व शुद्ध मन से कार्य किया। समस्त क्षेत्र में कार्य करने के बाद अनुभव के आधार पर देश-समाज का भाग्य बदलने वाला कार्य करने का निर्णय लिया। डॉ. हेडगेवार जी ने लोक को यह बताया कि जीवन स्वार्थ के लिए नहीं परोपकार के लिए है। संघ की स्थापना के पश्चात प्रथम पीढ़ी के कार्यकर्ताओं ने उपेक्षा व विरोध के बावजूद कठिन परिश्रम कर देश व्यापी स्वरूप खड़ा किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्वयंसेवकों का त्याग व बलिदान समाज के सामने आया। इसी प्रकार आपातकाल के दौरान संघ की भूमिका के पश्चात संघ को देखने की समाज की दृष्टि बदली और वर्तमान में संघ को लेकर अपेक्षाएं बढ़ी हैं। स्वयंसेवकों के तप व परिश्रम का परिणाम है कि आज का भारत विश्व को संकटों से मुक्ति के लिए कार्य करते हुए भारत को विश्वगुरु के पथ पर लेकर चल रहा है।


सरसंघचालक

डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार उपाख्य डॉक्टरजी (1925 - 1940)

माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य गुरूजी (1940 - 1973)

मधुकर दत्तात्रय देवरस उपाख्य बालासाहेब देवरस (1973 - 1993)

प्रोफ़ेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया (1993 - 2000)

कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन उपाख्य सुदर्शनजी (2000 - 2009)

डॉ॰ मोहनराव मधुकरराव भागवत (2009 - अभी तक )

(लेखक भारत संस्कृति न्यास के अध्यक्ष और संस्कृति पर्व के संपादक हैं।)

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