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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (1927-1983): समाज का कवि, नाटककार, साहित्यकार
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (1927-1983) हिंदी साहित्य के प्रख्यात कवि, नाटककार और साहित्यकार थे। उनकी कविताएँ समाज की सच्चाइयों, आम आदमी के संघर्ष और राजनीतिक व्यंग्य का जीवंत चित्रण करती हैं।
Sarveshwar Dayal Saxena (Image Credit-Social Media)
Sarveshwar Dayal Saxena: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म 15 सितंबर 1927 को हुआ था। वे हिंदी साहित्य के एक ऐसे स्तंभ थे, जिन्होंने अपनी कविताओं और साहित्य के माध्यम से समाज की विसंगतियों, मानवीय भावनाओं और आम आदमी के संघर्षों को वाणी दी। उनकी रचनाओं में सरलता, सहजता और सामाजिक चेतना का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
कविताओं की विशेषताएँ
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक ऐसे कवि थे जिनकी कविताएँ आम आदमी के जीवन से जुड़ी हुई थीं। उनकी कविताओं में न केवल व्यक्तिगत प्रेम और भावनाओं की अभिव्यक्ति थी, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक चेतना भी गहराई से समाहित थी।
सामाजिक यथार्थवाद: उनकी कविताओं में समाज की कड़वी सच्चाइयों का चित्रण मिलता है। 'गरीबी', 'शोषण' और 'राजनीतिक पाखंड' जैसे विषयों पर उन्होंने बेबाकी से लिखा। 'खूंटियों पर टंगे लोग' और 'जंगल का दर्द' जैसी उनकी रचनाएँ समाज के दबे-कुचले लोगों की पीड़ा को व्यक्त करती हैं।
सरल और बोलचाल की भाषा: सर्वेश्वर की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सरल भाषा थी। उन्होंने अपनी कविताओं में साहित्यिक शब्दों के बजाय आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया, जिससे उनकी कविताएँ आम लोगों तक आसानी से पहुँच सकीं।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक प्रमुख और मार्मिक कविता 'जंगल का दर्द' यहाँ प्रस्तुत है। यह कविता प्रकृति और मानवीय हस्तक्षेप के बीच के संघर्ष को दर्शाती है, जहाँ जंगल खुद अपनी पीड़ा बयान कर रहा है।
जंगल का दर्द
यह जंगल जिसे तुम रोज काट रहे हो
यह तुम नहीं जानते
कि यह जंगल तुम्हारा है।
जंगल ने सदियों से तुम्हें
साँस लेने की हवा दी
तुम्हारे घर को छाँव दी
तुम्हारे बच्चों को गोद दी।
तुमने इसे
जहाँ चाहा, काट दिया
जिस पेड़ को चाहा, उखाड़ दिया
जो डाली चाही, तोड़ दी।
जंगल रोता है,
जब कोई कुल्हाड़ी
उसकी देह में उतरती है
उसका हर पत्ता कांपता है,
जब कोई आग
उसकी पत्तियों को जलाती है।
तुम नहीं जानते
कि यह जंगल तुम्हारा है
और तुम्हारी बर्बादी
इसकी बर्बादी में छिपी है।
जब यह जंगल खत्म हो जाएगा
तो तुम कहाँ जाओगे?
तुम्हें कहाँ मिलेगी छाँव?
तुम्हें कहाँ मिलेगी हवा?
यह जंगल जिसे तुम रोज काट रहे हो
यह तुम्हारा ही है
और तुम्हारा ही दर्द
तुम्हारी बर्बादी में छिपा है।
यह कविता सरल भाषा में एक गहरा संदेश देती है कि प्रकृति का विनाश अंततः मानव सभ्यता के विनाश का कारण बनेगा।
व्यंग्य और विद्रोह: उनकी कविताओं में तीखा व्यंग्य और विद्रोह का स्वर भी सुनाई देता है। उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था और नेताओं के दोगले चरित्र पर व्यंग्यात्मक प्रहार किए। 'सूली पर टंगे लोग' जैसी कविताएँ इसी का प्रमाण हैं।
प्रेम और प्रकृति: सामाजिक विषयों के अलावा, उन्होंने प्रेम और प्रकृति पर भी सुंदर कविताएँ लिखीं। उनकी कविताओं में प्रकृति का चित्रण बहुत ही सजीव और मनमोहक है।
प्रमुख काव्य संग्रह
बांस का पुल: यह उनका पहला कविता संग्रह था, जिसमें प्रेम और प्रकृति से संबंधित कविताएँ थीं।
एक सूनी नाव: इस संग्रह में जीवन की उदासी और निराशा का चित्रण मिलता है।
गर्म हवाएँ: इस संग्रह में सामाजिक और राजनीतिक चेतना की कविताएँ हैं।
खूंटियों पर टंगे लोग: यह उनका सबसे महत्वपूर्ण कविता संग्रह माना जाता है, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था।
साहित्य में योगदान
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना केवल एक कवि ही नहीं थे, बल्कि एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। उन्होंने कविता के अलावा नाटक, कहानी, उपन्यास और बाल साहित्य में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
नाटक: उन्होंने 'बकरी' जैसा प्रसिद्ध व्यंग्यात्मक नाटक लिखा, जो राजनीति और भ्रष्टाचार पर एक तीखा प्रहार है। यह नाटक आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नाटक 'बकरी' हिंदी साहित्य का एक बहुत ही महत्वपूर्ण और चर्चित व्यंग्यात्मक नाटक है। यह नाटक पहली बार 1974 में प्रकाशित हुआ था और आज भी इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है।
नाटक की कहानी
'बकरी' नाटक की कहानी एक गाँव के इर्द-गिर्द घूमती है, जहाँ एक साधारण गरीब आदमी नटवर की बकरी खो जाती है। गाँव के कुछ चालाक नेता और स्वार्थी लोग इस बकरी को महात्मा गांधी की बकरी घोषित कर देते हैं, जो कि आजादी और शांति का प्रतीक है।
नेता इस बकरी के नाम पर एक आश्रम खोलते हैं और चंदा इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं। इस बकरी के नाम पर वे बड़े-बड़े जुलूस निकालते हैं, भाषण देते हैं और लोगों को बेवकूफ बनाते हैं। धीरे-धीरे, यह बकरी एक राजनीतिक औजार बन जाती है, जिसके माध्यम से ये नेता अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करते हैं।
अंत में, जब बकरी का असली मालिक नटवर अपनी बकरी को पहचानता है और उसे वापस लेने की कोशिश करता है, तो उसे ही मार दिया जाता है। इस तरह, नाटक दिखाता है कि कैसे सत्ता के लोभी लोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए निर्दोष लोगों और प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं।
नाटक की प्रमुख विशेषताएँ
तीखा राजनीतिक व्यंग्य: 'बकरी' नाटक तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था पर एक सीधा और तीखा व्यंग्य है। यह नाटक दिखाता है कि कैसे नेता धर्म, राष्ट्रवाद और महापुरुषों के नाम का गलत इस्तेमाल कर जनता को मूर्ख बनाते हैं।
प्रतीकात्मकता: नाटक में बकरी केवल एक जानवर नहीं है, बल्कि वह निर्दोषता, आम आदमी और गांधीवादी मूल्यों का प्रतीक है। नेताओं द्वारा बकरी का अपहरण और उसकी हत्या, गांधीवादी मूल्यों के हनन और लोकतंत्र के पतन का प्रतीक है।
आम आदमी की लाचारी: नाटक में नटवर का चरित्र आम आदमी की लाचारी और उसकी आवाज को दबाने का प्रतीक है। यह दिखाता है कि कैसे आम आदमी अपनी पहचान और अधिकार के लिए भी संघर्ष करता है, लेकिन सत्ता के सामने उसकी हार हो जाती है।
सरल और बोलचाल की भाषा: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने इस नाटक में सरल और बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है, जिससे यह आम दर्शकों के लिए भी सुलभ हो जाता है। नाटक के संवाद व्यंग्यात्मक होने के साथ-साथ बहुत ही प्रभावशाली हैं।
आज भी प्रासंगिक: 'बकरी' नाटक आज भी प्रासंगिक है क्योंकि यह राजनीतिक पाखंड, भ्रष्टाचार और नेताओं द्वारा प्रतीकों के दुरुपयोग की कहानी कहता है, जो आज भी हमारे समाज में दिखाई देता है।
'बकरी' एक ऐसा नाटक है जो दर्शकों को हँसाता है और साथ ही सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम भी इसी तरह के राजनीतिक बहकावे में तो नहीं आ रहे हैं।
बाल साहित्य: सर्वेश्वर ने बच्चों के लिए भी बहुत कुछ लिखा। 'बतुता का जूता' और 'लाख की नाक' जैसी उनकी रचनाएँ बच्चों में बहुत लोकप्रिय हैं।
कहानी और उपन्यास: उन्होंने 'पागल कुत्तों का मसीहा' जैसा व्यंग्यात्मक उपन्यास लिखा, जिसमें उन्होंने समाज की विकृतियों को उजागर किया।
कुल मिलाकर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का साहित्य समाज के यथार्थ, मानवीय भावनाओं और सामाजिक संघर्षों का एक सच्चा दर्पण है। उनकी रचनाएँ आज भी हमें सोचने और सवाल करने के लिए प्रेरित करती हैं।
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