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अमेरिका-ईरान संबंध: मित्रता और दुश्मनी का एक जटिल नृत्य
United States and Iran Relations: अमेरिका और ईरान हमेशा से करीबी सहयोगी रहे हैं लेकिन शाह का तानाशाही शासन और अमेरिका का बढ़ता हस्तक्षेप धीरे-धीरे इस संबंधों में अंतर की वजह बनता जा रहा है।
United States and Iran Relations (Image Credit-Social Media)
नई दिल्ली। 20वीं सदी के अधिकांश समय तक अमेरिका और ईरान करीबी सहयोगी रहे। शीत युद्ध के दौरान, अमेरिका ने तेल संपन्न मध्य पूर्व में सोवियत प्रभाव का मुकाबला करने के लिए ईरान को एक प्रमुख साझेदार के रूप में देखा। 1950 के दशक में अमेरिकी समर्थन से ईरान के शाह ने अपना शासन मजबूत किया और सोवियत विस्तार को सीमित करने में सहायता की। लेकिन शाह का तानाशाही शासन और अमेरिका का बढ़ता हस्तक्षेप धीरे-धीरे अत्यंत अलोकप्रिय होता चला गया।
1953 में सीआईए ने ईरान के लोकप्रिय प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेग को सत्ता से हटाने की साजिश रची। मोसादेग ने ब्रिटिश तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया था और शीत युद्ध में तटस्थता बनाए रखी थी। इस घटनाक्रम ने अमेरिका-विरोधी भावनाओं को भड़काया, जो अंततः 1979 की इस्लामी क्रांति के रूप में फूट पड़ी और शाह के शासन का अंत हो गया। क्रांतिकारियों ने सीआईए पर शाह की गुप्त पुलिस को प्रशिक्षण देने का आरोप लगाया, अमेरिका को “महान शैतान” करार दिया और दर्जनों अमेरिकी राजनयिकों को एक साल से अधिक समय तक बंधक बनाकर रखा। इसके साथ ही दशकों पुरानी रणनीतिक साझेदारी भी समाप्त हो गई।
इस्लामी क्रांति और उसके प्रभाव
इस्लामी क्रांति ने ईरान की विदेश नीति को पूरी तरह बदल दिया। नई सरकार ने अपनी विचारधारा को शिया मुस्लिम समुदायों में फैलाने का प्रयास किया, जो इस्राइल का विरोध करते थे और उसे पश्चिमी साम्राज्यवाद का प्रतीक मानते थे। 1980 के दशक की शुरुआत में ईरान की इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स ने लेबनान में हिज़्बुल्ला की स्थापना की, जिस पर अमेरिका ने बेरूत स्थित अमेरिकी दूतावास और मरीन बैरकों पर बम हमले का आरोप लगाया, जिनमें 300 से अधिक लोग मारे गए, जिनमें अधिकांश अमेरिकी थे। हिज़्बुल्ला ने इन हमलों की जिम्मेदारी से इनकार किया और कहा कि हमले किसी अन्य समूह ने किए।
इसी दौरान ईरान को भी कई कष्टों का सामना करना पड़ा। 1980-1988 के ईरान-इराक युद्ध के दौरान अमेरिका के कूटनीतिक समर्थन प्राप्त इराक ने ईरानी सेनाओं के खिलाफ रासायनिक हथियारों का उपयोग किया। 1988 में एक अमेरिकी युद्धपोत ने गलती से एक ईरानी यात्री विमान को मार गिराया, जिसमें 290 नागरिक मारे गए।
1990 के दशक में कुछ समय के लिए तनाव कम हुआ, जब ईरान के सुधारवादी राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी ने पश्चिम के साथ बेहतर संबंधों की कोशिश की और अमेरिका का ध्यान कुवैत पर इराक के आक्रमण के बाद इराक पर केंद्रित हो गया। लेकिन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में संबंध फिर बिगड़ गए, जब उन्होंने ईरान को इराक और उत्तर कोरिया के साथ “दुष्ट देशों के धुरी (Axis of Evil)” में शामिल कर दिया, जिससे ईरान में गहरा आक्रोश फैल गया।
प्रतिनिधि युद्ध और परमाणु महत्वाकांक्षाएं
2003 में इराक पर अमेरिकी आक्रमण के बाद अमेरिका और ईरान शिया बहुल इराक पर प्रभाव स्थापित करने की होड़ में लग गए। ईरान ने इराक में शिया मिलिशिया का समर्थन किया, जिन्होंने अमेरिकी सेनाओं को निशाना बनाया। इसके अलावा ईरान ने हिज़्बुल्ला, यमन के हूथी विद्रोहियों और हमास जैसे समूहों का भी समर्थन किया, जो अमेरिका अथवा उसके सहयोगी इस्राइल का विरोध करते हैं। दूसरी ओर, अमेरिका इस्राइल का सबसे मजबूत समर्थक बना रहा और सुन्नी नेतृत्व वाले सऊदी अरब जैसे देशों का भी करीबी मित्र बना, जो ईरान को क्षेत्रीय खतरे के रूप में देखते हैं।
2002 में ईरान के गुप्त यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम के उजागर होने से परमाणु हथियार विकसित करने की उसकी आशंका और बढ़ गई, जिससे पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध लगाए और दीर्घकालिक वार्ताएं शुरू हुईं। ईरान का दावा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है, लेकिन अमेरिका और उसके सहयोगियों को संदेह है कि इसके पीछे सैन्य महत्वाकांक्षा छिपी हुई है।
2015 में ईरान और छह विश्व शक्तियों, जिनमें अमेरिका भी शामिल था, के बीच संयुक्त व्यापक कार्य योजना (JCPOA) पर समझौता हुआ। इसके तहत ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम पर सीमाएं लगाने पर सहमति जताई और बदले में उस पर लगे प्रतिबंधों में छूट मिली। लेकिन 2018 में तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका को इस समझौते से अलग कर दिया, जिससे तनाव फिर बढ़ गया। 2025 तक ट्रंप के पुनः राष्ट्रपति बनने के बाद इस समझौते को पुनर्जीवित करने के प्रयास जारी हैं, लेकिन ट्रंप ने चेतावनी दी है कि यदि कोई समझौता नहीं हुआ तो सैन्य कार्रवाई की जा सकती है।
वर्तमान संकट
इस्राइल और ईरान के बीच जारी संघर्ष ने अमेरिका-ईरान संबंधों को और जटिल बना दिया है। 12 जून 2025 को इस्राइल ने ईरान के सैन्य और परमाणु ठिकानों पर 200 से अधिक युद्धक विमानों से बड़ा हवाई हमला किया। इस हमले में ईरान के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों, रिवोल्यूशनरी गार्ड के नेताओं और परमाणु वैज्ञानिकों की मौत हो गई, साथ ही ईरान ने 200 से अधिक नागरिकों की मौत की भी सूचना दी है।
हालांकि अमेरिका ने इस हमले में अपनी किसी भी भूमिका से इनकार किया है, लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप ने इन हमलों को “शानदार” बताया और ईरान से वार्ता करने का आग्रह किया। साथ ही चेतावनी दी कि अगर ईरान ने वार्ता से इनकार किया तो और हमले किए जा सकते हैं।
जवाब में ईरान ने इस्राइल पर ड्रोन और मिसाइल हमले किए। इस्राइल का दावा है कि ईरान ट्रंप को निशाना बना रहा है, लेकिन ट्रंप ने खुद को इस्राइल की कार्रवाई से अलग दिखाने की कोशिश की है, हालांकि उनकी प्रशंसा भी की है। यह संतुलन साधने का एक नाजुक प्रयास बन गया है।
ईरान ने अमेरिका को इस संघर्ष से दूर रहने की चेतावनी दी है, लेकिन आशंका बनी हुई है कि अमेरिका या अन्य शक्तियां इस बढ़ते युद्ध में खींची जा सकती हैं।
अमेरिका-ईरान संबंधों का यह इतिहास — जिसमें गहरी मित्रता से कटु दुश्मनी तक का सफर शामिल है — मध्य पूर्व की अस्थिर राजनीति को आकार देता रहा है। शीत युद्ध के सहयोगी से लेकर प्रतिनिधि युद्धों और परमाणु गतिरोध तक, इन दोनों देशों का संबंध यह दर्शाता है कि गठबंधन कितने नाजुक होते हैं और अविश्वास का प्रभाव कितनी दूरगामी हो सकता है।
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