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गहलोत की एंट्री से कैसे चमकी तेजस्वी की किस्मत? कांग्रेस ने क्यों टेक दिए घुटने, समझिए पूरा खेल
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री चेहरा घोषित कर कांग्रेस ने दी मुहर, अशोक गहलोत ने सियासी पेच सुलझाए, जानें कैसे महागठबंधन की नई सोशल इंजीनियरिंग ने चुनावी रणनीति को मजबूत किया।
Tejaswi Yadav CM Face: बिहार विधानसभा चुनाव की बिसात पर आखिरकार वह चाल चल दी गई है, जिसका इंतजार महीनों से था। महागठबंधन की कश्ती को अब 'कैप्टन' मिल गया है! राष्ट्रीय जनता दल (RJD) की अगुवाई वाले इस गठबंधन ने युवा तुर्क तेजस्वी यादव को अपना मुख्यमंत्री चेहरा घोषित कर दिया है। यह सिर्फ एक ऐलान नहीं, बल्कि कांग्रेस और आरजेडी के बीच चल रहे लंबे सियासी घमासान का पटाक्षेप भी है। कांग्रेस ने मजबूरी कहें या रणनीति, लेकिन तेजस्वी के नाम पर अपनी मुहर लगा दी है। इस बड़े घटनाक्रम के साथ ही, विकासशील इंसान पार्टी (VIP) के प्रमुख मुकेश सहनी को उप-मुख्यमंत्री पद का चेहरा भी घोषित किया गया है। इतना ही नहीं, कांग्रेस के 'संकटमोचक' और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक कदम आगे बढ़कर यह भी कहा है कि यदि महागठबंधन सत्ता में आता है, तो 'दूसरे समाज के लोगों' को भी डिप्टी सीएम बनाया जाएगा। यह बयान महागठबंधन की नई सोशल इंजीनियरिंग का स्पष्ट संकेत है, जिसके सहारे वे जातीय समीकरणों को साधने की कोशिश में हैं।
कांग्रेस की 'खामोशी' टूटी, RJD का 'मास्टरस्ट्रोक'
एक समय था जब कांग्रेस आलाकमान तेजस्वी यादव को सीएम चेहरा बनाने पर खुले तौर पर रजामंदी देने से हिचक रहा था। यहां तक कि 'वोटर अधिकार यात्रा' के दौरान राहुल गांधी ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी थी। कांग्रेस के बिहार प्रभारी और प्रदेश अध्यक्षों को लगता था कि तेजस्वी के नाम पर चुनाव लड़ने से गैर-यादव ओबीसी, दलित और सवर्ण वोट छिटक जाएंगे। इसी अविश्वास ने महागठबंधन में सीट-बंटवारे और नेतृत्व के नाम पर ऐसा 'रायता' फैलाया कि चुनाव से ठीक पहले गठबंधन की किरकिरी होने लगी। एक दर्जन सीटों पर तो यह आपस में ही भिड़ता नजर आया।
लेकिन आरजेडी ने धैर्य रखा और सही समय का इंतजार किया। वोटिंग से ठीक दो हफ्ते पहले आरजेडी ने बाकी घटक दलों - वामपंथी पार्टियां, माले और मुकेश सहनी को अपने साथ मजबूती से खड़ा रखा। माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य से लेकर वीआईपी के सहनी तक तेजस्वी के नाम पर सहमत थे। कांग्रेस को छोड़कर, बाक़ी दलों का विश्वास अपने साथ बनाए रखकर, आरजेडी ने कांग्रेस पर ऐसा सियासी दबाव बनाया कि कांग्रेस के 'प्रेशर दांव' उलटे पड़ गए और कैंपेन भी खटाई में पड़ गया।
गहलोत ने कैसे सुलझाया सियासी 'पेच'?
महागठबंधन में मचे घमासान को देखकर कांग्रेस ने अपने सबसे अनुभवी और सुलझे हुए नेता, अशोक गहलोत को बिहार के रण में उतारा। गहलोत, जो कि 'रणनीति के चाणक्य' माने जाते हैं, सीधे पटना पहुंचे और लालू यादव व तेजस्वी से बात की। उन्होंने 24 घंटे के अंदर उन तमाम सियासी गांठों को सुलझा दिया, जो महीनों से उलझी हुई थीं। गहलोत अच्छी तरह समझते थे कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी (BJP) और जनता दल यूनाइटेड (JDU) के मजबूत गठबंधन, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के सामने अकेले लड़ना या बिना आरजेडी के मजबूत नेतृत्व के साथ चलना कांग्रेस के लिए 'सियासी आत्महत्या' जैसा होगा। कांग्रेस 2020 में अकेले लड़कर अपना हश्र देख चुकी है।
गहलोत ने कांग्रेस हाईकमान को इस बात के लिए राजी किया कि तेजस्वी यादव से बड़ा और सर्वमान्य चेहरा महागठबंधन के पास कोई दूसरा नहीं है। आखिरकार, गहलोत ने ही प्रेस कॉन्फ्रेंस में तेजस्वी यादव के नाम का औपचारिक ऐलान किया और उन्हें 'सीएम चेहरा' घोषित करवाया। आरजेडी अपने 'सियासी एजेंडे' पर कांग्रेस से मुहर लगवाने में कामयाब रही।
'जाति कार्ड' बनाम 'कैश ट्रांसफर' की लड़ाई
सूत्रों की मानें तो कांग्रेस को यह एहसास हो चुका है कि केंद्र और राज्य सरकार द्वारा महिलाओं को 10,000 रुपये के रोजगार भत्ते और अन्य कैश ट्रांसफर योजनाओं का जमीन पर व्यापक असर हो रहा है। इस 'कैश ट्रांसफर' वाली योजना को काउंटर करने के लिए कांग्रेस को अब 'जाति कार्ड' खेलना बेहद जरूरी लगा। इसीलिए, तेजस्वी यादव को पूरी ताकत के साथ मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करना पड़ा।
तेजस्वी के नाम पर मुहर लगाकर महागठबंधन ने अपनी नई 'सोशल इंजीनियरिंग' की नींव रखी है। रणनीति यह है कि जैसे ही कांग्रेस और बाकी घटक दल तेजस्वी को सीएम चेहरा घोषित करेंगे, बिहार के 14 फीसदी यादव और 18 फीसदी मुस्लिम वोटर एक बार फिर से एकजुट होकर गोलबंद हो जाएंगे। यानी, महागठबंधन चुनाव के मैदान में सीधे 32 फीसदी वोट बैंक से बैटिंग शुरू करेगा।
इसके अलावा, मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम का चेहरा बनाकर 6 फीसदी मल्लाह और अति पिछड़े वर्ग को साधने का दांव चला गया है। 2020 की गलती को न दोहराते हुए, आरजेडी ने अब सिर्फ यादव-मुस्लिम समीकरण पर निर्भर न रहने की बजाय, अति पिछड़े वर्ग को भी साथ लाने की कोशिश की है। यह चुनावी ऐलान महज़ एक चेहरा घोषित करना नहीं है, बल्कि बिहार चुनाव में एनडीए के सामने एक नई और मजबूत सामाजिक-राजनीतिक चुनौती पेश करने की तैयारी है। अब देखना यह है कि यह नई सोशल इंजीनियरिंग एनडीए के मजबूत दुर्ग में कितनी सेंध लगा पाती है।
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