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ये तो बड़ी आफत हो गई! बिहार में वोट डालने से पहले 'नागरिकता' साबित करो! वोटर लिस्ट रिवीजन बना सबसे बड़ा चुनावी बवाल, क्या लाखों वोट हो जाएंगे रद्द?
Bihar voter list revision: बिहार में इस समय जो प्रक्रिया चल रही है, उसका मकसद है मतदाता सूची को साफ और दुरुस्त करना। पुराने और मृत नाम हटाना, नए वोटरों को जोड़ना, डुप्लिकेट एंट्री मिटाना। लेकिन यहां एक ट्विस्ट है, और वही इस पूरी प्रक्रिया को संदिग्ध बना रहा है।
Bihar voter list revision: क्या बिहार में लोकतंत्र को एक अदृश्य खतरे ने घेर लिया है? क्या मतदान का अधिकार अब दस्तावेज़ों के बोझ तले दब जाएगा? और क्या यह सब कुछ सिर्फ एक मतदाता सूची सुधार है या चुनावी गणित बदलने की रणनीति? 2025 के चुनावी मौसम की पहली तेज़ गूंज बिहार से उठी है। लेकिन यह गूंज किसी रैली या नारेबाज़ी से नहीं, बल्कि एक सूची से आई है मतदाता सूची, जिसे चुनाव आयोग विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) कह रहा है।नाम से यह एक सामान्य, तकनीकी प्रक्रिया लग सकती है लेकिन बिहार की सियासी गलियों में यह किसी राजनीतिक विस्फोट से कम नहीं। इस पर विवाद उठ खड़ा हुआ है, अदालतें सक्रिय हो चुकी हैं, विपक्ष सरकार पर हमलावर है और आम लोग सवालों से घिरे हैं।
जब वोट डालने से पहले मांगा जाने लगे 2003 का सबूत
बिहार में इस समय जो प्रक्रिया चल रही है, उसका मकसद है मतदाता सूची को साफ और दुरुस्त करना। पुराने और मृत नाम हटाना, नए वोटरों को जोड़ना, डुप्लिकेट एंट्री मिटाना। लेकिन यहां एक Twist है, और वही इस पूरी प्रक्रिया को संदिग्ध बना रहा है। जो लोग 2003 की मतदाता सूची में दर्ज नहीं थे, उनसे अब दस्तावेज़ मांगे जा रहे हैं नागरिकता, जन्मस्थान और उम्र साबित करने के लिए। और अगर वो नहीं दे पाए, तो उन्हें वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया जा सकता है। कानूनी तौर पर यह प्रक्रिया सही लग सकती है, लेकिन जब आप ज़मीनी सच्चाई पर नजर डालते हैं, तो तस्वीर डरावनी हो जाती है। बिहार के करोड़ों मतदाता, खासकर गरीब, ग्रामीण, प्रवासी, दलित, मुस्लिम और युवा वर्ग जिनके पास जन्म प्रमाण पत्र या पासपोर्ट जैसे दस्तावेज़ नहीं हैं अचानक एक अनिश्चितता के भंवर में फंस गए हैं।
लोकतंत्र का पेपर टेस्ट
इस पुनरीक्षण में जिन दस्तावेज़ों को प्राथमिकता दी गई है, उनमें कई ऐसे हैं जो आम नागरिकों के पास नहीं होते जैसे कि स्कूल छोड़ने का प्रमाणपत्र, जन्म प्रमाण पत्र या पासपोर्ट। हालांकि आधार कार्ड, राशन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस जैसे दस्तावेज़ हर घर में पाए जाते हैं, फिर भी इन्हें शुरुआत में मुख्य पहचान पत्र के रूप में नहीं माना गया। सुप्रीम कोर्ट को भी इस पर हस्तक्षेप करना पड़ा अदालत ने साफ कहा कि ECI को आधार और राशन कार्ड जैसे दस्तावेजों को भी मान्य मानने पर विचार करना चाहिए। लेकिन तब तक सैकड़ों बीएलओ (बूथ लेवल ऑफिसर) घर-घर जाकर लोगों को फार्म भरवाने लगे, दस्तावेज़ मांगने लगे और जिनके पास न हो, उनका नाम आपत्ति सूची में डालने लगे।
चुनाव से पहले का टाइमिंग
यह पूरी प्रक्रिया सामान्य होती अगर यह चुनाव से ठीक पहले नहीं हो रही होती। 2025 के अंत में बिहार विधानसभा चुनाव संभावित हैं, और ठीक उसी साल के जुलाई-अगस्त में यह मतदाता सूची पुनरीक्षण तेज़ी से शुरू हुआ। सवाल उठने लगे क्यों अब? क्या यह किसी खास वोट बैंक को प्रभावित करने की कोशिश है? क्या यह उन समुदायों को बाहर रखने का प्रयास है जो सत्ता-विरोधी माने जाते हैं? विपक्षी दलों ने इसे चुनावी इंजीनियरिंग कहा है। कुछ ने तो इसे पेपर-आधारित NRC का नाम दे दिया जहां नागरिकता साबित करने के नाम पर वोटिंग अधिकार छीने जा रहे हैं।
प्रवासियों का संकट
बिहार से लाखों लोग काम के लिए दिल्ली, मुंबई, पंजाब और बंगलुरु जैसे शहरों में रहते हैं। ऐसे प्रवासी मजदूरों के लिए यह प्रक्रिया किसी काफ्का-जैसे संकट से कम नहीं। उन्हें अपने घर वापस लौटकर बीएलओ को दस्तावेज़ देने होंगे। जो न आ पाए, उनके नाम हट सकते हैं। यानी जो गांव लौटेगा, वही वोट डालेगा ये नियम अचानक लोकतंत्र की सीमा बन गया है।
चुनाव आयोग बनाम गृह मंत्रालय?
कानून के जानकारों का कहना है कि मतदाता सूची तैयार करना चुनाव आयोग का काम है, लेकिन नागरिकता की पुष्टि करना गृह मंत्रालय का। अब जब ECI मतदाताओं से नागरिकता के दस्तावेज़ मांग रहा है, तो सवाल उठता है क्या वह अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात को रेखांकित किया है कि चुनाव आयोग को नागरिकता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है, केवल यह तय करना चाहिए कि व्यक्ति 18 साल का है और भारतीय है। लेकिन जब नागरिकों से पूछा जा रहा है कि क्या आपका नाम 2003 की लिस्ट में था? तब इस प्रक्रिया की मंशा पर संदेह होना स्वाभाविक है।
क्या यह लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है?
भारत में सार्वभौमिक मताधिकार एक बुनियादी अधिकार है। लेकिन बिहार में आज यही अधिकार एक जटिल फॉर्म, दस्तावेज़ों और बीएलओ सत्यापन की भूलभुलैया में फंसा नजर आता है। संभावना यह है कि लाखों लोग खासकर गरीब, महिलाएं, बुज़ुर्ग, ट्रांसजेंडर, मुसाफिर और युवा जो इन शर्तों को पूरा नहीं कर पाएंगे, वोट देने के अधिकार से वंचित हो सकते हैं। और अगर लाखों लोगों को बाहर किया जाता है, तो चुनावी नतीजे भी एकतरफा हो सकते हैं।
अदालत की निगरानी, लेकिन जनता में बेचैनी
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया को पूरी तरह रोकने के पक्ष में नहीं है। लेकिन उसने कई सवाल उठाए हैं, और चुनाव आयोग को चेतावनी दी है कि किसी भी व्यक्ति को बिना न्यायसंगत वजह के मतदाता सूची से हटाया नहीं जाए। 1 अगस्त 2025 को जब मतदाता सूची का मसौदा जारी होगा, तब शायद सबसे बड़ा झटका लगेगा जब लोग देखेंगे कि उनका नाम लिस्ट में है या नहीं। और 30 सितंबर 2025 को जब अंतिम सूची आएगी, तब तय होगा कि बिहार का लोकतंत्र वास्तव में कितना समावेशी और निष्पक्ष है।
कागज़ नहीं तो वोट नहीं?
बिहार में चल रहा Special Intensive Revision एक ज़रूरी प्रक्रिया है, लेकिन जिस तरीके से इसे लागू किया जा रहा है, वह चुनावी निष्पक्षता और नागरिक अधिकारों पर एक बड़ा सवालिया निशान बन गया है। क्या लोकतंत्र अब सिर्फ उन लोगों के लिए रह जाएगा जिनके पास सही फॉर्म और सही दस्तावेज़ हैं? क्या आम नागरिक को अब वोट देने के लिए प्रूव योर इंडियननेस का टेस्ट पास करना होगा? आने वाला चुनाव इस प्रक्रिया की सफलता या विफलता का सबसे बड़ा जवाब देगा और शायद देश के बाकी राज्यों के लिए एक चेतावनी भी। बिहार में वोट डालने से पहले अब पेपरवर्क जरूरी, नहीं तो लोकतंत्र से बाहर। क्या 2025 का बिहार चुनाव दस्तावेज़ आधारित वोटिंग का नया युग शुरू करेगा? या एक बड़े जनविरोध का जन्म देगा?
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