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Bond Flexibility Demand: रिटायरमेंट फंड्स में ज्यादा रिटर्न पाने की चाह में नियमों में बदलाव की मांग
Bond Flexibility Demand: बाजार की स्थितियां बदल रही हैं और रिटर्न की संभावनाएं कम होती दिख रही हैं, तो पेंशन फंड मैनेजर्स ने एक नई मांग उठाई है।
Bond Flexibility Demand (Image Credit-Social Media)
Bond Flexibility Demand: भारत में पेंशन प्रबंधन प्रणाली ने बीते वर्षों में उल्लेखनीय विकास किया है, खासकर नेशनल पेंशन सिस्टम (NPS) के तहत। लेकिन अब जब बाजार की स्थितियां बदल रही हैं और रिटर्न की संभावनाएं कम होती दिख रही हैं, तो पेंशन फंड मैनेजर्स ने एक नई मांग उठाई है। उन्होंने नियामक संस्था पेंशन फंड रेगुलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी (PFRDA) से आग्रह किया है कि वे कॉरपोरेट बॉन्ड्स में निवेश से जुड़े कुछ नियमों को आसान करें। खासतौर पर, वे चाहते हैं कि तीन साल से कम अवधि वाले बॉन्ड्स में निवेश की सीमा और क्रेडिट रेटिंग से जुड़े नियमों में ढील दी जाए, ताकि ज्यादा रिटर्न की संभावनाओं को भुनाया जा सके।
NPS की ग्रोथ और निवेश में लचीलापन (NPS Growth & Demand for Flexibility)
नेशनल पेंशन सिस्टम (NPS) के तहत पिछले पांच वर्षों में प्रबंधित परिसंपत्तियों (Assets Under Management) में तीन गुना से ज्यादा की बढ़ोतरी दर्ज हुई है। मार्च 2025 तक यह आंकड़ा ₹14.4 ट्रिलियन तक पहुंच गया है। यह तेज़ी देश की आर्थिक प्रगति और निवेशकों की बढ़ती भागीदारी का संकेत है।
हालांकि, मौजूदा नियमों के तहत, तीन साल से कम अवधि वाले कॉरपोरेट बॉन्ड्स में निवेश की सीमा 10% तक तय है और ऐसे बॉन्ड्स को कम से कम दो क्रेडिट एजेंसियों की रेटिंग मिलनी चाहिए। फंड मैनेजर्स का कहना है कि ये शर्तें निवेश के अवसरों को सीमित करती हैं, खासकर जब कुछ गुणवत्ता वाले बॉन्ड्स केवल एक ही एजेंसी से रेटिंग लेते हैं ताकि कंपनियों की लागत कम हो सके।
बॉन्ड रेटिंग और जोखिम का संतुलन (Credit Ratings vs Risk Management)
पेंशन फंड्स का तर्क है कि अगर केवल दो रेटिंग एजेंसियों की शर्त को एक तक सीमित किया जाए, तो उन्हें मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के कई अच्छे बॉन्ड्स में निवेश का मौका मिलेगा। लेकिन नियामकों के लिए यह चिंता का विषय भी है क्योंकि एक ही एजेंसी की रेटिंग पर निर्भरता से रिटायरमेंट फंड पोर्टफोलियोज की गुणवत्ता पर असर पड़ सकता है।
इसके साथ ही, कम अवधि वाले बॉन्ड्स में अधिक निवेश करने से यह भी चुनौती हो सकती है कि इनसे प्राप्त फंड्स को समय पर और उचित ब्याज दरों पर पुनर्निवेश कैसे किया जाए। यानी, अधिक रिटर्न की चाह में जोखिम भी बढ़ सकता है, जिसे सही संतुलन से ही संभाला जा सकता है।
वित्तीय बाजार तक बेहतर पहुंच की मांग (Push for Market Access)
केवल पेंशन फंड्स ही नहीं, बल्कि बीते कुछ महीनों में इंश्योरेंस कंपनियों और अन्य लॉन्ग-टर्म निवेशकों ने भी नियामकों से वित्तीय बाजार में अधिक पहुंच की मांग की है। इनमें हेजिंग टूल्स के विस्तार और नए प्रकार के डेट सिक्योरिटीज में निवेश की मंजूरी शामिल है।
इन प्रयासों से यह साफ होता है कि भारत के दीर्घकालिक निवेशक अपने पोर्टफोलियो को बेहतर और अधिक लाभकारी बनाना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें अधिक लचीलापन चाहिए - चाहे वह बॉन्ड की अवधि हो या रेटिंग की अनिवार्यता।
निष्कर्ष:
पेंशन फंड्स की यह मांग यह दर्शाती है कि अब भारत में रिटायरमेंट फंड मैनेजमेंट केवल एक रूटीन काम नहीं रहा, बल्कि यह अब जटिल और रणनीतिक निवेश निर्णयों का हिस्सा बन चुका है। हालांकि जोखिम को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन नियामक अगर समझदारी से नियमों में बदलाव करते हैं तो इससे पेंशनधारकों को बेहतर रिटर्न मिलने की संभावनाएं भी बढ़ सकती हैं।
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