आधी रात से पहले- जिन्ना, गांधी, नेहरू-आज़ादी की दहलीज़ पर वो आख़िरी दिन

14 अगस्त 1947, भारत के विभाजन का ऐतिहासिक दिन, जब देश दो हिस्सों में बंट गया। आज़ादी के जश्न में छिपे दर्द और त्रासदी की कहानी, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। जानिए उस दिन की विभीषिका

Jyotsna Singh
Published on: 14 Aug 2025 9:46 PM IST
आधी रात से पहले- जिन्ना, गांधी, नेहरू-आज़ादी की दहलीज़ पर वो आख़िरी दिन
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भारत के विभाजन के इतिहास में 14 अगस्त 1947 एक ऐसा दिन है जो अमिट और लोगों की यादों में हमेशा जिंदा रहेगा। ये वो दिन था जब सुबह से ही का आसमान उदासी की चादर ओढ़े धुंध में डूबा हुआ कुछ दुविधा में था। जैसे बरसात की बूंदें तय नहीं कर पा रही थीं कि कहां गिरना है और कहां नहीं। आसमान ही नहीं जीवन में तरो ताजगी भरने वाली हवाओं में भी एक अजीब-सी बेचैनी और घुटन पसर गई थी। आजादी की खुशी में प्रकृति के इस संकेत को देखकर कोई इसे उत्साह कह रहा था, तो किसी को अंजाना डर सता रहा रहा था। ठीक वैसे जैसे घर में शादी भी हो और मातम भी। देश के विभाजन से पहले का आखिरी दिन कुछ ऐसी ही तस्वीर बयां कर रहा था। जब आजादी के नायक महात्मा गांधी, नेहरू और जिन्ना इन तीनों के बीच एक अजीब सी स्थिति पैदा हो गई थी।

पाकिस्तान प्रस्ताव जो बना हकीकत

देश के आजाद होने से पहले ही पाकिस्तान बनने की कड़ी में एक अहम पड़ाव 23 मार्च 1940 को आया था। इस दिन मुस्लिम लीग ने लाहौर में एक ऐसा प्रस्ताव रखा जिसे बाद में ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ के नाम से भी जाना गया। इसके तहत एक पूरी तरह आज़ाद मुस्लिम देश बनाए जाने का प्रस्ताव रखा गया गया था।

जिसपर वायसराय लिनलिथगो द्वारा एक अगस्त प्रस्ताव की घोषणा की गई। जिसमें कार्यकारी परिषद और एक नई युद्ध सलाहकार परिषद में भारतीय प्रतिनिधियों की नियुक्ति किए जाने का ऐलान किया गया। कांग्रेस और लीग ने अगस्त प्रस्ताव ख़ारिज कर दिया। जिसके बाद 17 अक्तूबर को कांग्रेस ने अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ दिया।


एक लंबे संघर्ष के बाद 2 जून को माउंटबेटन ने भारतीय नेताओं से विभाजन की योजना पर बात की और 3 जून को नेहरू, जिन्ना और सिख समुदाय के प्रतिनिधि बलदेव सिंह ने ऑल इंडिया रेडियो के प्रसारण में इस योजना के बारे में लोगों के बीच यह जानकारी प्रसारित की। आख़िरकार वह दिन भी आया जब देश दो टुकड़ों में बट गया। भारत से कटकर 14 अगस्त को एक नया मुल्क पाकिस्तान बना। इसी दिन पाकिस्तान ने अपना पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया। रात बारह बजे ब्रिटेन और भारत के बीच सत्ता का स्थांनातरण हुआ। जिसके तुरंत बाद 15 अगस्त को भारत ने अपना पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया।

आइए जानते हैं विभाजन के एक दिन पहले की विभीषिका के बारे में -

मोहम्मद अली जिन्ना- जब जीत बनी बोझ

देश आजाद हुआ। तब कौमी नफरतों की जगह सभी की आंखों में बस एक सपना था। आजादी का। लेकिन 200 साल बाद आजादी हासिल तो हुई लेकिन भारत की धरती पर विभाजन के बाद। ये वो चिंगारी थी जो अंग्रेज देश छोड़ते हुए सुलगा कर गए थे। जिसकी गिरफ्त में देश की आजादी में कभी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने वाले मोहम्मद अली जिन्ना भी आ गए। आजादी के बाद जब एक नया देश पाकिस्तान ईजाद हुआ तब कराची में मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के पहले गवर्नर-जनरल बनने के लिए खुद को तैयार कर रहे थे। उनका सूट प्रेस किया जा चुका था, सारी तैयारियां ठीक तरह से की जा रहीं थीं। लेकिन उनके दिल दिमाग में एक बोझ था। आंखों में बीमारी का असर और एक बोझिल सी थकान भी। कई जगह इस बात का जिक्र किया गया है कि, जिन्ना को पाकिस्तान बंटवारे के बाद कई बार पुराने वक्त की याद ताजा हो आती थी। वह दौर जब पाकिस्तान सिर्फ़ एक ‘राजनीतिक मांग’ थी , न कि वास्तविकता।

लेकिन इस नए देश की बुनियाद के साथ जो घटनाएं घटित हो रहीं थीं, वो जश्न को मातम बनाने के लिए काफी थीं। कौमी नफरतों में पंजाब के गांव जल रहे थे। दोनों देश की सीमाओं पर लोग जान बचाने के लिए लोग अपने बसे बसाए घर छोड़कर कतारों में हाथ में बर्तन, सिर्फ़ एक गठरी, और कई तो खाली हाथ ही चले जा रहे थे एक नया ठौर बनाने की चाहत में।

पाकिस्तान की आजादी के जश्न के मौके पर अपने पहले भाषण में जिन्ना ने कहा था कि, 'पाकिस्तान में रहने वाले किसी भी धर्म के नागरिक सभी बराबर होंगे। उनके आत्मविश्वास भरे इस संबोधन के पीछे की तस्वीर ठीक उलट थी। हालात ऐसे कि उन बातों की गूंज हिंसा के शोर में घुट रही थी। जिन्ना ने जरूर उस रात आसमान देखा होगा और सोचा होगा कि ये कैसी जीत है।

गांधी आजादी के जश्न से दूर, विद्रोह को शांत करने की एक और लड़ाई

14 अगस्त 1947 वह दिन था जब आजाद हिंदुस्तान की तैयारियों में दिल्ली में संविधान सभा के बाहर रोशनी हो चुकी थी। जहां नेहरू और उनके साथी नेताओं के बीच एक नया संगठित राज्य बनाने को लेकर चर्चाएं चल रहीं थी।

लेकिन आजादी के नायक गांधी जी वहां मौजूद नहीं थे। वो तो कलकत्ता में थे। जहां नफरती लहर मानवता को तार तार कर रही थी। पूरा शहर खून और नफरत से कांप रहा था। पाकिस्तान बंटवारे के बाद भी मार काट खत्म नहीं हुई थी। जिसे शांत करने के लिए 14 अगस्त की सुबह उन्होंने उपवास रखा। एक ओर देश आजादी का जश्न मना रहा था वहीं दूसरी ओर गांधी जी अपने कमरे के एक कोने में किसी आंधी को शांत करने का प्रयत्न कर रहे थे। उनके मन में आजादी का न उत्सव था न कोई गूंज। बस एक ही लय थी वो थी अहिंसा। उस कमरे में गांधी जी के साथ बस कुछ कार्यकर्ता बैठे थे। पास में उनकी एक लाठी। वो खुद किसी भी चर्चा से दूर बस ध्यान में डूबे हुए थे। मजहबी नफरतों को शांत करने की अथक कोशिश। क्योंकि गांधी जी के लिए आज़ादी का मतलब सिर्फ़ ब्रिटिश राज का अंत नहीं था बल्कि वह देश में लोगों के बीच नफरत खत्म करना चाहते थे। कलकत्ता में गांधी जी का उपवास रखकर शांति का प्रयास सफल हुआ। मंदिर और मस्जिद के दरवाज़े एक साथ खुले। लोगों ने महात्मा गांधी ज़िंदाबाद के नारे एक साथ लगाए। जिसे सुनकर गांधी के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी, लेकिन आंखों में थकान भी। शायद वो यह बात भली भांति जानते थे कि यह शांति स्थाई नहीं है। ये बात जरूर थी कि कम से कम उस दिन उनके प्रयास ने हिंसा को थाम लिया था। हिंसा के मार्ग को छोड़ने के लिए कलकत्ता में लोगों का तैयार होना कोई सरकारी आदेश से नहीं था बल्कि गांधी जी के सम्मान में यह लोगों के दिल से लिया फैसला था।

नेहरू - जब दुनिया सो रही होगी, भारत जागेगा…

कहते हैं कि देश की आजादी के जश्न के एक दिन पहले उन्होंने दोपहर में अकेले कुछ देर टहलते हुए कुछ शब्द कहे कि 'जब दुनिया सो रही होगी, भारत जागेगा…' नेहरू के आजाद भाषण में शामिल यह शब्द सिर्फ़ पंक्तियां भर नहीं थीं बल्कि इनके पीछे सदियों की पीड़ा और ख्वाबों के सच होने जैसा अनोखा मेल था। 14 अगस्त की की आधी रात को उन्हें वो भाषण देना था, जो आने वाले दशकों में हर 15 अगस्त को याद किया जाएगा। 14 अगस्त यह वही पल था जब दिल्ली में नेहरू के सामने भी एक बड़ी चुनौती आकर सामने खड़ी थी।

रात बारह बजने में कुछ ही मिनट बाकी थे। संविधान सभा के हॉल में पूरी तरह से शांति पसरी घी। जहां बस इंसानी मौजूदगी से कहीं ज्यादा पंखों के चखने की आवाजें गूंज रहीं थीं। यदा कदा बीच-बीच में किसी के आने जाने के बीच कदमों की आवाजें भी स्पष्ट सुनाई पड़ रहीं थीं। उस सभा में जब उन्होंने बोलना शुरू किया, तो उनकी आवाज़ में आत्म विश्वास भरा हुआ था लेकिन आंखें कुछ सोच कर आंसुओं से चमक रही थीं। लोग तालियां बजा रहे थे, और बाहर पटाखों की आवाज़ आ रही थी। लेकिन आजादी के इस जश्न में बहुत कुछ ऐसा भी था जो नेहरू जी के सामने टूट कर बिखर चुका था। आजादी का ये ऐसा जश्न था जब देश के दूसरे कोनों में अमृतसर, लाहौर, नोआखाली में पटाखों की रोशनी और आजादी के उन्माद की जगह जातीय नफरतों की ज्वालाएं धधक रही थीं।

सरकारी कागजों पर सत्ता के गठन से लेकर टूटते बिखरते धारौंदों तक

सत्ता के गलियारों में हलचल थी। नई सरकारें कागजों पर बन तैयारियां कर रहीं थीं। झंडे फहराने की तस्वीर मुकम्मल हो रही थी वह दूसरी ओर लोगों के घरौंदे टूट रहे थे। चारों ओर बिछड़ने और छूटने का मातम था। पंजाब में ऐसी रेलगाड़ियां संचालित की गईं थीं, जो वहां से लोगों को किसी सुरक्षित जगह तक ले जाने की तैयारियां कर रहीं थीं। जिनमें से हिंसा और आगजनी के बीच कुछ सुरक्षित पहुंचती थीं, कुछ लोगों के साथ ही उस हिंसा में भस्म हो रहीं थीं। किसी स्टेशन पर उतरते ही कोई अपने को सुरक्षित मिल जाता तो पूरा परिवार उसे गले लगाता था। इसी बीच अनगिनत लोग ऐसे भी थे जिनकी आँखें ट्रेनों के आने जाने का क्रम देखते हुए अपनों से मिलने के इंतजार में पथरा जातींं।

वहीं बंगाल में नावों से लोग नदी पार कर अपने रिश्तेदारों के घर पहुंच रहे थे। जहां पहुंचकर कई को अपने गांव के घरों के दरवाजे टूटे मिले। जहां कोई अपने परिवार को तलाश रहा था तो कोई अपना सामान ढूंढ रहा था।


ऐसे में बीच बीच में उठती आजादी मुबारक की आवाजें उनके कानों में नश्तर सी चुभ रहीं थीं। ऐसे में आज भी लोगों के मन में ये सवाल उठता है कि, कैसी आज़ादी है, जिसमें लोग अपना घर छोड़कर जा रहे थे? कुछ घरों में आजादी की खुशी में मिठाई बांटी जा गई, तो कई घरों में मातम पसरा था। जहां कई दिनों से चूल्हा तक नहीं जला था।

इसी बीच पुरानी दिल्ली के बाहर मोहल्ले में लोग अपने रिश्तेदारों की तलाश कर रहे थे। इतिहास के पन्नों पर ये दुखद घटनाएं किस्से बन कर सिमट जाती हैं, लेकिन जिनके साथ यह हुआ, उनके लिए ये पूरी जिंदगी उनके लिए आजादी का मतलब बदल चुका था।

जिसमें जिन्ना भारी जिम्मेदारी के साथ पाकिस्तान की बुनियाद रख रहे थे। गांधी जी दंगों के बीच खड़े होकर अहिंसा का पाठ पढ़ा रहे थे। नेहरू आधी रात को आजाद भारत के सपने के पूरा होने का इतिहास रच रहे थे। 14 अगस्त वही दिन है जिस दिन दिन तीनों महानायकों की राहें अलग थीं। विचारधारा भी अलग थी, लेकिन भारत देश की आजादी और बंटवारे से जुड़े इतिहास के पन्ने पर मौजूद थे। जिस पन्ने पर यह शब्द अंकित थे कि आज़ादी सिर्फ़ राजनैतिक बदलाव नहीं, यह देश के नायकों की परीक्षा भी है। 15 अगस्त की सुबह जब सूरज निकला, तो बहुतों ने पहली बार आज़ाद हवा में सांस ली। पर कई जगह, उसी हवा में धुआं भी था।

दिल्ली में झंडा फहरा, लाहौर में भी। लेकिन गांवों में रास्ते सुनसान पड़े थे। बच्चे, जिन्हें समझ नहीं था कि हुआ क्या है, बस यह देख रहे थे कि बड़े क्यों रो रहे हैं या क्यों खुश हैं।

उस दिन 'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी" भाषण में जवाहर लाल नेहरू ने यह बात कही कि, आजादी मिल गई, अब इसे बचाना असली काम होगा।'

जिस देश के बंटवारे में लगभग सवा करोड़ लोग अपना घरबार छोड़ देश बदलने को मजबूर हो गए थे। करीब दासियों लाखों लोग इस हिंसा के शिकार हो गए। असंख्य महिलाओं को अगवा कर उनकी अस्मत लूटी गई। इतिहास के पन्नों में दर्ज ऐसी त्रासदी युगों-युगों तक लोगों में उबाल पैदा करती रहेगी।

यह एक ऐसा कत्लेआम का दौर था जिसमें विभाजन की विभीषिका अपने साथ बेबसी, क्रूरता और हिंसा का सैलाब बन गई। यह दौर अपने गुजरने के साथ ही ऐसा नासूर सरीखा ज़ख्म छोड़ गया जिसकी भरपाई में आज भी दोनों देश खुद को असमर्थ महसूस करते हैं।

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Shivam Srivastava

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Shivam Srivastava is a multimedia journalist with over 4 years of experience, having worked with ANI (Asian News International) and India Today Group. He holds a strong interest in politics, sports and Indian history.

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