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Chief Election Commissioner: मुख्य चुनाव आयुक्त कौन होते हैं, क्या है भारत में इनके महाभियोग और नियुक्ति प्रक्रिया?
Chief Election Commissioner India: क्या आप जानते हैं कि मुख्य चुनाव आयुक्त कौन होते हैं और क्या है भारत में इनके महाभियोग और नियुक्ति की प्रक्रिया। आइये विस्तार से जानते हैं।
Chief Election Commissioner India (Image Credit-Social Media)
Chief Election Commissioner India: भारत का मुख्य चुनाव आयुक्त देश के लोकतंत्र की रीढ़ है, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी संभालता है। भारतीय संविधान ने इस पद को मजबूत संवैधानिक सुरक्षा प्रदान की है ताकि यह बिना किसी राजनीतिक दबाव के कार्य कर सके। हाल के दिनों में, विपक्ष और चुनाव आयोग के बीच तनाव बढ़ने के कारण मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने के लिए महाभियोग प्रस्ताव की चर्चा सुर्खियों में है। यह लेख मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया (महाभियोग) और उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया को विस्तार से समझाता है, जिसमें संवैधानिक प्रावधान, प्रक्रिया के चरण और इसकी जटिलताओं को शामिल किया गया है।
मुख्य चुनाव आयुक्त का पद: संवैधानिक स्थिति
भारत का संविधान अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग की स्थापना और उसके कार्यों को परिभाषित करता है। यह अनुच्छेद राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय चुनावों की देखरेख, निर्देशन, और नियंत्रण की जिम्मेदारी भारत निर्वाचन आयोग को सौंपता है। मुख्य चुनाव आयुक्त इस आयोग का प्रमुख होता है और इसे सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के समान संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है। अनुच्छेद 324(5) स्पष्ट करता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त को केवल उसी प्रक्रिया और आधारों पर हटाया जा सकता है, जो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के लिए लागू हैं। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त बिना किसी बाहरी दबाव के स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से कार्य कर सके।
मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल सामान्यतः 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक होता है, जो भी पहले हो। इस दौरान उनकी सेवा शर्तें, जैसे वेतन और भत्ते, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के समान होती हैं और इन्हें उनके कार्यकाल के दौरान बदला नहीं जा सकता। यह संवैधानिक ढांचा मुख्य चुनाव आयुक्त की स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए बनाया गया है।
मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया (महाभियोग)
मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया, जिसे सामान्यतः महाभियोग कहा जाता है, लेकिन संवैधानिक रूप से इसे "हटाने की प्रक्रिया") के रूप में जाना जाता है, बेहद जटिल और कठिन है। यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया के समान है, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 124(4) और अनुच्छेद 324(5) में वर्णित है। इस प्रक्रिया को निम्नलिखित चरणों में समझा जा सकता है:
1. प्रस्ताव का प्रस्तुतीकरण
मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने के लिए संसद के किसी भी सदन, यानी लोकसभा या राज्यसभा, में प्रस्ताव पेश किया जा सकता है। इस प्रस्ताव को पेश करने के लिए निम्नलिखित शर्तें पूरी होनी चाहिए:
लोकसभा में: प्रस्ताव पर कम से कम 100 सांसदों के हस्ताक्षर आवश्यक हैं।
राज्यसभा में: कम से कम 50 सांसदों के हस्ताक्षर जरूरी हैं।
प्रस्ताव में "सिद्ध दुर्व्यवहार" या "अक्षमता" जैसे गंभीर आरोपों का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए।
यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि प्रस्ताव केवल गंभीर और ठोस आधारों पर ही लाया जाए, न कि राजनीतिक दबाव या हल्के आधारों पर।
2. प्रस्ताव की स्वीकृति
प्रस्ताव पेश होने के बाद, संबंधित सदन के पीठासीन अधिकारी, यानी लोकसभा के स्पीकर या राज्यसभा के चेयरमैन, को इस पर विचार करना होता है। उनके पास प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार करने का पूर्ण अधिकार होता है। यदि प्रस्ताव स्वीकार किया जाता है, तो अगले चरण में जांच समिति का गठन होता है। यदि इसे अस्वीकार कर दिया जाता है, तो प्रक्रिया यहीं समाप्त हो जाती है।
3. जांच समिति का गठन
प्रस्ताव स्वीकार होने पर, पीठासीन अधिकारी एक तीन-सदस्यीय जांच समिति का गठन करते हैं। इस समिति में आमतौर पर निम्नलिखित लोग शामिल होते हैं:
सुप्रीम कोर्ट का एक मौजूदा या सेवानिवृत्त न्यायाधीश (अध्यक्ष के रूप में)।
किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश।
एक प्रतिष्ठित न्यायविद् ।
यह समिति आरोपों की गहन और निष्पक्ष जांच करती है। मुख्य चुनाव आयुक्त को इस प्रक्रिया में अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर दिया जाता है, ताकि प्रक्रिया पारदर्शी और निष्पक्ष रहे।
4. जांच और रिपोर्ट
जांच समिति आरोपों की विस्तृत जांच करती है और अपनी रिपोर्ट पीठासीन अधिकारी को सौंपती है। यदि समिति आरोपों को सही पाती है और मुख्य चुनाव आयुक्त को "दुर्व्यवहार" या "अक्षमता" का दोषी ठहराती है, तो हटाने की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। यदि समिति आरोपों को निराधार पाती है, तो प्रक्रिया यहीं समाप्त हो सकती है।
5. संसद में मतदान और विशेष बहुमत
यदि जांच समिति की रिपोर्ट में मुख्य चुनाव आयुक्त को दोषी पाया जाता है, तो हटाने का प्रस्ताव फिर से उस सदन में लाया जाता है जहां से इसकी शुरुआत हुई थी। इस प्रस्ताव को पारित करने के लिए "विशेष बहुमत" की आवश्यकता होती है, जिसका अर्थ है:
सदन की कुल सदस्य संख्या का बहुमत (50% से अधिक)।
उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत।
उदाहरण के लिए, लोकसभा में 543 सदस्य हैं, इसलिए प्रस्ताव को कम से कम 272 सदस्यों का समर्थन और उपस्थित मतदाताओं के दो-तिहाई वोट की आवश्यकता होगी।
6. दोनों सदनों में प्रक्रिया का दोहराव
पहले सदन में प्रस्ताव पारित होने के बाद, इसे दूसरे सदन (लोकसभा या राज्यसभा, जो लागू हो) में भेजा जाता है। वहां भी इसे उसी विशेष बहुमत से पारित करना अनिवार्य है। यह प्रक्रिया एक ही संसदीय सत्र में पूरी होनी चाहिए, जिससे प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से लंबा खींचने से रोका जा सके।
7. राष्ट्रपति का आदेश
दोनों सदनों से प्रस्ताव पारित होने के बाद, इसे अंतिम स्वीकृति के लिए भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति, संसद की सिफारिश पर, मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाने का आदेश जारी करते हैं यह आदेश अंतिम होता है और इसके बाद मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल समाप्त हो जाता है।
प्रक्रिया की जटिलता और संवैधानिक सुरक्षा
मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया को जानबूझकर जटिल और कठिन बनाया गया है ताकि इस पद की स्वतंत्रता और गरिमा बनी रहे। यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि कोई भी सरकार या राजनीतिक दल मनमाने ढंग से मुख्य चुनाव आयुक्त को हटा न सके, विशेष बहुमत की आवश्यकता और जांच समिति की निष्पक्षता इस प्रक्रिया को और मजबूत बनाती है।
अब तक, भारत के इतिहास में किसी भी मुख्य चुनाव आयुक्त को इस प्रक्रिया के माध्यम से हटाया नहीं गया है। हालांकि, कुछ अवसरों पर ऐसी कोशिशें हुई हैं। उदाहरण के लिए, 2009 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश की थी, लेकिन यह प्रस्ताव लोकसभा स्पीकर द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था। यह घटना इस प्रक्रिया की जटिलता और इस पद की संवैधानिक सुरक्षा को दर्शाती है।
मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया
मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति भी एक संवैधानिक और पारदर्शी प्रक्रिया के तहत होती है। यह प्रक्रिया "मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और कार्यकाल) अधिनियम, 2023" द्वारा शासित है। इस प्रक्रिया को निम्नलिखित चरणों में समझा जा सकता है:
1. चयन समिति का गठन
मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक तीन-सदस्यीय चयन समिति का गठन किया जाता है। इस समिति में शामिल हैं:
भारत के प्रधानमंत्री (अध्यक्ष)।
लोकसभा में विपक्ष के नेता।
प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री।
यह समिति नियुक्ति के लिए उम्मीदवारों का चयन करती है। पहले इस समिति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल होते थे, लेकिन 2023 के अधिनियम में इस प्रावधान को हटा दिया गयाजिस पर काफी विवाद भी हुआ।
2. सर्च कमेटी की भूमिका
नियुक्ति प्रक्रिया में एक सर्च कमेटी भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह कमेटी संभावित उम्मीदवारों की एक सूची तैयार करती है और पांच नामों को शॉर्टलिस्ट करती है सर्च कमेटी में आमतौर पर उच्च प्रशासनिक या कानूनी विशेषज्ञ शामिल होते हैं।
3. चयन समिति द्वारा नामांकन
चयन समिति सर्च कमेटी द्वारा शॉर्टलिस्ट किए गए नामों की समीक्षा करती है। हालांकि, यह समिति शॉर्टलिस्ट के बाहर किसी अन्य व्यक्ति को भी नामांकित कर सकती है इसके बाद, समिति एक नाम को अंतिम रूप देती है और उसे राष्ट्रपति के पास सिफारिश के लिए भेजती है।
4. राष्ट्रपति की मंजूरी
चयन समिति द्वारा सिफारिश किए गए नाम को भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति इस नाम पर अंतिम मुहर लगाते हैं और नियुक्ति को मंजूरी देते हैं।
5. नोटिफिकेशन और शपथ
राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद, मुख्य चुनाव आयुक्त या अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का नोटिफिकेशन जारी किया जाता है इसके बाद, नवनिर्वाचित आयुक्त भारतीय निर्वाचन आयोग में शपथ लेते हैं और अपना पदभार ग्रहण करते हैं।
नियुक्ति में विवाद
2023 के अधिनियम ने मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को शामिल करने वाले प्रावधान को हटा दिया, जिसके कारण विपक्ष ने इस प्रक्रिया को कम पारदर्शी और सरकार के प्रभाव में होने का आरोप लगाया सुप्रीम कोर्ट ने भी इस नए कानून पर विचार किया, लेकिन मार्च 2024 तक इस पर कोई रोक नहीं लगाई गई।
महाभियोग और नियुक्ति की प्रासंगिकता
हाल के समय में, विशेष रूप से बिहार में स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) और "वोट चोरी" के आरोपों के बाद, विपक्ष ने मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की चर्चा शुरू की है। विपक्ष का आरोप है कि मतदाता सूची में हेराफेरी और चुनावी प्रक्रिया में पक्षपात हुआ है हालांकि, इस तरह के प्रस्ताव को पारित करना आसान नहीं है, क्योंकि इसके लिए संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, जो वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में विपक्ष के लिए चुनौतीपूर्ण है।
इसके अतिरिक्त, मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति और हटाने की प्रक्रिया लोकतंत्र की नींव को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि हटाने की प्रक्रिया को कठिन बनाकर इस पद की स्वतंत्रता को बनाए रखना।
मुख्य चुनाव आयुक्त का पद भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जिसे संविधान ने मजबूत सुरक्षा प्रदान की है। महाभियोग की प्रक्रिया, जो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के समान है, यह सुनिश्चित करती है कि इस पद पर बैठा व्यक्ति बिना किसी राजनीतिक दबाव के स्वतंत्र रूप से कार्य कर सके। दूसरी ओर, नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए हाल के वर्षों में कई सुधार किए गए हैं, हालांकि इनमें अभी भी सुधार की गुंजाइश है।
वर्तमान में, विपक्ष द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव की चर्चा दबाव की रणनीति का हिस्सा हो सकती है, लेकिन इसकी सफलता संसद में विशेष बहुमत पर निर्भर करती है। यह प्रक्रिया और इसकी जटिलता भारतीय संविधान की उस सोच को दर्शाती है जो लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को सर्वोपरि मानती है।
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