India Turkey Relations: भारत-तुर्की संबंध की ऐतिहासिक जड़ें कौन कौन सी है, इसमें पाकिस्तान ने क्या भूमिका निभाई?

India Turkey Relations History: भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव से लेकर सीजफायर की घोषणा तक कई देशों ने साफ़ तौर पर भारत का साथ दिया है वहीँ पाकिस्तान के साथ तुर्की खड़ा रहा।

Akshita Pidiha
Published on: 15 May 2025 8:13 PM IST
India Turkey Relations History Business Structures
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India Turkey Relations History Business Structures 

India-Turkey -Pakistan History: भारत और पाकिस्तान के बीच हाल ही में सीजफायर की घोषणा हो चुकी है और जल्द ही डीजीएमओ (DGMO) स्तर की बातचीत भी होनी है। इस बीच, तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोगन का बयान सामने आया है जिसमें उन्होंने पाकिस्तानियों को "भाई" बताया और उनके लिए "अल्लाह से दुआ" मांगी। यह बयान अपने-आप में कोई नई बात नहीं है क्योंकि तुर्की का झुकाव लगातार पाकिस्तान की ओर देखा गया है। तुर्की की यह भावनात्मक एकजुटता भारत के प्रति शायद ही कभी दिखी हो। इस रूख की जड़ें सिर्फ आधुनिक राजनयिक नीतियों में नहीं, बल्कि इतिहास की गहराइयों में छिपी हैं।

भारत और तुर्की दो ऐसे राष्ट्र हैं जो भौगोलिक रूप से अलग-अलग महाद्वीपों में स्थित होने के बावजूद ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और व्यापारिक स्तर पर एक-दूसरे से जुड़े रहे हैं। एक ओर भारत दक्षिण एशिया की एक विशाल लोकतांत्रिक शक्ति है, तो दूसरी ओर तुर्की यूरोप और एशिया के संगम पर स्थित एक प्रमुख रणनीतिक और आर्थिक केंद्र है। इन दोनों देशों के बीच संबंधों में समय-समय पर उतार-चढ़ाव आते रहे हैं, लेकिन बीते दशकों में परस्पर व्यापार, निवेश, शिक्षा, संस्कृति और कूटनीति जैसे क्षेत्रों में सहयोग लगातार बढ़ा है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भारत और तुर्की के बीच संबंधों की नींव ऐतिहासिक कालखंड में पड़ी थी, जब मुगल साम्राज्य की स्थापना करने वाले बाबर और उनके पूर्वज तैमूर का रिश्ता तुर्की से जुड़ा हुआ था। तुर्की की इस्लामी विरासत और भारत में मुसलमानों के आगमन के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ा। मध्य एशिया और पश्चिम एशिया से तुर्कों का भारत आना, यहां व्यापार करना, प्रशासनिक भागीदारी और सांस्कृतिक प्रभाव दोनों ओर देखने को मिला।


ब्रिटिश राज के दौरान तुर्की और भारत की जनता के बीच परोक्ष रूप से संपर्क रहा, विशेषकर खिलाफत आंदोलन के समय जब भारतीय मुस्लिम नेताओं ने तुर्की के खलीफा के समर्थन में आंदोलन चलाया। इस आंदोलन ने न केवल भारत में मुस्लिम राजनीतिक चेतना को जगाया, बल्कि तुर्की को यह एहसास कराया कि भारतीय मुसलमान उनकी भावनाओं से जुड़े हुए हैं। भारत की स्वतंत्रता के एक वर्ष बाद 1948 में भारत और तुर्की के बीच औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित हुए। इसके बाद दोनों देशों ने एक-दूसरे की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का आदर करते हुए परस्पर सहयोग के रास्ते खोजने शुरू किए।

तुर्की और भारत की समकालीन राजनयिक खटास


साल 2016-17 की बात है जब तुर्की में तख्तापलट की कोशिश हुई थी। तुर्की सरकार ने इसके लिए अमेरिका में रह रहे धर्मगुरु फेतुल्लाह गुलान और उनके नेटवर्क को जिम्मेदार ठहराया था। तुर्की के अनुसार, गुलान मूवमेंट को सीआईए (CIA) का समर्थन प्राप्त था। अमेरिका इस आंदोलन के ज़रिए तुर्की सरकार को अस्थिर करना चाहता था। उस समय तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने भारत से अनुरोध किया था कि वह भारत में सक्रिय गुलान मूवमेंट से जुड़े स्कूलों और संस्थानों को बंद करवा दे। लेकिन भारत ने तुर्की की इस मांग को नजरअंदाज कर दिया।

इसके बाद से ही एर्दोगन भारत के विरोध में और पाकिस्तान के समर्थन में कई बार सामने आए। खासकर कश्मीर के मुद्दे पर उन्होंने संयुक्त राष्ट्र समेत कई मंचों पर पाकिस्तान का साथ दिया।भारत की नीतियों की आलोचना की। हाल ही में पहलगाम हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान और पीओके में ऑपरेशन 'सिंदूर' चलाया, तो एर्दोगन ने पाकिस्तान के प्रति फिर से सहानुभूति जताई।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: जब तुर्क भारत आए

भारत और तुर्की के संबंधों की जड़ें बहुत गहरे अतीत में छिपी हुई हैं। लगभग 800 साल पहले 1206 में जब दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई, तब इसके पहले चार वंश — गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश और सैयद वंश — तुर्क मूल के थे। कुतुबुद्दीन ऐबक, जो दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान बना, मूलतः एक तुर्क गुलाम था। मोहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद उसने सत्ता संभाली। उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश भी तुर्क था। उसने भारतीय राजनीति में स्थायित्व लाने का कार्य किया। अलाउद्दीन खिलजी, जो खिलजी वंश का प्रमुख शासक था। वह भी तुर्की मूल का था। उसने प्रशासन और सेना में विभिन्न जातीय समूहों को शामिल किया। तुगलक वंश के शासकों की सेना में भी तुर्क महत्वपूर्ण भूमिका में थे। इन शासकों के दौर में भारत में तुर्की भाषा और संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।


साहित्यिक और भाषाई प्रभाव

दिल्ली सल्तनत और प्रारंभिक मुगल काल के दौरान तुर्की भाषा भारतीय राजनीति और संस्कृति में प्रभावी रही। बाबर, जो मुगल साम्राज्य का संस्थापक था, तुर्क-उज़बेक भाषा का कवि और लेखक था। उसने गद्य और पद्य दोनों में अद्भुत रचनाएं दीं। रामपुर की प्रसिद्ध रज़ा लाइब्रेरी में आज भी तुर्की भाषा में लिखी गई लगभग 50 दुर्लभ पांडुलिपियां और किताबें मौजूद हैं। यह भारत और तुर्की के गहरे सांस्कृतिक और भाषाई संबंधों का प्रतीक हैं।

आधुनिक राजनयिक संबंध और शीत युद्ध का प्रभाव

भारत और तुर्की के बीच आधिकारिक राजनयिक संबंध 1948 में स्थापित हुए। लेकिन जैसे-जैसे शीत युद्ध ने दुनिया को दो ध्रुवों में बांटा, तुर्की अमेरिका के समर्थन में चला गया । जबकि भारत ने गुटनिरपेक्ष नीति अपनाई और रूस के करीब रहा। पाकिस्तान, जो अमेरिका का विश्वसनीय सहयोगी बना, तुर्की के और भी नजदीक आ गया। इससे भारत-तुर्की संबंधों में धीरे-धीरे खटास आती गई।

आज हिंदी और तुर्की भाषाओं में 9,000 से अधिक समान शब्द पाए जाते हैं, जो सांस्कृतिक निकटता की ओर संकेत करते हैं। इसके बावजूद, राजनीतिक दृष्टिकोण में दोनों देश विपरीत ध्रुव पर खड़े हैं।

भारत का सहयोग और फिर भी दूरी

1912 के बाल्कन युद्धों के दौरान भारत के स्वतंत्रता सेनानी डॉ. एम. ए. अंसारी ने तुर्की में चिकित्सा सहायता प्रदान की थी। भारत ने 1920 के दशक में तुर्की के स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन किया। बाद में गणराज्य बनने की प्रक्रिया में भी सहयोग दिया। महात्मा गांधी ने भी तुर्की के खिलाफ हुए अन्याय की निंदा की थी और खिलाफत आंदोलन चलाया था।15 अगस्त, 1947 को भारत की आज़ादी के तुरंत बाद तुर्की ने भारत को मान्यता दी थी। इसके बावजूद, समय के साथ-साथ संबंधों में खटास बढ़ती गई।

सालार मसूद गाजी और भारत के प्रतिरोध की कहानी


11वीं सदी में महमूद गजनवी के सेनापति सैयद सालार मसूद गाजी इस्लाम फैलाने के उद्देश्य से भारत आया था। उसने सिंध और मुल्तान को जीतने के बाद कन्नौज और मेरठ की ओर बढ़त बनाई। लेकिन बहराइच (उत्तर प्रदेश) के राजा सुहेलदेव ने 1034 में उसे हराकर मार डाला। यह ऐतिहासिक लड़ाई भारतीय इतिहास में हिन्दू प्रतिरोध की एक मिसाल बन गई। मसूद को बाद में बहराइच में दफनाया गया। वहां एक दरगाह बनाई गई। हैरानी की बात यह थी कि उस दरगाह पर न केवल मुसलमान, बल्कि हिंदू श्रद्धालु भी चढ़ावा चढ़ाते थे। ब्रिटिश अधिकारी स्लीमैन ने 19वीं सदी में अपनी टिप्पणी में इसे अजीब करार दिया था कि एक आक्रमणकारी के पक्ष में हिंदू और मुसलमान दोनों प्रार्थना करते हैं।

एर्दोगन की महत्वाकांक्षाएं और मुस्लिम दुनिया में नेतृत्व की चाह

भारत से रिश्तों में खटास के बाद तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन का ध्यान मुस्लिम दुनिया में अपनी स्थिति मजबूत करने की ओर गया। उन्होंने कई बार खुद को इस्लामी दुनिया का नेता सिद्ध करने की कोशिश की। कभी उन्होंने कतर के समर्थन में सऊदी अरब को चुनौती दी, तो कभी गाजा के लिए मानवीय सहायता भेजी। उन्होंने हागिया सोफिया को मस्जिद घोषित कर दिया और मुसलमानों के मानवाधिकार के मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाया।

व्यापारिक असंतुलन और भारत की बदलती विदेश नीति

भारत और तुर्की के बीच व्यापारिक असंतुलन भी विवाद का एक बड़ा कारण रहा है। भारत तुर्की को अधिक वस्तुएं निर्यात करता है और आयात कम करता है। तुर्की चाहता है कि भारत उसे अधिक आयात की अनुमति दे और मिडल ईस्ट में संयुक्त परियोजनाओं पर सहयोग करे। लेकिन भारत ने परमाणु ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में भी तुर्की की तकनीकी मांगों को ठुकरा दिया। तुर्की थोरियम आधारित न्यूक्लियर पावर में भारत से मदद चाहता था, लेकिन भारत ने इससे इंकार कर दिया। एर्दोगन 2017 और 2018 में भारत आए थे, लेकिन कोई ठोस समझौता न हो पाने पर वे नाखुश होकर लौटे। इसके बाद उन्होंने भारत के साथ रिश्तों को ‘असफल उम्मीद’ मान लिया।


भारत की उभरती ताकत और तुर्की की परेशानी

आज भारत की वैश्विक भूमिका बढ़ती जा रही है। उसकी नजदीकी अमेरिका, इज़राइल, सऊदी अरब और यूएई जैसे देशों के साथ मजबूत हुई है। यह बात तुर्की के लिए असहज करने वाली है। भारत की वैश्विक स्तर पर स्वीकार्यता और रणनीतिक ताकत से तुर्की बार-बार कश्मीर मुद्दे को उठाकर दबाव बनाने की कोशिश करता है। भारत और तुर्की के बीच संबंधों की जटिलता सिर्फ आज की राजनीति में नहीं बल्कि गहरे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और कूटनीतिक अनुभवों में छिपी हुई है। जब-जब भारत और पाकिस्तान के बीच कोई घटनाक्रम होता है, तुर्की का झुकाव साफ तौर पर पाकिस्तान की ओर दिखाई देता है। एर्दोगन का लक्ष्य मुस्लिम दुनिया में नेतृत्व पाना है। भारत की विदेश नीति की मजबूती और उसके बदलते रुख ने तुर्की को चौंकाया है। इस सबके बीच, भविष्य के भारत-तुर्की संबंध कैसे आकार लेंगे, यह अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों और परस्पर नीतियों पर निर्भर करेगा।

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