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Bharat Ka Itihas: किन शासकों के इतिहास में दर्ज हैं ये डरावने किस्से
Bharat Ka Darawna Itihas: आइए तथ्यों के साथ जानें इंसानी खोपड़ियों से मीनार बनाने की घटनाएं, इनके पीछे का कारण, घटनाओं की तथ्यात्मक जानकारी और इस पर इतिहासकारों की राय के बारे में विस्तार से।
Bharat Ka Darawna Itihas (Image Credit-Social Media)
Bharat Ka Darawna Itihas: इतिहास में युद्ध केवल जमीन और ताकत के लिए नहीं लड़े जाते थे, बल्कि उन युद्धों के पीछे अक्सर एक संदेश देने की मंशा भी छिपी होती थी। यह संदेश होता था - खौफ का, अधीनता का और सत्ता के आतंक का। ऐसे ही संदेशों के लिए कई बार युद्ध में फतह हासिल करने वाली सेनाओं ने मारे गए दुश्मनों की खोपड़ियों से मीनारें बनाई। यह परंपरा केवल एशिया या भारत तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह दुनिया के कई हिस्सों में देखी गई। आइए तथ्यों के साथ जानेंगे इंसानी खोपड़ियों से मीनार बनाने की घटनाएं, इनके पीछे का कारण, घटनाओं की तथ्यात्मक जानकारी और इस पर इतिहासकारों की राय के बारे में विस्तार से -
तैमूर और खोपड़ियों की मीनारें - मध्यकाल का आतंक
मध्यकालीन इतिहास में तैमूर या तिमूरलंग का नाम अत्यंत क्रूर शासक के तौर पर लिया जाता है। 14वीं सदी में मध्य एशिया से उठे तैमूर ने भारत समेत कई देशों में अपने आतंक की छाप छोड़ी। 1398 में जब तैमूर ने दिल्ली पर हमला किया, तो उसके सैनिकों ने शहर में नरसंहार मचाया।
इतिहासकार फिरोज शाह और याह्या बिन अहमद सरहिंदी के अनुसार, तैमूर ने दिल्ली में लगभग एक लाख लोगों का कत्ल करवाया और उनके कटे हुए सिरों से मीनारें बनवाईं। यह जानकारी तैमूर की आत्मकथा 'तारीख-ए-तैमूरी' और 'तारीख-ए-फिरोजशाही' में मिलती है।
दिल्ली में तैमूर द्वारा निर्मित विशिष्ट स्कल टॉवर मूल रूप से चोर मीनार माना जाता है, जो वर्तमान में हौज़ खास एंक्लेव, दक्षिणी दिल्ली में स्थित है। यह 13वीं सदी के दौर का एक प्राचीन मीनार है जिसमें ऊपर की ओर लगभग 225 छेद हैं जहां अपराधियों या दुश्मनों के सिरों को प्रदर्शित करने हेतु लगाया जाता था ।
यहां ये जानना रोचक है कि इसे ‘thieves’ टॉवर’ या चोर मीनार इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें अपराधियों के सिरों को छेदों में स्थापित किया जाता था।
हौज़ खास मेट्रो स्टेशन के बहुत पास, ऐतिहासिक हौज़ खास संग्रहालय परिसर (Hauz Khas Village) में स्थित यह एक ऐतिहासिक स्मारक के रूप में संरक्षित है और पर्यटकों व इतिहास प्रेमियों के लिए खुला है।
इतिहासकार हेरोल्ड लैम्ब अपनी किताब 'Tamerlane: The Earth Shaker' (1928) में लिखते हैं कि, तैमूर ने कंधार, इस्फहान, बगदाद और दिल्ली में इस तरह की मीनारें बनवाईं। इसके पीछे उसका मकसद था विरोध करने वाले शहरों में भय पैदा करना ताकि वे बिना संघर्ष के आत्मसमर्पण कर दें।
पानीपत की पहली लड़ाई के और बाबर द्वारा मानव खोपड़ी की मीनारों का निर्माण
मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर ने 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई के बाद इब्राहिम लोदी की सेना के हजारों सैनिकों की हत्या करवाई और उनकी खोपड़ियों से मीनारें बनवाईं। यह विवरण बाबर की आत्मकथा 'बाबरनामा' में दर्ज है। जिसमें बाबर ने स्वयं लिखा है कि उसने विरोधियों को सबक सिखाने के उद्देश्य से ऐसा किया।
इतिहासकार आर.सी. मजूमदार अपनी प्रसिद्ध कृति 'An Advanced History of India' में लिखते हैं कि, बाबर मध्य एशिया की मंगोल परंपरा से प्रेरित था। जहां दुश्मनों की खोपड़ियों से मीनारें बनाना शक्ति प्रदर्शन का सामान्य तरीका था।
औरंगज़ेब और खोपड़ियों की मीनार-मिथक या ऐतिहासिक सच्चाई?
औरंगज़ेब का नाम अक्सर इस विषय में उछाला जाता है, लेकिन उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाण इसके पक्ष में नहीं हैं। इतिहासकार सतीश चंद्र अपनी किताब 'Medieval India: From Sultanat to the Mughals' (Volume II) में औरंगज़ेब के शासनकाल की कठोर धार्मिक नीतियों और युद्ध अभियानों का वर्णन करते हैं, लेकिन खोपड़ियों की मीनार बनाने का कोई उल्लेख नहीं करते।
इरफान हबीब भी अपनी किताब 'Essays in Indian History' में स्पष्ट करते हैं कि औरंगज़ेब के शासन में धार्मिक कट्टरता और कर व्यवस्था के दमनकारी पहलुओं का वर्णन तो मिलता है, परंतु खोपड़ियों से मीनार बनवाने जैसी घटनाओं का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है।यह धारणा लोककथाओं और अंग्रेजों के औपनिवेशिक इतिहासकारों की अतिशयोक्तिपूर्ण व्याख्याओं से बनी प्रतीत होती है।
व्लाद द इंपेलर (ड्रैकुला) - यूरोप का आतंक का प्रतीक
15वीं सदी में वालाचिया (वर्तमान रोमानिया) के शासक व्लाद तृतीय, जिसे व्लाद द इंपेलर या ड्रैकुला कहा जाता है। जिसने अपने दुश्मनों को न केवल मारा, बल्कि उनके शवों को भाले में गाड़कर और खोपड़ियों को प्रदर्शन के लिए रखकर इंपेलमेंट फॉरेस्ट बना दिया। यानी भाले पर चढ़ाए गए लाशों का जंगल।
यह उस भयानक घटना को कहते हैं जब 1462 में व्लाद ड्रैकुला ने तुर्की सेना के हजारों सैनिकों को पकड़कर मार डाला और उनकी लाशों को लकड़ी के लंबे भालों पर गाड़ दिया।
इन लाशों को इस तरह से भालों पर टांग दिया गया था कि देखने पर पूरा इलाका 'भाले पर टंगी लाशों का जंगल' जैसा लग रहा था।
इतिहासकार राल्फ फ्लोरेस्कु और रेमंड मैकनेली ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'In Search of Dracula' में लिखा है कि व्लाद ने तुर्की सेना के हजारों सैनिकों की लाशों का इंपेलमेंट फॉरेस्ट बना दिया था, जो यूरोप के इतिहास में भय और सत्ता की राजनीति का उदाहरण बना।
चंगेज खान और निशापुर का नरसंहार - मंगोल आतंक का प्रतीक
निशापुर के युद्ध में चंगेज खान की सेना ने निशापुर शहर के लाखों लोगों का कत्ल कर उनके सिरों से मीनारें बनवाईं। यह इतिहास की सबसे वीभत्स घटनाओं में से एक मानी जाती है।
सन् 1221 ईस्वी में मंगोल सेनाओं ने निशापुर (वर्तमान ईरान) पर आक्रमण किया। निशापुर खुरासान क्षेत्र का प्रमुख नगर था और सांस्कृतिक व व्यापारिक केंद्र भी। युद्ध के दौरान चंगेज खान के दामाद तोघचार की मौत निशापुर में हो गई, जिससे चंगेज खान बुरी तरह क्रोधित हो गया।
इतिहासकार जैक वेदरलैंड (Jack Weatherford) अपनी प्रसिद्ध किताब 'Genghis Khan and the Making of the Modern World' (2004) में लिखते हैं कि, 'तोघचार की मृत्यु के बाद, चंगेज खान ने निशापुर के संपूर्ण पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को मारने का आदेश दिया। सेना ने शहर को तहस-नहस कर दिया और लाखों निवासियों का सिर काटकर उससे मीनारें बनाईं।'
मंगोल इतिहासकार आतामलिक जुवैनी (Ata-Malik Juvayni), जिन्होंने मंगोलों के अधीन रहते हुए 'The History of the World Conqueror' लिखी, उन्होंने भी पुष्टि की कि निशापुर के कत्लेआम में लगभग 17 लाख लोग मारे गए थे। हालांकि आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि यह संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती है, लेकिन लाखों की संख्या में हत्या को वे भी स्वीकारते हैं।
मिशेल होप्स (Michel Hoops) ने भी अपनी किताब में इसे 'मंगोल आतंक की चरम पराकाष्ठा' कहा है।
इतिहासकारों की पुष्टि के साथ ही निशापुर का नरसंहार इतिहास की उन घटनाओं में से एक है, जिसने यह साबित किया कि चंगेज खान का आतंक केवल युद्ध विजय तक सीमित नहीं था, बल्कि मनोवैज्ञानिक भय और प्रतिशोध उसकी रणनीति का अभिन्न हिस्सा था। खोपड़ियों से बनाई गई मीनारें उनके इस आतंक की स्थायी निशानियां बन गईं।
ओटोमन साम्राज्य और बेलग्रेड का स्कल टॉवर
1809 में सर्बिया के पहले विद्रोह के दौरान जब सर्बियाई विद्रोहियों ने तुर्क सेना के खिलाफ संघर्ष किया, तो ओटोमन सेनाओं ने विद्रोह को कुचलने के बाद मारे गए 952 विद्रोहियों की खोपड़ियों से एक मीनार बनाई। यह मीनार बेलग्रेड के पास चेले कुला (Cele Kula) यानी खोपड़ियों की मीनार के नाम से जानी जाती है और आज भी एक ऐतिहासिक स्मारक के रूप में मौजूद है।
बेलग्रेड हिस्टोरिकल म्यूजियम में इस घटना का दस्तावेजीकरण किया गया है और यह मीनार आज भी क्रूर इतिहास की गवाही देती है।
इतिहासकारों की राय और साक्ष्य आधारित निष्कर्ष
इतिहासकारों का मानना है कि इंसानी खोपड़ियों से मीनार बनाना सत्ता के भय और प्रतिरोध को दबाने का प्रतीक था।
हेरोल्ड लैम्ब, आर.सी. मजूमदार, सतीश चंद्र, इरफान हबीब, जैक वेदरलैंड, मिशेल होप्स और राल्फ फ्लोरेस्कु जैसे विद्वानों की पुस्तकों से यह स्पष्ट होता है कि, यह परंपरा मध्य एशिया, यूरोप और ओटोमन साम्राज्य में भय पैदा करने की एक विधि थी।
भारतीय उपमहाद्वीप में यह परंपरा तैमूर और बाबर के समय प्रमाणित रूप में मौजूद रही, लेकिन औरंगज़ेब के नाम पर ऐसा कोई ऐतिहासिक आधार नहीं मिलता है। आज ये घटनाएं मानवता के खिलाफ अपराध मानी जाती हैं। सर्बिया में मौजूद Skull Tower अब एक स्मारक है और युद्ध के भयावह अतीत की याद दिलाता है। इंसानी खोपड़ियों से मीनारें बनाना मानव इतिहास का सबसे काला अध्याय है। चाहे वह तैमूर, बाबर, चंगेज खान, व्लाद द इंपेलर या ओटोमन साम्राज्य हो। इन सभी ने युद्ध में मानवता की सीमाएं लांघीं। इतिहासकारों और अकादमिक शोधकर्ताओं का मानना है कि ये घटनाएं सत्ता के आतंक और विरोध को कुचलने का साधन थीं।
यह भी स्पष्ट है कि इतिहास से जुड़े हर ऐतिहासिक तथ्य को प्रमाणित स्रोतों से ही स्वीकार करना चाहिए, लोककथाओं और अफवाहों पर नहीं।
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