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Pandharpur Wari Ka Itihas: महाराष्ट्र की आठसौ साल पुराणी परंपरा, जानिए पंढरपुर वारी की ऐतिहासिक गाथा
Pandharpur Wari Ka Itihas: पंढरपुर वारी महाराष्ट्र की सबसे प्रसिद्ध और भव्य धार्मिक यात्राओं में से एक है यह परंपरा लगभग 800 वर्षों से निरंतर चली आ रही है।
History Of Pandharpur Wari Interesting Facts About Pandharpur Wari Ka Itihas
History Of Pandharpur Wari: भारत एक ऐसा देश है जहाँ धर्म केवल आस्था नहीं बल्कि जनजीवन की धड़कन है। इसी धार्मिक चेतना की एक जीवंत मिसाल है महाराष्ट्र की 'पंढरपुर वारी' - यह केवल एक पदयात्रा नहीं बल्कि भाव, भक्ति और बंधुत्व का महापर्व है। हर वर्ष आषाढ़ माह में लाखों वारकरी, संत तुकाराम और ज्ञानेश्वर की पालखी के साथ विट्ठल रुखमिणी के चरणों की ओर निकलते हैं। यह यात्रा आस्था की शक्ति, सामाजिक समरसता, सेवा, और संत परंपरा की अमर धारा को न केवल दर्शाती है बल्कि उसे जीती भी है। यह वारी एक चलती-फिरती संस्कृति है, जहाँ हर कदम श्रद्धा से भरा होता है और हर पड़ाव आत्मिक जागरण का संदेश देता है। आइए इस अद्वितीय परंपरा और उसके सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक आयामों को करीब से जानें।
वारी क्या है?
'वारी' का अर्थ है नियमपूर्वक तीर्थयात्रा करना और जो भक्त हर साल पंढरपुर की यात्रा करते हैं, उन्हें 'वारकरी' कहा जाता है।महाराष्ट्र की विख्यात ‘पंढरपुर वारी’ - एक भव्य वार्षिक तीर्थयात्रा जिसमें लाखों भक्त पैदल चलते हुए भगवान विट्ठल (विठोबा) के पवित्र पंढरपुर मंदिर की ओर अग्रसर होते हैं। इस वारी की सबसे खास बात हैं दो ऐतिहासिक पालखियाँ - संत ज्ञानेश्वर महाराज की पालखी, जो पुणे जिले के अलंदी से निकलती है और संत तुकाराम महाराज की पालखी जो देहू से आरंभ होती है। ये पालखियाँ कई दिनों तक महाराष्ट्र के गाँवों, कस्बों और शहरों से गुजरती हुई भक्तों को आध्यात्मिक ऊर्जा और सामाजिक एकता से जोड़ती हैं। यात्रा का पावन समापन आषाढ़ी एकादशी के दिन पंढरपुर में होता है जहाँ भक्तगण विट्ठल-रुखमिणी के दर्शन कर अपनी साधना को पूर्णता देते हैं।
आषाढ़ी एकादशी का पौराणिक इतिहास
पुराणों में वर्णित एक प्राचीन कथा के अनुसार सूर्यवंश के प्रतापी राजा मांधाता के राज्य में एक बार भीषण अकाल और सूखा पड़ गया। यज्ञ और अनुष्ठान भी व्यर्थ सिद्ध हुए, जिससे प्रजा अत्यंत पीड़ित हो उठी। संकट के समाधान हेतु राजा ने महान ऋषि अंगिरा से मार्गदर्शन लिया। महर्षि ने उन्हें आषाढ़ शुक्ल एकादशी जिसे देवशयनी एकादशी कहा जाता है, का व्रत विधिपूर्वक करने की सलाह दी। राजा मांधाता ने पूरे श्रद्धा भाव से उपवास, पूजा और रात्रि जागरण किया। इसके फलस्वरूप राज्य में वर्षा हुई और जीवन पुनः हरा-भरा हो गया। इस कथा से देवशयनी एकादशी के महात्म्य का गहरा संकेत मिलता है जिसे पद्म पुराण, भविष्य पुराण और श्रीमद्भागवत महापुराण जैसे ग्रंथों में उल्लेखित किया गया है। इस दिन भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं और चार माह पश्चात कार्तिक शुक्ल एकादशी को पुनः जागते हैं।
पंढरपुर - एक तीर्थधाम
पंढरपुर धाम जिसे 'दक्षिणा का काशी' कहा जाता है। पंढरपुर, महाराष्ट्र के सोलापुर ज़िले में स्थित एक अत्यंत पवित्र तीर्थस्थल है जिसे भक्तगण ‘विठोबा नगरी’ के नाम से भी जानते हैं। यह नगर चंद्रभागा (भीमा) नदी के किनारे बसा है जहाँ भगवान विट्ठल (विठोबा) और देवी रुखमिणी का प्राचीन मंदिर श्रद्धालुओं के लिए आध्यात्मिक केंद्र बना हुआ है। भगवान विट्ठल को भगवान श्रीकृष्ण का ही एक रूप माना जाता है और उन्हें वैष्णव भक्ति परंपरा में अत्यंत श्रद्धा से पूजा जाता है। उनकी मूर्ति की सबसे खास बात यह है कि वे दोनों हाथ कमर पर रखकर खड़े हैं, मानो अपने भक्तों की प्रतीक्षा कर रहे हों। यही भाव उन्हें भक्तों के और भी निकट लाता है। पंढरपुर न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि यह वारकरी संप्रदाय और संत परंपरा की गहराइयों से भी जुड़ा हुआ है।
वारी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
संत ज्ञानेश्वर महाराज (13वीं सदी) - संत ज्ञानेश्वर महाराज 13वीं सदी के महान संत, कवि और विचारक थे, जिन्होंने अपने अल्प जीवन में ही भक्ति आंदोलन को गहरी दिशा और गति दी। 1275 में जन्मे ज्ञानेश्वर ने मात्र 21 वर्ष की उम्र में समाधि ले ली। लेकिन इस छोटे से जीवनकाल में उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान को सरल भाषा में आमजन तक पहुँचाया और भक्ति को जन-आंदोलन बना दिया। उन्होंने संस्कृत में रचित भगवद्गीता का मराठी में सहज और सरस अनुवाद किया जो ‘ज्ञानेश्वरी’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह ग्रंथ आज भी लाखों लोगों के लिए आध्यात्मिक प्रकाशपुंज है। पुणे के पास अलंदी में स्थित उनकी समाधि स्थल से ही हर वर्ष उनकी पालखी यात्रा आरंभ होती है। जो पंढरपुर वारी का एक प्रमुख और पवित्र भाग मानी जाती है।
संत तुकाराम महाराज (17वीं सदी) - संत तुकाराम महाराज 17वीं सदी के महान भक्ति संत थे जिनका जन्म पुणे के निकट देहू गाँव में हुआ था। उन्होंने भक्ति मार्ग को समाज में पुनर्जीवित किया और अपने अमर 'अभंगों' के माध्यम से लोगों के हृदयों में भगवान विट्ठल के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना जगाई। उनके अभंग आज भी वारकरी संप्रदाय की प्रमुख आत्मा माने जाते हैं, जिन्हें यात्रा के दौरान भक्त सामूहिक रूप से गाते हैं। तुकाराम महाराज ने सामाजिक भेदभाव, जात-पात और पाखंड का खुलकर विरोध किया और जीवन में भक्ति, प्रेम और समानता को सर्वोच्च स्थान दिया। हर वर्ष देहू से उनकी पालखी पंढरपुर की ओर प्रस्थान करती है, जो पंढरपुर वारी की सबसे प्रमुख और भावनात्मक रूप से जुड़ी परंपराओं में से एक है।
पालखी यात्रा की शुरुआत (1820 के बाद) - वारी परंपरा सदियों से संतों और भक्तों के बीच मौखिक और सामूहिक रूप में जीवित रही है लेकिन इसे एक संगठित और वार्षिक स्वरूप देने का श्रेय ह.भ.प. हर्षे गुरुजी को जाता है। माना जाता है कि सन 1820 के आसपास उन्होंने संत ज्ञानेश्वर महाराज की पालखी यात्रा की विधिवत व्यवस्था शुरू की, जिससे यह एक स्थायी और अनुशासित परंपरा बन गई। कुछ ऐतिहासिक स्रोतों में उन्हें ‘ह.भ.प. शेखरशास्त्री हर्षे’ या ‘ह.भ.प. हर्षे महाराज’ के नाम से जाना जाता है और कहा जाता है कि वे हैदराबाद रियासत के दीवान भी थे। उनके प्रयासों से यह पदयात्रा केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं रही बल्कि सामाजिक एकता, श्रद्धा और समर्पण का प्रतीक बन गई।
वारी यात्रा का मार्ग और प्रक्रिया
पंढरपुर वारी यात्रा हर वर्ष आषाढ़ मास (जून-जुलाई) के दौरान आरंभ होती है और वारकरी संप्रदाय के सदस्य 21 दिनों तक लगभग 250 किमी की पदयात्रा करते हैं, जो अलंदी (संत ज्ञानेश्वर) और देहू (संत तुकाराम) से शुरू होकर पंढरपुर में समाप्त होती है। यह यात्रा संत तुकाराम महाराज की पालखी देहू से और संत ज्ञानेश्वर महाराज की पालखी अलंदी से शुरू होकर पुणे, सासवड, बारामती, इंदापुर, अकलुज जैसे अनेक धार्मिक स्थलों से गुजरती हुई सोलापुर जिले में पंढरपुर तक पहुँचती है। इस यात्रा के दौरान कई विश्राम स्थल होते हैं, जहाँ भक्त रात्रि विश्राम करते हैं और भजन, कीर्तन, प्रवचन, संतवाणी, सामूहिक भोजन जैसी धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेते हैं। यात्रा का एक विशेष और पवित्र चरण तब आता है जब पंढरपुर पहुँचने पर श्रद्धालु चंद्रभागा नदी में स्नान कर आत्मशुद्धि का अनुभव करते हैं। इसके बाद विट्ठल रुखमिणी मंदिर में आषाढ़ी एकादशी के दिन भगवान के दर्शन के साथ यह यात्रा अपने आध्यात्मिक शिखर पर पहुँचती है।
वारी के मुख्य घट
पालखी (पालकी) - पंढरपुर वारी की सबसे प्रमुख विशेषता पालखी परंपरा है जिसमें संतों की पवित्र पादुकाएँ (चरण पादुका) सम्मानपूर्वक रखी जाती हैं। ये पालखियाँ सुंदर रथों या झांकियों में सजाई जाती हैं और भक्तों की श्रद्धा के साथ यात्रा करती हैं। यह परंपरा वारी यात्रा का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक केंद्रबिंदु मानी जाती है।
वारकरी संप्रदाय - वारकरी संप्रदाय विट्ठल भक्ति पर आधारित एक संतपरंपरा है, जिसके अनुयायी ‘वारकरी’ कहलाते हैं। ये भक्त पूरे वर्ष साधना और भक्ति में लीन रहते हैं और आषाढ़ मास में वारी यात्रा में उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं। उनका विशेष वेश होता है सिर पर सफेद टोपी, गले में तुलसी की माला, हाथ में झांझ या वीणा, और मुख से निकलते हैं जयघोष: "ज्ञानोबा माऊली तुकाराम!"
दिंडी - ‘दिंडी’ उन छोटे-छोटे जत्थों को कहा जाता है, जिनमें भक्त अनुशासन, भक्ति और प्रेम के साथ संगठित रूप में चलते हैं। हर दिंडी का एक प्रमुख होता है, जो उसकी पूरी व्यवस्था और अनुशासन को बनाए रखता है। दिंडी यात्रा वारी को व्यवस्थित और सामूहिक अनुभव का स्वरूप देती है।
लाखों की संख्या में वारकरी होते है शामिल
पंढरपुर वारी में हर वर्ष भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है, जो इस परंपरा की व्यापक लोकप्रियता और आध्यात्मिक प्रभाव को दर्शाती है। आषाढ़ी वारी, कार्तिकी वारी और माघी वारी जैसे अवसरों पर लाखों वारकरी पंढरपुर में एकत्र होते हैं। विशेष रूप से आषाढ़ी वारी में करीब 10 लाख श्रद्धालु विट्ठल दर्शन के लिए पंढरपुर पहुँचते हैं जबकि 2024 की माघी वारी में भी 4 लाख से अधिक भक्तों ने सहभागिता की थी। संत ज्ञानेश्वर महाराज की पालखी यात्रा में ही लगभग 6 लाख वारकरी पैदल चलकर इस भक्ति पर्व को जीवंत बनाते हैं। यह संख्या इस यात्रा की गहराई और जनभावना की सच्ची झलक है।
प्रशासनिक और सामाजिक व्यवस्थाएँ
पंढरपुर वारी जैसे विशाल आयोजन को सफल बनाने के लिए महाराष्ट्र राज्य सरकार और प्रशासन व्यापक स्तर पर व्यवस्थाएँ करते हैं। लाखों वारकरियों की सुचारु यात्रा सुनिश्चित करने के लिए अतिरिक्त परिवहन सेवाएँ, स्वास्थ्य केंद्र, भोजन और जल की आपूर्ति, साथ ही सुरक्षा के विशेष प्रबंध किए जाते हैं। यात्रा मार्ग और पंढरपुर में भजन-कीर्तन, प्रवचन, सामूहिक भोजन, चिकित्सा सुविधा और स्वच्छता के लिए अलग-अलग टीमें सक्रिय रहती हैं। यह समन्वित प्रयास वारी को न केवल धार्मिक, बल्कि एक संगठित सामाजिक उत्सव के रूप में भी प्रस्तुत करता है।
मुख्यमंत्री करते है पूजा
पंढरपुर वारी के समापन परवि शेष रूप से आषाढ़ी एकादशी के दिन, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री द्वारा विठ्ठल-रुक्मिणी मंदिर में की जाने वाली शासकीय पूजा एक महत्वपूर्ण परंपरा बन चुकी है। हर वर्ष मुख्यमंत्री अपने परिवार सहित इस महापूजा में भाग लेते हैं जो वारी की धार्मिक और सामाजिक महत्ता को दर्शाती है। मुख्यमंत्री की उपस्थिति वारी की आधिकारिक मान्यता, जनसहभागिता और सांस्कृतिक पहचान को सशक्त करती है।
वारी का सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व
पंढरपुर वारी केवल एक धार्मिक यात्रा नहीं बल्कि यह महाराष्ट्र की सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना का अद्भुत संगम है। यात्रा के दौरान गाए जाने वाले मराठी अभंग और लोकगीत न केवल भक्ति का वातावरण रचते हैं, बल्कि संत साहित्य और लोकसंगीत की परंपरा को भी जीवित रखते हैं। वारी का सबसे सुंदर पक्ष यह है कि यह जाति, धर्म, वर्ग और आर्थिक स्थिति जैसे भेदभावों को मिटाकर सभी को 'वारकरी' के रूप में एक समान मंच पर लाती है । जहाँ न कोई ऊँचा है, न कोई नीचा। यह यात्रा सेवा और समर्पण की सजीव मिसाल भी है जहाँ हजारों स्वयंसेवक नि:स्वार्थ भाव से भोजन, पानी, चिकित्सा और विश्राम की व्यवस्था करते हैं। हाल के वर्षों में वारी ने पर्यावरण के प्रति भी सजग रुख अपनाया है । स्वच्छता अभियानों, प्लास्टिक मुक्त यात्रा, और वृक्षारोपण जैसे कार्यों में वारकरी संप्रदाय और स्वयंसेवी संगठन पूरी सक्रियता से भाग ले रहे हैं। पंढरपुर की यह ऐतिहासिक वारी अब एक आध्यात्मिक आंदोलन से बढ़कर सामाजिक और पर्यावरणीय चेतना का प्रतीक बन गई है।
वारी और आधुनिक युग
पंढरपुर वारी आज केवल महाराष्ट्र की सीमाओं तक सीमित नहीं रही बल्कि इसकी ख्याति देश-विदेश तक फैल चुकी है। सोशल मीडिया, लाइव टेलीकास्ट और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से वारी की भक्ति, उत्साह और सांस्कृतिक परंपरा को वैश्विक स्तर पर पहचान मिली है। खास बात यह है कि अब बड़ी संख्या में युवा भी इस यात्रा में सम्मिलित हो रहे हैं जिससे इसकी ऊर्जा, भागीदारी और सामाजिक प्रभाव पहले से कहीं अधिक व्यापक हो गया है। हालांकि कोविड-19 महामारी के दौरान 2020 और 2021 में यह यात्रा स्थगित कर दी गई थी लेकिन उस समय डिजिटल माध्यमों के ज़रिए कीर्तन, प्रवचन और संतवाणी को लोगों तक पहुँचाकर वारी की आत्मा को जीवित रखा गया। 2022 से यात्रा फिर से शुरू हुई और 2023 व 2024 में लाखों श्रद्धालुओं की भागीदारी के साथ यह आयोजन अपने पारंपरिक और भव्य रूप में लौटा, जिसने एक बार फिर वारी की शक्ति और सामाजिक एकजुटता का परिचय दिया।
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