Famous Indian King Story: जब एक भारतीय राजा बना युद्धग्रस्त बच्चों का मसीहा, महाराजा दिग्विजय सिंह की करुणामयी गाथा

Famous Indian King Story: न्यूजट्रैक का यह लेख महाराजा जाम साहब दिग्विजय सिंह जी की उस ऐतिहासिक पहल को उजागर करता है...

Shivani Jawanjal
Published on: 25 July 2025 12:33 PM IST
Famous Indian King Maharaja Jam Saheb Shri Digvijaysinhji Jadeja History
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Famous Indian King Maharaja Jam Saheb Shri Digvijaysinhji Jadeja History

Famous Indian King Digvijaysinhji Jadeja Story: इतिहास ऐसे महामानवों की गाथाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने सत्ता से अधिक मानवता को प्राथमिकता दी। भारतवर्ष की धरती पर ऐसे अनेक रत्नों ने जन्म लिया, जिन्होंने न केवल अपने प्रजा के हित में कार्य किया बल्कि संकट में पड़ी मानव जाति के लिए भी करुणा और सेवा का परिचय दिया। इन्हीं में एक अनुपम उदाहरण हैं - महाराजा जाम साहब दिग्विजय सिंह जी। गुजरात के जामनगर (तत्कालीन नवनगर) के यह शासक केवल एक न्यायप्रिय और प्रजावत्सल राजा नहीं थे बल्कि विश्व मानवीयता के प्रतीक बनकर उभरे। द्वितीय विश्वयुद्ध के भयावह दौर में जब हजारों पोलिश नागरिक विस्थापन और मृत्यु के संकट से जूझ रहे थे। तब महाराजा ने निस्वार्थ भाव से सैकड़ों पोलिश बच्चों को भारत बुलाकर उन्हें न केवल आश्रय दिया, बल्कि वात्सल्य, शिक्षा और सम्मान भी प्रदान किया। आज जब पूरी दुनिया मानव अधिकारों की बात करती है तब महाराजा दिग्विजय सिंह जी का यह साहसी और करुणामयी निर्णय एक अमर प्रेरणा बनकर सामने आता है । जो बताता है कि सच्चा शासक वही होता है, जो अपने देश की सीमाओं से आगे बढ़कर संपूर्ण मानवता को अपनाए।

महाराजा जाम साहब श्री दिग्विजय सिंह जी का प्रारंभिक जीवन


महाराजा जाम साहब श्री दिग्विजय सिंहजी(Maharaja Jam Saheb Shri Digvijaysinhji Jadeja) का जन्म 18 सितंबर 1895 को काठियावाड़ की समृद्ध रियासत नवनगर (आज का जामनगर, गुजरात) में हुआ था। वे महाराजा रणमलजी के पुत्र थे और बचपन से ही उन्होंने न केवल पारंपरिक शिक्षा बल्कि सैन्य प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। 1933 में उन्होंने नवनगर की राजगद्दी संभाली और शासन को सेवा, सुधार और सांस्कृतिक उन्नयन का माध्यम बनाया। महाराजा दिग्विजय सिंह जी एक दूरदर्शी प्रशासक थे जिन्होंने अपने शासनकाल में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, कला और संस्कृति को नया जीवन दिया। वे खेलों को केवल मनोरंजन नहीं बल्कि समाज सुधार का उपकरण मानते थे। इसी सोच के चलते वे भारतीय हॉकी महासंघ के पहले अध्यक्ष बने और भारतीय खेलों को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

द्वितीय विश्वयुद्ध और पोलिश बच्चों की कहानी

यह वह समय था जब द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) अपने चरम पर था। हिटलर की नाजी सेना ने पोलैंड पर हमला कर दिया और लाखों पोलिश नागरिकों को या तो मार डाला गया या उन्हें कैद में डाल दिया गया।1940 में जब सोवियत संघ ने पूर्वी पोलैंड पर कब्ज़ा किया तो हज़ारों पोलिश नागरिकों को साइबेरिया और अन्य कठोर श्रम शिविरों में भेज दिया गया। इसके बाद 1941 में जब सोवियत संघ और मित्र राष्ट्रों के बीच एक समझौता हुआ तो कुछ पोलिश बंदियों को रिहाई मिली और वे ईरान के रास्ते भारत पहुंचे। इन शरणार्थियों में बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे थे, जो न केवल शारीरिक रूप से दुर्बल हो चुके थे बल्कि युद्ध की यातनाओं से मानसिक रूप से भी बुरी तरह टूटे हुए थे। उस कठिन समय में जब अधिकांश देशों ने इन्हें शरण देने से इनकार कर दिया तब महाराजा दिग्विजय सिंह जी ने मानवीयता का अद्वितीय उदाहरण पेश किया। उन्होंने 1,000 से अधिक पोलिश बच्चों और कुछ महिलाओं को अपने राज्य जामनगर के बालाचड़ी गांव में आश्रय दिया। वहां उनके लिए भोजन, शिक्षा, चिकित्सा और संपूर्ण देखभाल की व्यवस्था की गई, मानो वे उनके अपने ही परिवार का हिस्सा हों।

मानवीय करुणा का प्रतीक बालाचड़ी शिविर


इस संकट के समय में महाराजा दिग्विजय सिंह ने पोलिश बच्चों के लिए किसी देवदूत के रूप में सामने आये। द्वितीय विश्व युद्ध के भयावह दौर में महाराजा दिग्विजय सिंह जी ने केवल शरण ही नहीं दी बल्कि पोलिश बच्चों के लिए जामनगर के निकट बालाचड़ी क्षेत्र में एक विशेष आवासीय शिविर का निर्माण करवाया। यह शिविर केवल रहने की जगह नहीं था बल्कि एक ऐसा सुरक्षित संसार था जहाँ बच्चों के संपूर्ण विकास का ध्यान रखा गया। शिविर में स्कूल, अस्पताल, खेल का मैदान, सांस्कृतिक गतिविधियों की जगह और स्वच्छ भोजन-पानी की उत्तम व्यवस्था थी। बच्चों की शिक्षा के लिए पोलैंड से पाठ्यपुस्तकें मंगाई गईं और उन्हें अपनी भाषा, परंपराएं और धार्मिक विश्वास बनाए रखने की पूरी स्वतंत्रता दी गई। वहां चर्च की व्यवस्था और धार्मिक आयोजनों को भी नियमित रूप से प्रोत्साहन मिला। महाराजा दिग्विजय सिंह जी इन बच्चों को केवल शरणार्थी नहीं बल्कि अपने परिवार का हिस्सा मानते थे। उन्होंने स्नेहपूर्वक कहा था "नवनगर की जनता मुझे बापू कहती है, आज से मैं तुम्हारा भी बापू हूँ।" यही भावना उनके पूरे कार्य में झलकती रही - इन बच्चों को उन्होंने केवल सुरक्षा नहीं बल्कि मान-सम्मान, शिक्षा और संस्कृति से भरपूर एक नया जीवन दिया।

नवनगर के देवदूत - पोलैंड की कृतज्ञता


महाराजा दिग्विजय सिंह जी के द्वारा किए गए अद्वितीय मानवीय कार्यों की गूंज आज भी पोलैंड की धरती पर सम्मान और श्रद्धा के साथ सुनाई देती है। उन्हें वहां 'Good Maharaja' और 'Guardian of the Polish Children' जैसे विशेषणों से पुकारा जाता है, जो उनके करुणामयी स्वभाव और साहसिक फैसलों का प्रतीक हैं। पोलैंड में उनके सम्मान में कई स्मारक बनाए गए हैं जिनमें राजधानी वारसा सहित विभिन्न शहरों में स्कूल, संस्थान और सड़कों के नाम उनके नाम पर रखे गए हैं और जिनमें 'The Good Maharaja’s School' एक प्रमुख उदाहरण है। उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए पोलैंड सरकार ने उन्हें वर्ष 2001 में मरणोपरांत "Commander's Cross of the Order of Merit of the Republic of Poland" जैसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत किया। साथ ही पोलैंड के डाक विभाग ने 2011 में उनकी स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया जो उन्हें एक अंतरराष्ट्रीय नायक के रूप में मान्यता देता है। वहां की नई पीढ़ियाँ आज भी स्कूलों में महाराजा की प्रेरणादायक गाथा पढ़ती हैं और उन्हें एक उद्धारकर्ता के रूप में स्मरण करती हैं । जो यह दिखाता है कि करुणा जब नेतृत्व से जुड़ती है तो वह इतिहास में अमर हो जाती है।

भारतीय इतिहास में दुर्लभ उदाहरण

महाराजा दिग्विजय सिंह जी का दृष्टिकोण उस युग में एक अद्वितीय मानवीय आदर्श प्रस्तुत करता है। जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अधिकांश राष्ट्र और शासक अपने राजनीतिक हितों और सीमाओं की रक्षा में उलझे हुए थे। उन्होंने मानवता को धर्म, जाति, राष्ट्र या भाषा से ऊपर रखा और यह सिद्ध किया कि पीड़ितों की सेवा ही सच्चा धर्म है। उनका यह विचार भारतीय संस्कृति की उस गहराई से जुड़ा है जिसमें "वसुधैव कुटुम्बकम्" और "सर्वे भवन्तु सुखिनः" जैसे सिद्धांत निहित हैं। जब उन्होंने पोलिश बच्चों को अपने राज्य में शरण दी तो उन्हें 'मेरे बच्चे' कहकर अपनाया, न कि किसी विदेशी के रूप में देखा। उन्होंने न केवल 'अतिथि देवो भवः' की भावना को साकार किया बल्कि शरणार्थियों को सम्मान, अपनापन और उनकी संस्कृति व धर्म के अनुरूप जीवन जीने की स्वतंत्रता भी प्रदान की। उनके लिए विशेष स्कूल, सामाजिक व्यवस्थाएं और सांस्कृतिक वातावरण की रचना की गई। जिससे वे अपनेपन के साथ एक सुरक्षित और गरिमामय जीवन जी सकें। महाराजा का यह दृष्टिकोण भारतीय मूल्यों का एक जीवंत उदाहरण है जो आज भी विश्व मानवता के लिए प्रेरणा है।

महाराजा दिग्विजय सिंह जी की बहुआयामी उपलब्धियाँ


भारतीय हॉकी महासंघ के अध्यक्ष (1937–1943) - महाराजा दिग्विजय सिंह जी न केवल एक कुशल शासक थे बल्कि भारतीय खेलों के प्रति भी उनका गहरा लगाव था। वे 1937 से 1943 तक भारतीय हॉकी महासंघ (Indian Hockey Federation) के अध्यक्ष रहे। उनके नेतृत्व में भारतीय हॉकी ने अपने स्वर्ण युग की शुरुआत की और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफलता प्राप्त की। उन्होंने हॉकी के साथ-साथ अन्य खेलों के राष्ट्रीय विकास में भी सक्रिय भूमिका निभाई, जिससे खेलों को समाज में प्रतिष्ठा मिली।

नवनगर में शिक्षा, स्वास्थ्य और जल परियोजनाएं - अपने शासनकाल के दौरान महाराजा ने शिक्षा और जनकल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। जामनगर में उनके प्रयासों से अग्रसेन विद्यालय, रोज गॉर्डन स्कूल जैसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान स्थापित हुए। साथ ही पुस्तकालयों, आधुनिक सिविल अस्पतालों और जल आपूर्ति परियोजनाओं की शुरुआत की गई, जिससे आमजन का जीवनस्तर बेहतर हुआ। उनका विकास मॉडल उस समय के लिए अत्यंत प्रगतिशील और जनमुखी था।

राष्ट्रवादी सोच और ब्रिटिश विरोधी रुख - हालांकि महाराजा दिग्विजय सिंह जी एक रियासत के शासक थे और प्रत्यक्ष राजनीतिक आंदोलनों में भाग नहीं ले सकते थे, फिर भी उनका दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से राष्ट्रवादी था। उन्होंने ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना की और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के प्रति सहानुभूति जताई। वे राजनीतिक मंचों पर जनहित की बात उठाते थे और ब्रिटिश सत्ता के अत्याचारों का विरोध करते थे। उनकी भूमिका एक संवेदनशील राष्ट्रभक्त शासक की थी, जो चुपचाप जनहित के लिए खड़ा रहा।

कला और संस्कृति के संरक्षक - महाराजा दिग्विजय सिंह जी एक प्रखर कला और संगीत प्रेमी थे। उनके संरक्षण में जामनगर में शास्त्रीय संगीत, चित्रकला, स्थापत्य और हस्तशिल्प को भरपूर प्रोत्साहन मिला। उनके प्रयासों से नवनगर को उस युग में एक सांस्कृतिक और खेलों के केंद्र के रूप में पहचान मिली। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि रियासत केवल शासन का केंद्र न हो, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक नगरी के रूप में विकसित हो।

निधन और विरासत


महाराजा दिग्विजय सिंह जी का निधन 3 फरवरी 1966 को हुआ। उनके जाने के बाद भी उनकी मानवीय विरासत आज भी लोगों के दिलों में जीवित है। भारत और पोलैंड के बीच सांस्कृतिक और मानवीय रिश्तों की नींव उन्होंने ही रखी थी।

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