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नाट्यकला के शिखर पुरुष: हबीब तनवीर
Habib Tanvir: हबीब तनवीर एक नाटककार, निर्देशक, अभिनेता और कला आंदोलनकारी थे।
Habib Tanvir (Image Credit-Social Media)
Habib Tanvi: हबीब तनवीर (1923-2009) भारतीय रंगमंच के उन महान दिग्गजों में से एक थे जिन्होंने अपनी कला के माध्यम से न केवल मनोरंजन किया, बल्कि समाज को सोचने पर भी मजबूर किया। वे एक नाटककार, निर्देशक, अभिनेता और कला आंदोलनकारी थे, जिनका योगदान भारतीय थिएटर के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। उनकी सबसे बड़ी पहचान थी – लोककला को आधुनिक रंगमंच से जोड़ना। उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोक कलाकारों के साथ मिलकर एक ऐसी अनूठी नाट्य शैली विकसित की जो अपनी सादगी, ईमानदारी और प्रभावशाली प्रस्तुति के लिए जानी जाती है। उनका रंगमंच केवल एक मंच नहीं था, बल्कि वह ग्रामीण भारत की आत्मा, उसकी पीड़ा और उसकी जीवंत संस्कृति का दर्पण था।
प्रारंभिक जीवन और कला यात्रा
हबीब तनवीर का जन्म 1923 में रायपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ था। उनकी शुरुआती शिक्षा रायपुर में हुई, जिसके बाद वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय चले गए। यहाँ उन्होंने उर्दू साहित्य में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसी दौरान उनकी रुचि थिएटर में बढ़ी और उन्होंने अभिनय करना शुरू किया। 1945 में वे बंबई (अब मुंबई) चले गए, जहाँ उन्होंने फ़िल्मों के लिए पटकथाएँ लिखीं और अभिनय भी किया। बंबई में रहते हुए भी उनकी असली रुचि रंगमंच में ही बनी रही।
1954 में, तनवीर उच्च शिक्षा के लिए लंदन चले गए, जहाँ उन्होंने रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स (RADA) में प्रशिक्षण लिया। इस दौरान उन्होंने पश्चिमी रंगमंच की तकनीकों को गहराई से समझा। लंदन में रहने के बाद, उन्होंने कुछ समय बर्लिन में भी बिताया, जहाँ वे प्रसिद्ध नाटककार बर्टोल्ट ब्रेख्त के काम से बहुत प्रभावित हुए। ब्रेख्त की नाट्य शैली – जिसमें सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को मंच पर लाया जाता है – का तनवीर पर गहरा प्रभाव पड़ा, और यह उनके बाद के नाटकों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
नया थिएटर की स्थापना और छत्तीसगढ़ी कलाकारों का उदय
1959 में, भारत लौटने के बाद, हबीब तनवीर ने अपनी पत्नी मोना के साथ मिलकर 'नया थिएटर' की स्थापना की। यह एक ऐतिहासिक कदम था जिसने भारतीय रंगमंच की दिशा बदल दी। 'नया थिएटर' का उद्देश्य था – शहरी दर्शकों के लिए लोककला को एक नए रूप में प्रस्तुत करना। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने छत्तीसगढ़ के गाँवों का दौरा किया और वहाँ के लोक कलाकारों से मिले। इन कलाकारों के पास औपचारिक नाट्य प्रशिक्षण नहीं था, लेकिन उनमें सहज अभिनय, गायन और नृत्य की अद्भुत प्रतिभा थी।
तनवीर ने इन कलाकारों को अपनी टीम में शामिल किया और उन्हें पश्चिमी रंगमंच की तकनीकों से परिचित कराए बिना, उनकी सहज और प्राकृतिक कला का उपयोग किया। उन्होंने इन कलाकारों को उनके अपनी बोली, लोकगीतों और पारंपरिक नृत्य शैलियों का उपयोग करने की पूरी स्वतंत्रता दी। इस प्रयोग से एक ऐसी नाट्य शैली का जन्म हुआ जो दर्शकों को सीधे दिल से छूती थी। यह हिंदी थिएटर के लिए एक ताजी हवा के झोंके की तरह था, जहाँ भाषा और प्रस्तुति बहुत औपचारिक और कृत्रिम हो गई थी।
हबीब तनवीर के नाटक की शैली
हबीब तनवीर के नाटकों की शैली कुछ खास विशेषताओं के लिए जानी जाती है:
1. लोककला और शहरी रंगमंच का अद्भुत संगम:
यह तनवीर की नाट्य शैली का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था। उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोक नृत्य शैलियों जैसे 'नाचा' और 'पंडवानी' का प्रयोग अपने नाटकों में किया। 'नाचा' एक प्रकार का लोक-नाट्य है जिसमें पुरुष कलाकार महिला पात्रों की भूमिका निभाते हैं। तनवीर ने इन कलाकारों की सहजता और अभिनय क्षमता का भरपूर उपयोग किया। उन्होंने लोकगीतों और धुनों को नाटकों में इस तरह से बुना कि वे कहानी का अभिन्न अंग बन गए।
2. सामाजिक और राजनीतिक यथार्थवाद:
तनवीर के नाटकों में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को सीधे और बिना लाग-लपेट के उठाया जाता था। उनके नाटक अक्सर गरीबी, शोषण, सामाजिक असमानता, और सत्ता के दुरुपयोग जैसे विषयों पर केंद्रित होते थे। वे अपने नाटकों के माध्यम से दर्शकों को समाज की खामियों पर सोचने के लिए मजबूर करते थे। उनका नाटक 'चरणदास चोर' इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो ईमानदारी और बेईमानी की अवधारणाओं पर सवाल उठाता है।
3. छत्तीसगढ़ी बोली का उपयोग:
तनवीर ने अपने नाटकों में हिंदी के बजाय छत्तीसगढ़ी बोली का इस्तेमाल किया। यह एक क्रांतिकारी कदम था, क्योंकि उस समय हिंदी रंगमंच पर शुद्ध हिंदी का ही बोलबाला था। छत्तीसगढ़ी बोली के प्रयोग से उनके पात्र और कहानियाँ अधिक प्रामाणिक और जीवंत लगीं। इस प्रयोग ने क्षेत्रीय बोलियों को मुख्यधारा के रंगमंच में सम्मान दिलाया।
4. सहज और प्राकृतिक अभिनय:
हबीब तनवीर के नाटक में अभिनय बहुत सहज और प्राकृतिक होता था। चूंकि उनके कलाकार पेशेवर अभिनेता नहीं थे, इसलिए वे अपने पात्रों को पूरी सहजता से जीते थे। उनकी संवाद अदायगी में कृत्रिमता नहीं होती थी, बल्कि वह रोजमर्रा की बातचीत की तरह लगती थी। यह सहजता ही दर्शकों को उनके नाटकों से जोड़ पाती थी।
5. न्यूनतम सेट डिजाइन:
तनवीर के नाटकों में भारी-भरकम सेट डिजाइन और महंगे प्रॉप्स का इस्तेमाल नहीं होता था। वे अक्सर सादे मंच पर ही अपने नाटकों का प्रदर्शन करते थे। उनका मानना था कि नाटक की असली शक्ति कहानी और अभिनय में है, न कि भव्य सेट में। इस न्यूनतम शैली ने उन्हें देशभर के छोटे शहरों और गाँवों में भी अपने नाटक दिखाने में सक्षम बनाया।
प्रमुख नाटक और उनका योगदान
हबीब तनवीर के कुछ सबसे प्रसिद्ध नाटक हैं:
'आगरा बाज़ार' (1954): यह उनका पहला महत्वपूर्ण नाटक था जो दिल्ली के उर्दू कवि नज़ीर अकबराबादी के जीवन और काम पर आधारित था। इस नाटक में उन्होंने बाज़ार की पृष्ठभूमि का उपयोग किया, जहाँ विभिन्न पात्रों के माध्यम से समाज का चित्रण किया गया।
'चरणदास चोर' (1975): यह शायद उनका सबसे प्रसिद्ध नाटक है। यह एक लोक कथा पर आधारित है जिसमें एक चोर की कहानी है, जो अपनी चार प्रतिज्ञाओं – कभी झूठ न बोलने, कभी चोरी न करने, कभी शराब न पीने और कभी महिलाओं का अनादर न करने – के कारण समाज के लिए एक चुनौती बन जाता है। इस नाटक ने 1982 में एडिनबर्ग फेस्टिवल फ़्रिंज अवार्ड जीता, जिसने भारतीय रंगमंच को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई।
'गाँव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद' (1973): इस नाटक में छत्तीसगढ़ी लोक कलाकारों का प्रयोग अपने चरम पर था। यह नाटक सामाजिक व्यंग्य और लोक कला का एक बेहतरीन उदाहरण है।
'हिरमा की कहानी' (1985): यह नाटक आदिवासी जीवन और उनके संघर्षों को दर्शाता है। तनवीर ने इस नाटक के माध्यम से आदिवासियों के शोषण और उनके अधिकारों के हनन के मुद्दे को उठाया।
निष्कर्ष
हबीब तनवीर ने अपने जीवनकाल में भारतीय रंगमंच को एक नई दिशा दी। उन्होंने दिखाया कि लोक कलाएँ केवल मनोरंजन के साधन नहीं हैं, बल्कि वे सामाजिक और राजनीतिक संदेशों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने का एक शक्तिशाली माध्यम भी हैं। उन्होंने 'नया थिएटर' के माध्यम से न केवल छत्तीसगढ़ी कलाकारों को एक मंच दिया, बल्कि उन्हें पहचान और सम्मान भी दिलाया।
हबीब तनवीर को उनकी कला और योगदान के लिए कई सम्मान मिले, जिनमें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1969), पद्म श्री (1983) और पद्म भूषण (2002) शामिल हैं। उनकी मृत्यु 2009 में हुई, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। 'नया थिएटर' आज भी उनके आदर्शों पर काम कर रहा है और भारत के विभिन्न हिस्सों में उनके नाटकों का मंचन किया जाता है। हबीब तनवीर सही मायने में एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपनी जड़ों से जुड़े रहते हुए भारतीय रंगमंच को विश्व पटल पर स्थापित किया। उनका काम हमेशा हमें याद दिलाता रहेगा कि कला का सच्चा रूप वह है जो लोगों से जुड़ता है, उनकी आवाज़ बनता है और उन्हें सोचने के लिए प्रेरित करता है।
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