×

History Of Wallace Line: वॉलेस रेखा एक रहस्यमयी जैविक विभाजन, जो जीवों को दो अलग दुनियाओं में बाँटता है

History Of Wallace Line: वॉलेस रेखा महज एक अदृश्य रेखा नहीं, बल्कि यह प्रकृति की अद्वितीय और सूक्ष्म संतुलन प्रणाली का प्रतीक है।

Shivani Jawanjal
Published on: 4 July 2025 4:24 PM IST
History Of Wallace Line
X

History Of Wallace Line

History Of Wallace Line: धरती पर जीवन का फैलाव जितना अद्भुत है उतना ही रहस्यमयी भी। हमारे ग्रह पर कुछ ऐसी अदृश्य सीमाएँ हैं जो न केवल भूगोल बल्कि जीवन की विविधता को भी परिभाषित करती हैं। ऐसी ही एक रहस्यमयी और वैज्ञानिक दृष्टि से क्रांतिकारी खोज है - वॉलेस रेखा। यह कोई मानवीय बनाई हुई सीमा नहीं, बल्कि प्रकृति की वह अदृश्य लकीर है जो एशिया और ऑस्ट्रेलिया के जीव-जंतुओं के बीच एक स्पष्ट अंतर रेखांकित करती है। इस रेखा के दोनों ओर पाए जाने वाले जीव-जंतु इतने भिन्न हैं कि ऐसा लगता है जैसे वे दो बिल्कुल अलग दुनियाओं से आए हों। यह सिर्फ एक जैविक विभाजन नहीं है, बल्कि यह विकास की प्रक्रिया, महाद्वीपों की गतिशीलता और पृथ्वी के प्राचीन इतिहास को समझने की एक महत्वपूर्ण कड़ी भी है। आइए इस रहस्यपूर्ण रेखा के वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और पारिस्थितिक पक्षों को गहराई से समझते हैं।

वॉलेस रेखा क्या है?


वॉलेस रेखा दक्षिण-पूर्व एशिया(South-East Asia) और ऑस्ट्रेलिया(Austrelia) के बीच स्थित एक अदृश्य लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण जैव विविधता की सीमा है। यह काल्पनिक रेखा इंडोनेशिया(Indonesia) के बाली(Bali) और लोमबोक द्वीपों(Lombok Islands), साथ ही बोर्नियो और सुलावेसी द्वीपों (Borneo and Sulawesi Islands) के बीच से होकर गुजरती है और यह दर्शाती है कि इन क्षेत्रों की वन्यजीव प्रजातियों में कितना गहरा अंतर है। इस रेखा का सबसे रोचक पहलू यह है कि यह एशियाई और ऑस्ट्रेलियाई जीव-जगत के बीच स्पष्ट विभाजन प्रस्तुत करती है। उदाहरण के लिए रेखा के पश्चिम में पाए जाने वाले द्वीपों पर हाथी, बाघ, गैंडा और बंदर जैसे एशियाई जीवों का वर्चस्व हैहैं। जबकि पूर्वी द्वीपों में कंगारू, कोआला, प्लैटिपस और कॉकटू जैसे विशिष्ट ऑस्ट्रेलियाई जीव-जंतु मिलते हैं। यह अंतर तब और चौंकाने वाला बन जाता है जब पता चलता है कि इन द्वीपों के बीच की दूरी महज कुछ किलोमीटर (जैसे बाली और लोमबोक के बीच केवल 35 किमी) है, फिर भी अधिकांश स्थलीय जीव इस दूरी को पार नहीं कर पाए। इसका मुख्य कारण इन द्वीपों के बीच गहरे समुद्री जल की उपस्थिति है जिसने प्राचीन काल में भी भूमि जीवों के प्रवास को बाधित किया। हालांकि कुछ पक्षी और चमगादड़ इस सीमा को पार कर पाने में सक्षम रहे परंतु स्तनधारियों और अन्य प्रजातियों की पारिस्थितिक सीमाएँ आज भी इस अदृश्य रेखा को प्रमाणित करती हैं।

इस रेखा की खोज कैसे हुई?

वॉलेस रेखा की खोज का श्रेय 19वीं सदी के प्रसिद्ध ब्रिटिश प्रकृतिवादी अल्फ्रेड रसेल वॉलेस को जाता है, जो चार्ल्स डार्विन के समकालीन और प्राकृतिक चयन (Natural Selection) सिद्धांत के सह-खोजकर्ता भी थे। वॉलेस ने 1854 से 1862 के बीच इंडोनेशिया के द्वीपों की व्यापक यात्रा की और वहाँ के जीव-जंतुओं का गहन अध्ययन किया। इस यात्रा के दौरान उन्होंने करीब 14,000 मील की दूरी तय की और 1,25,000 से अधिक प्रजातियों के नमूने इकट्ठा किए, जिनमें कई अनोखे और पहले कभी न देखे गए जीव भी शामिल थे। उनके शोध का सबसे चौंकाने वाला निष्कर्ष यह था कि बाली और लोमबोक द्वीपों के बीच केवल 35 किलोमीटर की दूरी होने के बावजूद दोनों स्थानों के जीव-जंतुओं में एक गहरा और स्पष्ट अंतर देखने को मिला। इस अंतर का मुख्य कारण लोमबोक जलडमरूमध्य (Lombok Strait) की अत्यधिक गहराई है। जो लाखों वर्षों से जलमग्न है और इसने स्थलीय जीवों के एक द्वीप से दूसरे द्वीप तक प्रवास को असंभव बना दिया। वॉलेस ने इस प्राकृतिक जैविक विभाजन को समझते हुए इसे एक वैज्ञानिक सीमा के रूप में रेखांकित किया जिसे बाद में उनके सम्मान में वॉलेस रेखा कहा गया। आज भी यह रेखा जीवविज्ञान और विकासवाद के अध्ययन में एक महत्वपूर्ण अवधारणा मानी जाती है। क्योंकि यह स्पष्ट करती है कि कैसे भूगोल, समुद्र की गहराई और समय मिलकर प्रजातियों के विकास और वितरण को आकार देते हैं।

वॉलेस रेखा के दोनों ओर की दुनिया

वॉलेस रेखा के पश्चिम में (एशियाई पक्ष) - वॉलेस रेखा के पश्चिमी भाग को एशियाई पक्ष के रूप में जाना जाता है जहाँ की जैव-विविधता मुख्यतः एशियाई महाद्वीप से प्रभावित है। इस क्षेत्र में पाए जाने वाले जीव-जंतुओं में हाथी, बाघ, भालू, बंदर जैसी प्रमुख स्तनधारी प्रजातियाँ शामिल हैं, जो पूरे एशिया में आमतौर पर देखी जाती हैं। यहाँ की पारिस्थितिकी भी एशियाई वनस्पति के अनुरूप है, जैसे घने साल के जंगल, टिक (टीक) के वृक्ष, और बाँस के झुरमुट। इन द्वीपों की प्रकृति, जलवायु और पारिस्थितिकीय तंत्र एशिया के मुख्य भूमि क्षेत्रों से काफी मेल खाते हैं। जिससे स्पष्ट होता है कि यह क्षेत्र एक समय महाद्वीपीय एशिया का ही हिस्सा रहा होगा। वॉलेस रेखा यहाँ एक प्राकृतिक दीवार की तरह काम करती है जिसके उस पार की दुनिया जैविक रूप से पूरी तरह अलग दिखाई देती है।

वॉलेस रेखा के पूर्व में (ऑस्ट्रेलियाई पक्ष) - वॉलेस रेखा के पूर्वी भाग में स्थित द्वीपों की जैव-विविधता पूरी तरह से ऑस्ट्रेलियाई पारिस्थितिकी से मेल खाती है। इस क्षेत्र में मार्सुपियल्स यानी थैली वाले स्तनधारी प्रमुखता से पाए जाते हैं जिनमें कंगारू, वॉलबाई और कोआला जैसे प्राणी शामिल हैं। इसके अलावा प्लैटिपस जैसे अंडे देने वाले स्तनधारी केवल इसी क्षेत्र में पाए जाते हैं, जो इन्हें दुनिया की सबसे विचित्र और विशिष्ट प्रजातियों में स्थान दिलाता है। पक्षियों की बात करें तो कैसवरी और काकाडू जैसे रंग-बिरंगे, दुर्लभ और अनोखे पक्षी यहाँ के जैविक वैभव को दर्शाते हैं। वनस्पति की दृष्टि से भी यह क्षेत्र विशिष्ट है। यहाँ ऑस्ट्रेलियन टाइप की वनस्पति जैसे यूकेलिप्टस के वृक्ष और शुष्क वनों का वर्चस्व है जो इसे एशियाई हिस्से से बिल्कुल अलग बनाता है। वॉलेस रेखा यहाँ एक स्पष्ट जैविक बदलाव की रेखा के रूप में उभरती है जो प्रकृति की अद्भुत विविधता को दर्शाती है।

यह सीमा कैसे बनी?

वॉलेस रेखा का निर्माण किसी आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं बल्कि यह पृथ्वी की गहराई में चलने वाली भूवैज्ञानिक और विकासवादी प्रक्रियाओं का प्रतीक है। यह सीमा प्लेट टेक्टोनिक गतिविधियों के कारण अस्तित्व में आई जिनके चलते एशिया (लॉरेशिया) और ऑस्ट्रेलिया (गोंडवाना) के भूखंड करोड़ों वर्षों तक एक-दूसरे से अलग रहे। इस दीर्घकालीन भौगोलिक अलगाव ने इन क्षेत्रों के जीव-जंतुओं को स्वतंत्र रूप से विकसित होने का अवसर दिया, जिससे इनके जैविक स्वरूपों में गहरा अंतर उत्पन्न हुआ। विशेष रूप से लोमबोक जलसंधि, जो बाली और लोमबोक द्वीपों के बीच स्थित एक अत्यधिक गहरी समुद्री खाई है। इस अलगाव का महत्वपूर्ण कारण रही। यहाँ तक कि हिमयुग के दौरान जब समुद्र का स्तर बहुत नीचे चला गया था तब भी यह खाई जलमग्न बनी रही और भूमि आधारित जीव-जंतुओं के लिए पारगमन असंभव बना रहा। यही कारण है कि वॉलेस रेखा के दोनों ओर स्थित द्वीपों में आज भी जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ एक-दूसरे से स्पष्ट रूप से भिन्न दिखाई देती हैं।

वॉलेस रेखा का जैविक महत्त्व

जैव विविधता को समझने की कुंजी - वॉलेस रेखा जैव-विविधता और विकासवाद को समझने की दृष्टि से एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्राकृतिक उदाहरण प्रस्तुत करती है। यह स्पष्ट करती है कि कैसे भौगोलिक अवरोध विशेषकर गहरी जलसंधियाँ जैसे लोमबोक स्ट्रेट जीव-जंतुओं के प्रवास को सीमित कर सकते हैं और उन्हें अलग-अलग पारिस्थितिकी तंत्रों में विकसित होने के लिए बाध्य करते हैं। वॉलेस रेखा जीवविज्ञान, पारिस्थितिकी और विकासवाद के सिद्धांतों को धरातल पर देखने का अवसर प्रदान करती है।

प्राकृतिक चयन और विकास का प्रमाण - वॉलेस रेखा, चार्ल्स डार्विन और अल्फ्रेड वॉलेस के सिद्धांतों को प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित करती है। इस सीमा के दोनों ओर पाए जाने वाले जीव-जंतुओं में जितना अंतर है, वह इस बात को दर्शाता है कि पर्यावरणीय दबाव और भूगोल किस प्रकार प्राकृतिक चयन और अनुकूलन की प्रक्रिया को दिशा देते हैं। यह रेखा केवल एक जैविक सीमा नहीं, बल्कि विकास के जीवंत प्रमाणों में से एक है।

पर्यावरणीय संरक्षण- वॉलेस रेखा से सटे द्वीपीय क्षेत्र जैव विविधता के दृष्टिकोण से अत्यंत संवेदनशील और समृद्ध हैं। इन क्षेत्रों को बायोडायवर्सिटी हॉटस्पॉट माना जाता है, जहाँ कई दुर्लभ और संकटग्रस्त प्रजातियाँ निवास करती हैं। इस जैव विविधता को बचाए रखना केवल वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं बल्कि पारिस्थितिक संतुलन के लिए भी बेहद आवश्यक है। संरक्षण प्रयासों के लिए यह क्षेत्र वैश्विक प्राथमिकता में आते हैं।

एंडेमिक प्रजातियों का घर- वॉलेस रेखा के निकट स्थित द्वीप जैसे सुलावेसी, फ्लोरेस, लोमबोक आदि एंडेमिक प्रजातियों का घर हैं। यहाँ ऐसी कई वनस्पति और जीव प्रजातियाँ पाई जाती हैं जो दुनिया में और कहीं नहीं मिलतीं। इन स्थानिक प्रजातियों का अध्ययन न केवल जैव विकास को समझने के लिए जरूरी है बल्कि इनके संरक्षण के बिना वैश्विक जैव विविधता अधूरी रह जाएगी।

क्या वॉलेस रेखा एकमात्र ऐसी सीमा है?

वॉलेस रेखा के साथ-साथ कुछ अन्य जैव-भौगोलिक सीमाएँ भी हैं जो इस क्षेत्र की जैव-विविधता को और गहराई से समझने में मदद करती हैं। वेबर रेखा वॉलेस रेखा के थोड़े पूर्व में स्थित है और इसे 'मिश्रित क्षेत्र' (transitional zone) के रूप में जाना जाता है, जहाँ एशियाई और ऑस्ट्रेलियाई प्रजातियाँ आपस में मिलती हैं। यह क्षेत्र पारिस्थितिक और विकासात्मक दृष्टि से अत्यंत रोचक है क्योंकि यहाँ दोनों जैविक दुनियाओं की झलक देखने को मिलती है। दूसरी ओर लाइडेकर रेखा न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी छोर के पास स्थित है और इसके पूर्व में लगभग पूरी तरह ऑस्ट्रेलियाई प्रजातियाँ ही पाई जाती हैं। यह रेखा ऑस्ट्रेलियाई जैव-क्षेत्र की प्राकृतिक सीमा मानी जाती है। इन दोनों रेखाओं वॉलेस और लाइडेकर के बीच का क्षेत्र वॉलेशिया (Wallacea) कहलाता है। वॉलेशिया जैव-विविधता का खजाना है जहाँ स्थानिक (एंडेमिक) प्रजातियाँ, द्वीपीय अलगाव, और एशियाई-ऑस्ट्रेलियाई जैविक मिश्रण अद्भुत संतुलन में पाए जाते हैं। यह क्षेत्र वैज्ञानिकों और पारिस्थितिकीविदों के लिए अध्ययन का एक प्रमुख केंद्र बना हुआ है।

वर्तमान समय में इसका क्या महत्त्व है?

आज के दौर में जब जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और प्राकृतिक आवासों का विनाश जैव विविधता के लिए गंभीर संकट बन चुके हैं, ऐसे में वॉलेस रेखा जैसी जैविक सीमाएँ हमें प्रजातियों के विकास और पारिस्थितिक संतुलन को समझने की दिशा में मार्गदर्शन देती हैं। यह रेखा न केवल यह दर्शाती है कि विभिन्न प्रजातियाँ कैसे अलग-अलग पारिस्थितिक तंत्रों में विकसित होती हैं बल्कि यह भी बताती है कि उनका संरक्षण कितना आवश्यक है। वॉलेस रेखा एक भौगोलिक सीमा से कहीं बढ़कर है। यह पृथ्वी के प्राकृतिक इतिहास की एक जीवंत और वैज्ञानिक कहानी है जो हमें जैव विविधता के महत्व, पर्यावरणीय संतुलन की नाजुकता और संरक्षण की अत्यावश्यकता का एहसास कराती है। ऐसे में इसका अध्ययन और इसके आसपास के क्षेत्रों की सुरक्षा, वैश्विक जैव संरक्षण प्रयासों का एक अनिवार्य हिस्सा बन जाती है।

Start Quiz

This Quiz helps us to increase our knowledge

Admin 2

Admin 2

Next Story