History of Wheat: गेहूँ की उत्पत्ति, इतिहास, विकास, रासायनिक रचना और आधुनिक स्वास्थ्य-विवाद

Gehun Ka Itihas Kya Hai: गेहूँ मानव सभ्यता की उन प्राचीन फसलों में से है जिनके बिना कृषि और स्थायी समाज की कल्पना अधूरी है।

Yogesh Mishra
Published on: 2 Nov 2025 8:12 PM IST
History of Wheat Green Revolution Health Debates Gehun Ka Itihas Kya Hai
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History of Wheat Green Revolution Health Debates Gehun Ka Itihas Kya Hai

Gehun Ka Itihas Kya Hai: गेहूँ मानव सभ्यता की उन प्राचीन फसलों में से है जिनके बिना कृषि और स्थायी समाज की कल्पना अधूरी है। इसकी उत्पत्ति लगभग दस से बारह हजार वर्ष पूर्व “फर्टाइल क्रिसेंट” क्षेत्र में मानी जाती है — जो आज के इराक, सीरिया, तुर्की, ईरान और लेवेंट के हिस्सों में फैला था। वहाँ पाई जाने वाली जंगली प्रजातियाँ — ऐनकोर्न (Einkorn) और एमर (Emmer) — को धीरे-धीरे पालतू बनाकर खेती योग्य रूप दिया गया। यहीं से यह फसल मिस्र, मेसोपोटामिया और भूमध्यसागरीय देशों तक पहुँची। मंदिरों, मुहरों और पुरातात्त्विक अवशेषों में गेहूँ की कटाई व भंडारण के दृश्य मिलते हैं, जो प्रारंभिक कृषि-सभ्यता के साक्ष्य हैं।

भारत में भी गेहूँ की उपस्थिति अत्यंत प्राचीन है। वैदिक साहित्य में ‘गोधूम’ के रूप में इसका उल्लेख मिलता है। पुरातात्त्विक प्रमाण मेहरगढ़ (अब पाकिस्तान के बलूचिस्तान क्षेत्र) से लगभग 7000–6000 ईसा पूर्व के मिले हैं। हड़प्पा सभ्यता के उत्खनन में भी गेहूँ के दानों के जीवाश्म मिले हैं, जो दर्शाते हैं कि सिंधु-घाटी के लोग इसे प्रमुख अन्न के रूप में प्रयोग करते थे। परंपरागत भारतीय किस्में, जिन्हें ‘खापली’ या ‘देशी गेहूँ’ कहा गया, पौष्टिक और पचने में आसान थीं, यद्यपि इनकी उपज आधुनिक किस्मों की तुलना में कम थी।

स्वतंत्र भारत में उत्पादन और PL-480 का दौर

स्वतंत्रता-पूर्व भारत में गेहूँ का उत्पादन सीमित था। 1947 के आसपास यह लगभग 65 लाख टन था, जो जनसंख्या की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त था। 1950 के दशक में सूखे और अकाल की परिस्थितियों में भारत को अमेरिका की सहायता कार्यक्रम Public Law 480 (PL-480) के अंतर्गत गेहूँ आयात करना पड़ा। यह अमेरिकी कांग्रेस द्वारा 1954 में पारित एक योजना थी जिसके अंतर्गत अमेरिका अपने कृषि अधिशेष को विकासशील देशों को सहायता के रूप में देता था। भारत ने 1956 से इस योजना के तहत बड़े पैमाने पर गेहूँ आयात किया।


इससे तत्काल खाद्यान्न संकट तो टल गया, परंतु दीर्घकालीन समाधान आत्मनिर्भरता में ही देखा गया। इसी पृष्ठभूमि में हरित क्रांति का आरंभ हुआ। 1960 के दशक में डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन, डॉ. बी.पी. पाल, और नोबेल विजेता नॉर्मन बोरलॉग के संयुक्त प्रयासों से उच्च उपज देने वाली, रोग-प्रतिरोधी और संकर किस्में भारत लाई गईं।

मैक्सिको के ‘सेमी-ड्वार्फ’ स्रोतों से आए जीन-संयोजन को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलित किया गया। इन्हीं प्रयोगों के दौरान PL-40, कल्याण सोना, सोनालिका, और शरबती जैसी किस्में विकसित हुईं, जिन्होंने भारत को खाद्य-सुरक्षा के नए युग में प्रवेश कराया।

हालाँकि इन प्रयोगों ने उत्पादन बढ़ाया, परंतु आनुवंशिक चयन और उच्च उत्पादकता की दौड़ में गेहूँ के पोषणीय गुणों में सूक्ष्म परिवर्तन आने लगे — यही परिवर्तन बाद में स्वास्थ्य-विवादों के मूल बने।

गेहूँ की रासायनिक संरचना और पोषण तत्व

रासायनिक दृष्टि से गेहूँ जटिल और संतुलित अन्न है।

इसमें लगभग:

70–75% कार्बोहाइड्रेट (मुख्यतः स्टार्च), 10–15% प्रोटीन (मुख्यतः ग्लूटेन, जिसमें ग्लियाडिन और ग्लूटेनिन शामिल), 1.5–2% वसा, 2–3% फाइबर और सूक्ष्म मात्रा में विटामिन-B समूह, आयरन, जिंक, मैग्नीशियम, और फॉस्फोरस पाए जाते हैं।


संपूर्ण गेहूँ (Whole wheat) में चोकर और जर्म सहित सभी हिस्से बने रहते हैं, जिससे यह फाइबर व पोषक तत्वों से भरपूर होता है, जबकि मैदा में इन्हें हटा देने से पोषण-गुण बहुत घट जाते हैं।

गेहूँ के प्रमुख लाभ हैं — ऊर्जा का स्थायी स्रोत होना, पाचन में सहायक रेशा, और विटामिन-B के माध्यम से मेटाबॉलिज्म तथा तंत्रिका कार्य में योगदान देना। परंतु इसके साथ-साथ कुछ वैज्ञानिक दृष्टिकोण इसे सावधानीपूर्वक सेवन योग्य अन्न मानते हैं।

आधुनिक स्वास्थ्य-विवाद और “Wheat Belly” का तर्क

20वीं सदी के मध्य से विकसित बौनी और संकर किस्मों ने गेहूँ की जैव-रासायनिक प्रकृति में परिवर्तन किया है। इन किस्मों में ग्लूटेन घनत्व और संरचना पारंपरिक किस्मों से अलग हो गई है।

कई अध्ययनों में पाया गया कि ग्लियाडिन जैसे प्रोटीन कुछ व्यक्तियों में सीलिएक रोग, ग्लूटेन सेंसिटिविटी, और आंतों की सूजन को बढ़ा सकते हैं, Amylopectin-A प्रकार का स्टार्च रक्त शर्करा को तेजी से बढ़ाता है और Wheat Germ Agglutinin (WGA) जैसे लेक्टिन्स शरीर में सूजन और प्रतिरक्षा-संवेदनशील प्रतिक्रियाओं को बढ़ा सकते हैं।

इन्हीं प्रभावों को अमेरिकी कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. विलियम डेविस ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “Wheat Belly” (2011) में विस्तार से बताया। उनके अनुसार, आधुनिक गेहूँ अब केवल पोषण नहीं बल्कि मेटाबॉलिक विकारों का कारण बन गया है।


उनका तर्क था कि आधुनिक गेहूँ में मौजूद Amylopectin-A बहुत तेजी से ग्लूकोज में टूटता है, इससे इंसुलिन बार-बार बढ़ता है, जिससे वसा संचय विशेषकर पेट के आसपास होता है — यही “गेहूँ की तोंद” या Wheat Belly कहलाती है, ग्लियाडिन प्रोटीन दिमाग में ओपिओइड-जैसे रिसेप्टर्स से जुड़कर भूख और कार्बोहाइड्रेट की लालसा बढ़ाता है और परिणामस्वरूप व्यक्ति अधिक खाते हैं, वजन बढ़ता है, और चयापचय असंतुलन पैदा होता है।

डेविस के अनुसार, जब लोगों ने अपने आहार से आधुनिक गेहूँ हटाया, तो उनका वजन घटा, ब्लड शुगर सामान्य हुआ और सूजन में कमी आई।

हालाँकि, वैज्ञानिक समुदाय में इस पर मतभेद हैं। कई पोषण वैज्ञानिक मानते हैं कि गेहूँ स्वयं नहीं, बल्कि प्रसंस्कृत मैदा और अत्यधिक सेवन मुख्य दोषी हैं। पर यह निर्विवाद है कि इस पुस्तक ने एक गंभीर विमर्श शुरू किया —

क्या आधुनिक कृषि ने “आहार को पोषण से अधिक उत्पादन” में बदल दिया है?

आज का भारत और विश्व परिदृश्य

आज भारत और चीन विश्व के सबसे बड़े गेहूँ उत्पादक देश हैं। रूस, अमेरिका, फ्रांस, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया भी शीर्ष उत्पादकों में शामिल हैं। भारत में गेहूँ मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उगाया जाता है।

अब नई चिंता यह नहीं है कि “गेहूँ कितना” उगाया जाए, बल्कि “कैसा गेहूँ” उगाया जाए। वैज्ञानिक और किसान पारंपरिक किस्मों, जैविक खेती, और कम-प्रसंस्कृत आहार की ओर लौटने की सिफारिश कर रहे हैं ताकि गेहूँ फिर से स्वास्थ्यवर्द्धक और प्राकृतिक पोषण का प्रतीक बन सके।

गेहूँ की यात्रा — फर्टाइल क्रिसेंट से लेकर मेहरगढ़ तक, PL-480 की अमेरिकी मदद से लेकर PL-40 और हरित क्रांति तक — मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे परिवर्तनकारी यात्राओं में से एक है।

गेहूँ ने मनुष्य को स्थायित्व, राष्ट्रों को खाद्य-सुरक्षा और विज्ञान को अनुसंधान की दिशा दी; पर आज यह चेतावनी भी देता है कि अन्न की मात्रा नहीं, उसकी गुणवत्ता और प्रसंस्करण ही स्वास्थ्य का निर्धारण करते हैं।

संतुलन यही है:

गेहूँ तब तक स्वास्थ्य का स्रोत है जब तक वह प्राकृतिक, सीमित और संतुलित मात्रा में सेवन किया जाए, पर अत्यधिक, परिष्कृत और आनुवंशिक रूप से बदला गेहूँ स्वास्थ्य-समस्याओं की जड़ भी बन सकता है।

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