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Dharm Ka Mahatva: प्राण जाये पर धरम न जाए
Jivan Mein Dharm Ka Mahatva: धर्म की घुसपैठ हमारी ज़िंदगी में इतनी हो गई है कि राजनीति का धर्म व धर्म की राजनीति दोनों पूरक बन बैठे हैं।
Jivan Mein Dharm Ka Mahatva Inside Story Senior Journalist Yogesh Mishra
Dharm Ka Mahatva: धर्म, बहुत से इंसानों, या यूं कहें कि ज्यादातर इंसानों की जिन्दगी का अभिन्न अंग। ऐसा अंग जिसके लिए जान देनी भी मंजूर है और जान लेनी भी। शारीरिक अंगों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण। शरीर के अंग कटते-पिटते रहें, कोई बात नहीं पर धर्म अटल, अक्षुण्ण और सर्वोपरि रहना चाहिए। धर्म की घुसपैठ हमारी ज़िंदगी में इतनी हो गई है कि राजनीति का धर्म व धर्म की राजनीति दोनों पूरक बन बैठे हैं। धर्म सामूहिक भी है। अपने अपने धर्म भी हैं।
सवाल यह उठता है कि धर्म क्या हमेंशा से हमारे साथ थे? ये भी तय नहीं है। लेकिन माना जाता है कि धर्म की उत्पत्ति हज़ारों साल पहले हुई थी और इसे किसी एक समय-सीमा से नहीं जोड़ा जा सकता। जैसे जैसे मानव समाज डेवलप या इवाल्व होता गया वैसे – वैसे धर्मों का भी क्रमिक विकास हुआ। जैसे जैसे नए नए धर्म-पंथ बनते गए तो बात संख्या बल पर भी आ गयी। जिसके ज्यादा अनुयायी उसका ज्यादा दबदबा। ईसाइयत और इस्लाम में ये कुछ ज्यादा ही रहा है। हालाँकि दोनों ही अब्राहम से निकले हैं और भाई-बंद हैं। लेकिन फिर भी प्रतिस्पर्धा जोरदार रही है कौन कितनी ज्यादा संख्या में फ़ैल सके। ऐसे में दूसरे लोग निशाने पर रहे हैं चाहे वो सनातनी हों, आदिवासी-प्रकृति पूजक हों या कोई और। ये सिलसिला तबसे चला आ रहा है जबसे अब्राहम वंशजों ने जन्म लिया, यानी अधिक से अधिक दो हजार साल से। दो हजार से पंथ परिवर्तन का क्रम जारी है, ठीक वैसे ही जैसे अलग अलग कम्पनियाँ ग्राहक खींचने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाती हैं। लेकिन इन्हीं के बीच ऐसे भी ‘ग्राहक’ हैं जो प्रोडक्ट से निराश हो कर निर्लिप्त भाव से अलग हो कर बैठ गए हैं।
आंकड़ों की बात करें तो 2025 तक के ग्लोबल आँकड़े बताते हैं कि दुनिया में बड़ी संख्या में लोग संगठित धर्म से दूर हो गए हैं, और नास्तिकता, अज्ञेयवाद और गैर-धार्मिक पहचान में वृद्धि हो रही है और ऐसा विकसित देशों में ही सबसे ज्यादा देखा जा रहा है। प्यू रिसर्च सेंटर, वर्ल्ड वैल्यूज़ सर्वे और जनगणना आँकड़ों के अधर पर डेटा को देखें तो पता चलता है कि दुनिया में गैर-धार्मिक, नास्तिक,जैसों की संख्या लगभग 1.2 से 1.4 अरब लोगों की है। स्थिति ये है कि गैर-धार्मिक लोग अब ईसाई और मुसलमानों के बाद तीसरे नंबर पर हैं।
शोध बताते हैं कि पूरी दुनिया में ईसाई धर्म सबसे ज्यादा अनुयायियों को खो रहा है। एक आंकड़ा कहता है कि ईसाई धर्म अपनाने वाले हर एक व्यक्ति के अनुपात में लगभग 4 लोग ईसाई धर्म छोड़ देते हैं। अनुमान है कि पिछले बीस साल में लगभग 5 से 6 करोड़ लोगों ने ईसाई धर्म छोड़ दिया है।
ऊपर से भले ही कुछ दिखे लेकिन इस्लाम में धर्म छोड़ने वालों की संख्या बढ़ रही है। सबसे बड़ा उदाहारण ईरान है जहाँ नास्तिकता और किसी धर्म को न मानने वाले तेज़ी से बढ़ रहे हैं। 2020 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक ईरान में 40 फीसदी से ज़्यादा लोग अब खुद को मुसलमान नहीं मानते। अनुमान है कि दुनिया भर में पिछले दशक में तकरीबन दो करोड़ लोगों ने इस्लाम छोड़ दिया होगा। चूँकि कई मुस्लिम देशों में धर्मत्याग पर मौत की सज़ा या उम्र कैद जैसे कड़े प्रावधान हैं सो बहुत मुमकिन है कि आँकड़े कम रिपोर्ट किए जाते हों।
बहरहाल, आज के सन्दर्भ में बात करें तो धर्म परिवर्तन का मसला काफी छाया हुआ है। कहीं जबरन धर्म परिवर्तन के चर्चे हैं तो कहीं लोभ-लालच में ऐसा करने के। हमारे यहाँ धर्मं परिवर्तन कोई आज की बात नहीं है बल्कि जबसे ईसाइयत और इस्लाम अस्तित्व में आये हैं तब से ये कवायद जारी है। विशाल जनसँख्या, विविध प्रकार के लोग, नाना प्रकार की समस्याएं - ये सब मिल जुल कर धर्म परिवरतन के लिए इस सरजमीं को एक फर्टाइल ग्राउंड बनाती हैं। नजर दौड़ाइए, सुदूर नार्थ ईस्ट से ले कर नीचे दक्षिणी कोने तक, कहाँ कहाँ नहीं धर्म बदलवाए गए, बदले गए। इसाई मिशनरियों ने छोटे छोटे लाभ-सुविधाएँ देकर अपना कुनबा बढ़ाया तो इस्लामिकों ने लालच से, धोखे से, दबाव से अपना काम किया। रही बात बौद्धों की तो इनकी तादाद न तो ईसाईयों के तरीकों से बढ़ी न इस्लामियों के तौर तरीकों से बल्कि बौद्ध जो भी बने वो अपने मूल संप्रदाय की खिलाफत या यूं कहें कि एक रिएक्शन के चलते बौद्ध ग्रुप में शामिल हुए। अपने देश में ऐसा ही हुआ है, बाबा साहेब अम्बेडकर से लेकर आज तक। रही बात पारसी, सिख या अन्य किसी भी छोटे ग्रुप की तो उनका फोकस कभी संख्या बल पर नहीं रहा। पारसी, यहूदी, शिन्तो (जापान) तो ऐसे संप्रदाय हैं कि कोई कोई चाह के भी इनमें कन्वर्ट नहीं सकता।
अब बात आती है सनातनी यानी हिन्दू की। यहाँ भी काफी जटिलताएं हैं क्योंकि व्याख्याएं अलग अलग हैं और व्यवस्थाएं भी दुरूह हैं। इसमें कोई धर्मांतरण नीति कभी रही ही नहीं क्योंकि इसकी जरूरत ही नहीं समझी गयी। मिशनरी या धर्म प्रचारक जैसी व्यवस्था बनी ही नहीं थी। आर्य समाज या इस्कॉन को छोड़ दें तो धर्मांतरण जैसी कोई व्यवस्था कहीं नहीं है। बड़ी बात है कि कोई हिन्दू बन जाए या घर वापसी कर भी ले तो समाज में उनकी स्वीकार्यता नहीं के बराबर रह जाती है। वो विधर्मी के रूप में ही देखे जाते हैं, जुड़ाव बन ही नहीं पाता। वह भी तब जब भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश के मुसलमानों क दुनिया भर के दूसरे मुसलमान दोयम दर्जे का मानते हैं। क्यों कि सूफ़ीवाद, दरगाहों की ज़ियारत, पीर फ़क़ीर परंपरा को शुद्ध इस्लाम नहीं माना जाता है। ईरान में महिलाएँ सफ़ेद व दूसरे मुस्लिम देशों में काले या हरे रंग की पोशाक पहनती हैं, जबकि इन तीनों देशों में लाल कपड़े का रिवाज है। पुरुष लंबा सफेद थोबा पहनते हैं।
बहरहाल, धर्म परिवर्तन एक बड़ा मसला जरूर है, और इसमें बड़ा सवाल ये है कि आखिर लोग क्यों ऐसा कर रहे हैं? गरीबी, हताशा, यौन शोषण, भ्रष्टाचार, धार्मिक अतिवाद, हिंसा, निजी स्वतंत्रता, या फिर कुछ और? क्या लोग इतने भोले या गए बीते हैं कि किसी ने कुछ भी बरगला दिया और झट से धर्म बदल दिया? सवाल कई हैं जिनका जवाब शायद न कोई जानना चाहता है, न पूछना चाहता है और न बताना चाहता है क्योंकि इससे तमाम कई अन्य सवालों के दरवाजे खुल जायेंगे।
( लेखक पत्रकार हैं।)
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