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Mother Teresa Story: मदर टेरेसा का जीवन और योगदान की पूरी कहानी
Mother Teresa Birth Anniversary 2025: मदर टेरेसा की जयंती 26 अगस्त को मनाई जाती है। वर्ष 2025 में उनकी जन्मतिथि की 115वीं वर्षगांठ होगी।
Mother Teresa Birth Anniversary 2025
Mother Teresa Biography: मानव इतिहास में कुछ ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं जिन्होंने निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा कर मानवता को नई दिशा दी। ऐसे ही महान व्यक्तित्वों में से एक नाम है मदर टेरेसा। जिनका पूरा जीवन करुणा, दया और सेवा के प्रति समर्पित रहा। मदर टेरेसा ने समाज के गरीब, बीमार, अनाथ और लाचार जैसे वर्ग को अपनाया जिन्हें अक्सर लोगों द्वारा नजरअंदाज किया जाता है। उनकी इस सेवाभावना के कारन आज वे पूरे विश्व में 'मदर' नाम से पहचानी जाती है। ऐसे में आइये जानते है कौन थी मदर टेरेसा और कैसे उन्होंने अपना जीवन दुसरो को समर्पित कर दिया ।
मदर टेरेसा का प्रारंभिक जीवन
मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को स्कोप्जे (अब उत्तरी मैसिडोनिया की राजधानी) में हुआ था। उनका असली नाम एग्नेस गोंझा बोज़ाक्षू (Agnes Gonxha Bojaxhiu) था। उनके पिता का नाम निकोल बोज़ाक्षू (या Nikola/Nikollë Bojaxhiu) और माता का नाम ड्राना बोज़ाक्षू (Dranafile/Drana) था।मदर टेरेसा के पिता पेशे से एक व्यापारी थे तथा वे स्थानीय राजनीति से जुड़े थे।मदर टेरेसा की माता धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। बचपन से ही मदर टेरेसा को धार्मिक गतिविधियों और सेवा कार्यों में रुचि थी । जब वे मात्र 8 वर्ष की थी तब उनके पिता का निधन हो गया । पिता की मृत्यु के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई । उनकी माता ने हमेशा ही मदर टेरेसा को दूसरों की मदद करने व ईश्वर पर विश्वास रखने की शिक्षा दी।
धार्मिक जीवन में प्रवेश
1928 में जब मदर टेरेसा मात्र 18 वर्ष की थीं तब उन्होंने अपना जीवन धार्मिक सेवा के लिए समर्पित करने का निश्चय किया । इसी उद्देश्य से वे आयरलैंड के लोरेटो कॉन्वेंट (Loreto Abbey, Rathfarnham) से जुड़ीं, जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा सीखी ताकि भारत में मिशनरी के रूप में कार्य कर सकें। अगले ही वर्ष 1929 में वे भारत आईं और दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट में नवशिक्षु प्रशिक्षण प्राप्त किया। दार्जिलिंग में प्रशिक्षण पूर्ण होने के बाद उन्हें कोलकाता के सेंट मैरी स्कूल (Loreto St. Mary’s School) में अध्यापिका के रूप में नियुक्त किया गया। जहाँ उन्होंने कई वर्षों तक बच्चों को शिक्षा दी और आगे चलकर स्कूल की हेडमिस्ट्रेस के तौर पर भी पदभार संभाला ।
दार्जिलिंग में जीवन परिवर्तन
1946 में दार्जिलिंग की यात्रा के दौरान मदर टेरेसा को एक गहरा आध्यात्मिक अनुभव हुआ, जिसे उन्होंने ‘कॉल विदइन ए कॉल’ (Call within a Call) बताया । इस अनुभव में उन्होंने महसूस किया कि ईश्वर उन्हें सबसे गरीब, बीमार और बेसहारा लोगों की सेवा के लिए बुला रहे हैं। यही क्षण उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ । इसके बाद उन्होंने शिक्षिका का पद त्यागने का निर्णय लिया और 1948 में वेटिकन से अनुमति प्राप्त कर पूरी तरह से गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा में जुट गईं। इसी वर्ष उन्होंने लोरेटो कॉन्वेंट की पोशाक उतारकर सफेद किनारी वाली सादी साड़ी धारण की और कोलकाता की गलियों में उतरकर सीधे लोगों की सेवा आरंभ की। इसी सेवा भावना ने आगे चलकर 'Missionaries of Charity' संस्था की नींव रखी जो धीरे-धीरे पूरी दुनिया में मानवता की सेवा का प्रतीक बन गई।
मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी की स्थापना
कोलकाता में 1950 में मदर टेरेसा ने 'मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी' (Missionaries of Charity) नामक संस्था की स्थापना की, जिसे आधिकारिक मान्यता 7 अक्टूबर 1950 को वेटिकन द्वारा मिली। इस संस्था का मूल उद्देश्य समाज के सबसे वंचित और असहाय वर्ग की सेवा करना था। गरीबों और भूखों को भोजन उपलब्ध कराना, बीमारों और अंतिम समय से जूझ रहे लोगों को आश्रय देना, अनाथ बच्चों को घर और शिक्षा प्रदान करना तथा कुष्ठ रोगियों और उपेक्षित लोगों की देखभाल करना था । समय के साथ यह संस्था भारत के बाहर, विश्वभर में फैल गई। जिसके बाद मदर टेरेसा के जीवनकाल में ही 'मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी' 123 देशों में 610 केंद्रों के साथ सक्रिय थी जिनमें अनाथालय, अस्पताल, वृद्धाश्रम, धर्मशालाएं और सूप किचन शामिल थे।
कोलकाता में सेवाएँ
मदर टेरेसा ने अपनी सेवा का केंद्र कोलकाता को बनाया और यहीं से मानवता की सच्ची मिसाल पेश की। 1952 में उन्होंने ‘निर्मल हृदय’ (Nirmal Hriday) की स्थापना की जो कोलकाता के कालीघाट में स्थित है। इस संस्था में सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिए गए, बीमार और असहाय लोगों को आश्रय दिया जाता था, ताकि वे अपने जीवन के अंतिम क्षण गरिमा, देखभाल और स्नेह के साथ बिता सकें। इसके साथ ही उन्होंने ‘निर्मला शिशु भवन’ (Nirmala Shishu Bhavan) की भी नींव रखी जहाँ अनाथ और बेसहारा बच्चों को घर, शिक्षा और प्यार भरा वातावरण प्रदान किया जाता था। इन दोनों केंद्रों का उद्देश्य दुनिया के भुलेबिसरे लोगों को समाज में सम्मान पहुँचाना था ।
मदर टेरेसा का व्यक्तित्व
मदर टेरेसा का व्यक्तित्व अत्यंत सरल, सौम्य और प्रभावशाली था। वे हमेशा सफेद साड़ी पहनती थी जिसपर नीली किनारी बनी रहती थी जो उनकी विशिष्ट पहचान बन गया थी । उनकी मधुर मुस्कान और कोमल वचन हर किसी के हृदय को छू लेते थे। करुणा, सहानुभूति, विनम्रता और निस्वार्थ भाव उनके व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ थीं। उनका जीवन पूरी तरह निस्वार्थ सेवा को समर्पित था। वे कभी धर्म, जाति, रंग या किसी भी प्रकार के भेदभाव में विश्वास नहीं करती थीं और हर गरीब, पीड़ित या बीमार व्यक्ति को 'ईश्वर का बच्चा' मानती थीं। उनके अनुसार सच्ची सेवा ही प्रेम का सर्वोच्च रूप है और उन्होंने अपने पूरे जीवन को इसी आदर्श पर जिया।
पुरस्कार और सम्मान
मदर टेरेसा को उनके अद्वितीय सामजिक कार्यों के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 1962 में उन्हें पद्मश्री और उसी वर्ष एशिया का प्रतिष्ठित मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त हुआ। 1979 में उन्हें विश्व का सर्वोच्च शांति सम्मान नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके बाद 1980 में भारत सरकार ने उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से पुरस्कृत किया। 1985 में अमेरिका ने भी उन्हें प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम से नवाजा। इतनी बड़ी-बड़ी उपाधियों और सम्मानों के बावजूद मदर टेरेसा का कहना था कि वे पुरस्कारों के लिए नहीं बल्कि गरीबों और असहायों की सेवा के लिए काम करती हैं और उनके लिए सेवा ही सच्चा पुरस्कार है।
आलोचनाएँ और विवाद
मदर टेरेसा के सेवा कार्यों की जितनी प्रशंसा हुई, उतनी ही बार उनकी आलोचना भी की गई। कई आलोचकों का कहना था कि उनके अस्पतालों और धर्मशालाओं में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं की कमी थी और आवश्यक दवाइयाँ तथा उचित चिकित्सकीय देखभाल उपलब्ध नहीं कराई जाती थी। उनका मानना था कि पीड़ा और कष्ट इंसान को ईश्वर के अधिक निकट ले जाते हैं, इसलिए वे शारीरिक पीड़ा को एक आध्यात्मिक अनुभव मानती थीं। कुछ लोगों ने उन पर यह आरोप भी लगाया कि वे सेवा कार्यों के साथ-साथ ईसाई धर्म के प्रचार और धर्मांतरण की ओर भी झुकाव रखती थीं। फिर भी, इन आलोचनाओं के बावजूद उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने अपने जीवन के माध्यम से लाखों गरीबों, बीमारों और बेसहारों को सहारा, सम्मान और जीवन जीने की आशा दी। इसी कारण वे दुनिया भर में करुणा और सेवा की प्रतिमूर्ति के रूप में पूजनीय बनीं।
अंतिम समय और निधन
मदर टेरेसा ने अपने जीवन के अंतिम दिनों तक गरीबों और बीमारों की सेवा को ही अपना ध्येय बनाए रखा। हालांकि बढ़ती उम्र और लगातार बीमारियों के कारण उनका स्वास्थ्य कमजोर होता गया। 5 सितंबर 1997 को 87 वर्ष की आयु में कोलकाता में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। उनके निधन की खबर से पूरा विश्व शोक में डूब गया और मानवता ने अपनी सबसे बड़ी सेविका को खो दिया। भारत सरकार ने उन्हें राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी।
जॉन पॉल द्वितीय द्वारा संत की उपाधि
मदर टेरेसा के निधन के बाद भी उनकी संस्था 'मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी' ने उनके आदर्शों को आगे बढ़ाते हुए सेवा कार्य जारी रखा और आज यह संस्था 120 से अधिक देशों में हजारों ननों और सदस्यों के साथ सक्रिय रूप से कार्य कर रही है। उनके निस्वार्थ योगदान को देखते हुए 2003 में पोप जॉन पॉल द्वितीय ने उन्हें 'धन्य' (Blessed Teresa of Calcutta) की उपाधि दी। इसके बाद 4 सितंबर 2016 को पोप फ्रांसिस ने उन्हें संत (Saint Teresa of Calcutta) के रूप में सम्मानित किया जो कैथोलिक चर्च की ओर से किसी भी व्यक्ति को दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है। इस प्रकार मदर टेरेसा इतिहास में अमर हो गईं।
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