नेपाल का भारत में विलय प्रस्ताव- क्यों ठुकरा दिया था नेहरू ने? जानिए ऐतिहासिक किस्सा

क्या वाकई नेपाल भारत में शामिल होना चाहता था? 1950 के दशक में नेपाल के राजा त्रिभुवन ने भारत में विलय का प्रस्ताव दिया था, लेकिन पंडित नेहरू ने इसे ठुकरा दिया। जानिए इस अनकही ऐतिहासिक कहानी के पीछे की सच्चाई, तर्क और राजनयिक दृष्टिकोण।

Jyotsna Singh
Published on: 14 Oct 2025 8:04 PM IST
Nepal Merger Proposal India
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Nepal Merger Proposal India (Image Credit-Social Media)

Nepal Merger Proposal India: भारतीय संस्कृति की जड़ें पूरी दुनिया में फैली हुई हैं जिसका सबसे जीवंत उदाहरण भारत के पड़ोसी देश नेपाल में देखने को मिलता है। जहां हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म सह-अस्तित्व में हैं और सदियों से एक-दूसरे को प्रभावित करते रहे हैं। नेपाल में 81.3% आबादी हिंदू है, जो इसे दुनिया के उन कुछ देशों में से एक बनाता है जहां हिंदू धर्म बहुसंख्यक है। नेपाल के काठमांडू में पशुपतिनाथ मंदिर (शिव को समर्पित) और जनकपुर (देवी सीता का जन्मस्थान) जैसे कई महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थस्थल स्थित हैं। यहां तक कि गाय को नेपाल का राष्ट्रीय पशु माना जाता है और हिंदू धर्म में इसे पवित्र होने के कारण इसका वध गैरकानूनी है। नेपाल में 81.3% आबादी हिंदू है, जो इसे दुनिया के उन कुछ देशों में से एक बनाता है जहां हिंदू धर्म बहुसंख्यक है। भारत की और नेपाल के रिश्ते हजारों साल पुराने हैं धर्म, संस्कृति और पारिवारिक संबंधों से लेकर व्यापार तक। लेकिन इतिहास के पन्नों में एक ऐसा दिलचस्प मोड़ भी दर्ज है, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। कहा जाता है कि एक समय नेपाल के राजा ने खुद भारत में विलय का प्रस्ताव रखा था। जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अस्वीकार कर दिया। सवाल यह है कि क्या यह वाकई सच था या सिर्फ इतिहास के गलियारों में फैली एक कहानी? आइए, इस पूरे अनकहे किस्से को विस्तार से समझते हैं-

अनकहा किस्सा है - नेपाल के राजा का विलय प्रस्ताव


1950 के दशक की शुरुआत में नेपाल गहरे राजनीतिक संकट से गुजर रहा था। राणा शासन का अंत हो रहा था, जनता में असंतोष था और राजशाही अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश कर रही थी। इसी समय नेपाल के राजा त्रिभुवन वीर विक्रम शाह ने भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से मुलाकात की थी।

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी आत्मकथा 'The Turbulent Years' में यह दावा किया है कि राजा त्रिभुवन ने उस समय भारत में विलय का प्रस्ताव रखा था। मुखर्जी के अनुसार, राजा चाहते थे कि नेपाल भारत का एक राज्य बन जाए ताकि राजनीतिक अस्थिरता से बचा जा सके और सुरक्षा की गारंटी मिले।

मुखर्जी ने लिखा कि यदि यही प्रस्ताव इंदिरा गांधी के सामने आता, तो शायद परिणाम सिक्किम की तरह होता। जो 1975 में भारत में आधिकारिक रूप से शामिल हो गया था। लेकिन पंडित नेहरू ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, और यहीं से एक ऐतिहासिक मोड़ आया।

भारत - नेपाल विलय पर नेहरू का निर्णय- स्वतंत्रता और संप्रभुता पर जोर

पंडित नेहरू ने नेपाल के भारत में विलय के विचार को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इसके पीछे साफ तर्क दिया कि भारत को अपने आसपास स्वतंत्र, स्थिर और मजबूत पड़ोसी देशों की जरूरत है, न कि ऐसे प्रांतों की जो भविष्य में अस्थिरता का कारण बनें।


नेहरू का मानना था कि अगर भारत अपने पड़ोसी देशों को अपने में मिलाने की नीति अपनाएगा, तो यह न केवल अंतरराष्ट्रीय मंच पर आलोचना का कारण बनेगा बल्कि भारत की गुटनिरपेक्ष (Non-Aligned) नीति को भी कमजोर करेगा।

उनकी विदेश नीति का मूल दर्शन यह था कि दक्षिण एशिया में भारत 'सहयोग का केंद्र' बने, 'वर्चस्व का नहीं।' यही कारण था कि उन्होंने नेपाल को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में रहने देना ही सही समझा।

विलय से जुड़े नेपाल के औपचारिक प्रस्ताव के पीछे की क्या थी सच्चाई

विलय से जुड़े नेपाल के औपचारिक प्रस्ताव के मुद्दे पर इतिहासकारों और शोधकर्ताओं में इस बात को लेकर मतभेद हैं। एस.डी. मुनी, जो भारत-नेपाल संबंधों के विशेषज्ञ और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रख्यात प्रोफेसर रहे हैं, इनका कहना है कि, 'राजा त्रिभुवन द्वारा भारत में विलय का कोई औपचारिक प्रस्ताव देने का दस्तावेज़ आज तक नहीं मिला।' उनके अनुसार, संभव है कि ऐसी कोई अनौपचारिक चर्चा या विचार-विमर्श हुआ हो, लेकिन औपचारिक रूप से नेपाल सरकार या राजशाही ने भारत में शामिल होने का प्रस्ताव नहीं भेजा।

जबकि कुछ विद्वान मानते हैं कि 'विलय' शब्द का प्रयोग बाद के वर्षों में बढ़ा-चढ़ाकर किया गया। उस समय नेपाल की स्थिति नाजुक थी, और राजा भारत के साथ संघीय या रक्षात्मक समझौते की बात कर सकते थे, न कि अपने देश की पूर्ण संप्रभुता समाप्त करने की।

क्या थी 1950 में हुई भारत-नेपाल संधि की पृष्ठिभूमि

1950 में ही भारत और नेपाल के बीच Peace and Friendship Treaty पर हस्ताक्षर हुए। इस संधि ने दोनों देशों के बीच खुली सीमा, व्यापार और आपसी सुरक्षा सहयोग को वैधानिक रूप दिया। इस संधि के तहत भारत को नेपाल की सुरक्षा में भूमिका दी गई, जबकि नेपाल को भारत में आर्थिक और आवागमन की स्वतंत्रता मिली। विशेषज्ञों का मानना है कि यह संधि शायद वही समझौता थी जो 'विलय' के विचार की जगह पर लाई गई थी। यानी पूर्ण एकीकरण न होकर, उसकी जगह गहरे साझे संबंधों की नींव रखी गई थी। नेहरू ने इस समझौते से यह सुनिश्चित किया कि नेपाल की स्वतंत्रता बनी रहे, जबकि दोनों देशों के बीच सहयोग की डोर मजबूत हो।

विलय पर राजनीतिक दावे और मौखिक साक्ष्य

इस घटना का जिक्र सिर्फ प्रणब मुखर्जी ही नहीं करते। जनता पार्टी सरकार में उपप्रधानमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह ने भी एक बार नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बी.पी. कोइराला से इस विषय पर चर्चा की थी।


चरण सिंह ने कहा था कि 'राजा त्रिभुवन ने भारत में विलय का प्रस्ताव दिया था, लेकिन नेहरू ने मना कर दिया।' यह सुनकर कोइराला असहज हो गए थे, जिसके बाद चंद्रशेखर ने बीच-बचाव करते हुए माहौल हल्का किया। अब इतिहास का हिस्सा बन चुकी इन मौखिक गवाहियों से यह बात तो स्पष्ट होती है कि भारत-नेपाल के बीच उस दौर में गहरे राजनीतिक संवाद हुए, लेकिन 'विलय' की बात कितनी औपचारिक थी इस बात का कोई लिखित पक्का सबूत नहीं है।

विश्व संतुलन के निर्माता बनना चाहते थे नेहरू

नेहरू भारत की स्वतंत्रता के बाद एक नए विश्व संतुलन के निर्माता बनना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि भारत को एक विस्तारवादी राष्ट्र के रूप में देखा जाए। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि,

1949 में जब चीन ने तिब्बत पर दावा जताया और एशिया में साम्यवादी प्रभाव बढ़ रहा था, तब नेहरू का ध्यान भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि पर था। यदि वे नेपाल को भारत में मिला लेते, तो यह दुनिया में गलत संदेश देता कि भारत अपने छोटे पड़ोसियों को निगल रहा है।

इसी सोच के कारण उन्होंने सिक्किम के विलय को भी 1975 तक रोके रखा, जिसे बाद में इंदिरा गांधी ने पूरा किया। नेहरू की नीति थी कि पड़ोसी के साथ मित्रता करो, लेकिन उसकी संप्रभुता का सम्मान भी करो।

नेहरू के निर्णय ने भारत और नेपाल के रिश्तों की दिशा तय कर दी। दोनों देशों के बीच 'रोटी-बेटी' का रिश्ता बना। खुली सीमाएं, आपसी व्यापार और सांस्कृतिक निकटता इसी बात का प्रमाण हैं। यही वजह है कि समय-समय पर राजनीतिक मतभेदों के बावजूद भी भारत और नेपाल का संबंध आज भी परस्पर विश्वास और साझा इतिहास पर आधारित है।

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Shweta Srivastava

Shweta Srivastava

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मैं श्वेता श्रीवास्तव 15 साल का मीडिया इंडस्ट्री में अनुभव रखतीं हूँ। मैंने अपने करियर की शुरुआत एक रिपोर्टर के तौर पर की थी। पिछले 9 सालों से डिजिटल कंटेंट इंडस्ट्री में कार्यरत हूँ। इस दौरान मैंने मनोरंजन, टूरिज्म और लाइफस्टाइल डेस्क के लिए काम किया है। इसके पहले मैंने aajkikhabar.com और thenewbond.com के लिए भी काम किया है। साथ ही दूरदर्शन लखनऊ में बतौर एंकर भी काम किया है। मैंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एंड फिल्म प्रोडक्शन में मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। न्यूज़ट्रैक में मैं लाइफस्टाइल और टूरिज्म सेक्शेन देख रहीं हूँ।

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