Premanand Ji Maharaj Satsang: आत्मसमर्पण से ही मिलती है शांति, नहीं तो जीवन रहेगा अशांत- प्रेमानंद महाराज

Premanand Ji Maharaj Satsang: प्रेमानंद महाराज जी कहते हैं कि जब तक हम ‘क्या होगा’ और ‘लोग क्या कहेंगे’ जैसे विचारों में उलझे रहते हैं, तब तक मन अशांत ही रहेगा।

Jyotsna Singh
Published on: 5 Aug 2025 7:00 AM IST (Updated on: 5 Aug 2025 7:01 AM IST)
Premanand Ji Maharaj
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Premanand Ji Maharaj (Image Credit-Social Media)

Premanand Ji Maharaj Satsang: प्रेमानंद महाराज जी ने अपने आध्यात्मिक प्रवचन में जीवन की सच्चाइयों को उजागर करते हुए बताया कि भौतिक सुख-सुविधाओं और समाजिक प्रतिष्ठा से शांति नहीं मिलती, बल्कि शांति का एकमात्र मार्ग है- ईश्वर में आत्मसमर्पण।

उनका यह प्रवचन केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि एक मानसिक चिकित्सा की तरह था जो आज की व्यस्त और तनावग्रस्त जीवनशैली में फंसे इंसान के लिए अमृत समान है। उन्होंने बताया कि जब तक हम ‘क्या होगा’ और ‘लोग क्या कहेंगे’ जैसे विचारों में उलझे रहते हैं, तब तक मन अशांत ही रहेगा। इस प्रवचन में महाराज जी ने आत्मचिंतन, भक्ति, ध्यान और समाज में सकारात्मक ऊर्जा फैलाने की महत्ता पर भी गहराई से प्रकाश डाला।

जब मन अशांत होता है, तो कोई भी सुख स्थायी नहीं होता

महाराज जी ने कहा कि आजकल व्यक्ति के पास सब कुछ होते हुए भी मानसिक शांति नहीं है। कोई धन से संपन्न है, कोई रिश्तों से, कोई प्रसिद्धि से लेकिन फिर भी मन में अशांति बनी रहती है। इसका कारण है कि वह अपने भीतर नहीं झांकता, केवल बाहर की दुनिया को संवारने में लगा रहता है।


उन्होंने समझाया कि जब मन का केंद्र ईश्वर से जुड़ता है, तभी व्यक्ति को वास्तविक आनंद और स्थायित्व मिलता है। वरना, क्षणिक सुख जैसे आते हैं, वैसे ही चले जाते हैं।

आत्मसमर्पण ही है जीवन की सबसे बड़ी विजय

प्रवचन में प्रेमानंद जी ने स्पष्ट किया कि आत्मसमर्पण कोई कमजोरी नहीं है, बल्कि सबसे बड़ी ताकत है। जब व्यक्ति अपने छोटे-छोटे अहंकारों, उम्मीदों और अपेक्षाओं को छोड़कर ईश्वर के सामने समर्पण करता है, तभी उसे भीतर की शक्ति और निर्भयता मिलती है।

महाराज जी ने कहा — जो व्यक्ति समर्पण करता है, वह हारता नहीं है। ईश्वर उसका हर संकट अपने हाथों ले लेता है। यह आत्मसमर्पण भक्ति का सार है, जो मन को निर्मल और स्थिर बनाता है।

नामजप ही है मन को शांत करने की संजीवनी

महाराज जी ने नामजप को साधना का सर्वोच्च साधन बताया। उन्होंने कहा कि नामजप से मन की चंचलता कम होती है और धीरे-धीरे वह भगवान की उपस्थिति को अनुभव करने लगता है। नामजप के बिना भक्ति अधूरी है और ध्यान के बिना जीवन में गहराई नहीं आती।

उन्होंने यह भी जोड़ा कि नामजप के समय केवल जप न हो, बल्कि उसमें भाव और प्रेम भी जुड़ा हो। तभी वह हृदय को स्पर्श करता है और भीतर का विकार बाहर निकलता है।

ध्यान और साधना से ही नियंत्रित होता है बेकाबू मन

प्रेमानंद महाराज जी ने बताया कि आज का मन इतना अस्त-व्यस्त हो गया है कि उसे साधने के लिए नियमित ध्यान और साधना जरूरी है। हर दिन कुछ मिनटों का मौन, सांस पर ध्यान और ईश्वर के स्मरण से मन को लगाम दी जा सकती है। उन्होंने समझाया कि ध्यान कोई धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि आत्मिक विज्ञान है। जिससे मन शुद्ध होता है और विचार सकारात्मक बनते हैं।

ध्यान का अभ्यास एक ऐसी दवा है जो मानसिक तनाव, चिंता और भय को समाप्त करती है।

सामाजिक दबावों से बचने के लिए बढ़ाएं आत्मबल

प्रवचन में उन्होंने समाजिक अपेक्षाओं और आलोचनाओं पर भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि एक स्त्री अगर मां नहीं बन पाई, तो समाज उसे ताने देता है। लेकिन क्या भगवान उसे कम प्रेम करता है?

उन्होंने एक स्त्री के प्रश्न के उत्तर में कहा कि, 'गंगा जी ने भी अपने 7 पुत्रों को जल में बहा दिया था, पर क्या वो मां नहीं थीं? हर महिला जो प्रेम से जीती है, वह मां होती है।' इस प्रकार प्रेमानंद जी ने समझाया कि स्व-स्वीकृति और आत्मबल से हम समाज की बातों से ऊपर उठ सकते हैं।

भक्ति में अनुशासन ज़रूरी


भक्ति केवल भाव नहीं, एक जीवनशैली है। यह स्पष्ट करते हुए महाराज जी ने कहा कि अगर हम भगवान से सच्चा प्रेम करते हैं तो हमें उनकी सेवा, ध्यान और जप में नियमितता और अनुशासन लाना चाहिए।

उन्होंने बताया कि दिन की शुरुआत अगर प्रभु के नाम से हो और अंत आत्म-चिंतन से, तो जीवन स्वयं ही सुधरता चला जाता है।

भक्ति में अनुशासन न केवल भगवान को प्रिय है, बल्कि यह मन को स्थिर करने की कुंजी भी है।

कर्म और ध्यान का संतुलन बनाना भी है भक्ति

प्रेमानंद महाराज जी ने बताया कि यह जरूरी नहीं कि आप संन्यासी बनें या दुनिया छोड़ें। आप अपने कार्यक्षेत्र में रहते हुए भी भक्ति कर सकते हैं।

उन्होंने कहा कि, 'काम करो, लेकिन अपने कर्म का केंद्र ईश्वर को बनाओ।' जब हर कर्म सेवा भावना से किया जाए, तो वह तप बन जाता है। जब हर सांस प्रभु के स्मरण में बीते, तो सांसारिक कार्य भी आध्यात्मिक अनुभव बन जाता है।

संतुलित जीवन ही है आध्यात्मिकता की सच्ची पहचान

उन्होंने बताया कि भक्ति का मतलब घर-परिवार छोड़ना नहीं है। एक गृहस्थ भी भगवान का परम भक्त बन सकता है। जरूरत है तो बस संतुलन की- काम और साधना के बीच, परिवार और ईश्वर के बीच। उन्होंने कहा कि, 'जिसने अपने जीवन में सामंजस्य बैठा लिया, वही सच्चा भक्त है।'इस संतुलन से ही व्यक्ति भीतर से सशक्त होता है और समाज में अपनी सकारात्मक छवि छोड़ता है।

समाज को बदलना है तो खुद को बदलो

प्रेमानंद जी ने प्रवचन के अंत में कहा कि समाज को बदलने के लिए हमें पहले खुद को बदलना होगा। हमारा व्यवहार, भाषा, दृष्टिकोण अगर प्रेमपूर्ण, सहनशील और ईमानदार हो, तो वह दूसरों को भी बदलने की प्रेरणा देता है। उन्होंने कहा कि 'एक भक्त का जीवन ही सबसे बड़ा प्रवचन होता है।'

जब भीतर शांति हो, तभी बाहर की दुनिया सुंदर लगेगी


प्रेमानंद महाराज जी का यह प्रवचन हमें सिखाता है कि जब तक हम भीतर से नहीं बदलेंगे, तब तक कोई उपाय काम नहीं करेगा।

शांति, समाधान और सुख पाने का एकमात्र मार्ग है- ईश्वर में विश्वास, भक्ति में अनुशासन, और समाज में सेवा। उनका हर वाक्य जीवन के व्यवहारिक स्तर पर मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है। वह कहते हैं कि 'भगवान को पाने का मार्ग मंदिर से नहीं, हृदय से होकर जाता है।'

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