Opinion: दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय..

Bureaucracy vs Meritocracy: नारायणमूर्ति के सुझाव और भारत की प्रशासनिक चुनौतियां

Yogesh Mishra
Published on: 28 Aug 2025 7:20 AM IST
Bureaucracy VS Meritocracy
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Bureaucracy VS Meritocracy (Image Credit-Social Media)

Bureaucracy VS Meritocracy: आईएएस, आईपीएस व सिविल सेवाओं की भर्ती सीधे मैनेजमेंट कॉलेजों से की जानी चाहिए। सिविल सेवा परीक्षा का सिस्टम अब खत्म कर दिया जाना चाहिए। इन्फोसिस जैसी दिग्गज आईटी कंपनी के संस्थापक नारायणमूर्ति का प्रधानमंत्री मोदी से यह आग्रह है। नारायणमूर्ति का तर्क है कि देश की प्रशासनिक मशीनरी को चलाने के लिए स्पेशलिस्ट मैनेजर होने चाहिए न कि सामान्य योग्यता वाले अफसर।

दरअसल, नारायणमूर्ति वही बात कह रहे हैं जो ‘ब्यूरोक्रेसी’ में ‘लेटरल एंट्री’ जैसी व्यवस्था के साथ क़ायम हैं। ‘लेटरल एंट्री’ में निजी सेक्टर से अनुभवी और विशेषज्ञ योग्यता रखने वालों को सीधे ‘जॉइंट सेक्रेटरी ‘ पद पर रखा जाता है। एक पुरानी, घिसीपिटी और ब्रिटिश हुक़ूमत वाली शासक व्यवस्था को बदलने की यह एक बेहतरीन पहल थी। लेकिन तमाम अच्छी पहलों की तरह लेटरल एंट्री की मेरिट बेस्ड स्पेशलिस्ट आधारित पहल आरक्षण की भेंट चढ़ गई। हमारी जाति पॉलिटिक्स ने एक और अच्छी चीज का बंटाधार कर दिया। सच्चाई यह भी है कि सिस्टम में गहरे पैठी ब्यूरोक्रेटिक व्यवस्था को ‘लेटरल एंट्री’ जैसा कोई बदलाव कतई स्वीकार्य भी नहीं होगा। बात भी सही है, कोई अपनी बादशाहत भला छोड़ना क्यों चाहेगा?

दरअसल, समस्या बहुत गहरी है। मामला ‘ब्यूरोक्रेसी’ बनाम ‘मेरिटोक्रेसी’ का है। ‘मेरिटोक्रेसी’ यानी जहां सिर्फ और सिर्फ मेरिट यानी योग्यता ही आधार है। योग्यता रट कर परीक्षा पास कर लेने की नहीं बल्कि असल काम करने की असल योग्यता, असल विशेषज्ञता। दुर्भाग्य से हम बतौर समाज और देश, इस दिशा में कभी आगे बढ़ ही नहीं सके हैं।

अंग्रेजी में एक कहावत है - ‘वन साइज फिट्स ऑल।’ यानी कोई ऐसी चीज जो हर जगह फिट हो जाये। इसे हरफ़नमौला भी कह सकते हैं। और इसी से जुड़ा मुहावरा है - ‘जैक ऑफ ऑल ट्रेड, मास्टर ऑफ नन।’ यानी आता सब कुछ है पर महारथ किसी में नहीं।

दोनों ही कहावतें हमारी ‘ब्यूरोक्रेसी’ और शासन सत्ता में पूरी तरह फिट बैठती हैं। इस कदर फिट कि उससे इतर देखने का कोई चश्मा ही हमने ईजाद नहीं किया है। जब ‘ब्यूरोक्रेसी’ को देखिए, एक परीक्षा होती है सिविल सेवा की। आईएएस, आईपीएस, पीसीएस की। परीक्षा की अर्हता बहुत ही सरल है, देश का कोई भी ग्रेजुएट इसमें बैठ सकता है। सिर्फ ग्रेजुएट्स के लिए बैंकिंग से लेकर अन्य ढेरों सरकारी नौकरियों के द्वार खुलते हैं। सो, सिविल सेवा में भी कोई अतिरिक्त या विशेषज्ञ योग्यता की जरूरत नहीं होती। वहां वही मुहावरा फिट होता है - ‘वन साइज फिट्स ऑल।’ जिसने सिविल सेवा की एंट्री परीक्षा पास कर ली वो देश के प्रशासिनक पहिये में किसी भी जगह, कहीं भी फिट हो जाता है। अब अगर कोई ग्रेजुएट आईएएस बना है या आईआईटी - आईआईएम पास व्यक्ति या एमबीबीएस पास डॉक्टर, सब मात्र आईएएस होते हैं जो हर महकमे में बैठने योग्य मान लिए जाते हैं।

एक डॉक्टर, जिसने एमबीबीएस की पढ़ाई की है। जिसकी विशेषज्ञता बीमारी का पता लगाना और इलाज करना है, वह जब आईएएस बनता है तो वित्त से लेकर कृषि और संस्कृति से लेकर राजस्व, हर तरह के विभाग को चलाने के योग्य मान लिया जाता है। एक आईआईटियन, आईपीएस बन कर सिपाही - दरोगा - थाने को देखने लगता है। पढ़ाई कुछ और, योग्यता कुछ। लेकिन काम कुछ और। क्यों नहीं एक क्वालिफाइड डॉक्टर को सिर्फ और सिर्फ स्वास्थ्य महकमा दिया जा सकता? एक इंजीनियर को उसकी इंजीनियरिंग योग्यता वाला ही काम क्यों नहीं दिये जा सकते हैं। आखिर क्या मजबूरी है कि एक आईआईएम पास आईएएस को फाइनेंस, सेल्स, मार्केटिंग, एचआर जैसे विशेषज्ञ काम नहीं दिए जाते?

एक तरफ हम विश्व की टॉप पांच अर्थव्यवस्था में जगह बनाने की बात करते हैं, 2047 तक सुपर पावर बनने की टाइम लाइन बनाते हैं, जी20 से लेकर जी7 तक में हम शामिल हैं, यूएन की सुरक्षा परिषद में जाना चाहते हैं। हम सब चाहते हैं। लेकिन ब्यूरोक्रेसी में मेरिटोक्रेसी लाने की कोशिशों में अड़ंगे जरूर डालते हैं।

दुनिया की सुपर पावर बनने की चाहत है तो जरा उनके सिस्टम को भी देख लें। अमेरिका में चुनाव हो गए, नई सरकार या नए प्रशासन को कुछ दिनों बाद काम संभालना है। इसी क्रम में नव निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रम्प ने अपने सिपहसालारों के नामों की घोषणा कर दी है। हर व्यक्ति को उसकी योग्यता, विशेषज्ञता और अनुभव के आधार पर दायित्व सौंपा गया है। जिसने जिस क्षेत्र में काम किया हुआ है, जिसे जिस काम की जानकारी है, उसे वही काम करने को मिलेगा। वहां ‘वन साइज फिट्स ऑल’ जैसी कोई चीज नहीं चलती।

इसलिए नहीं चलती क्योंकि जनता सवाल पूछती है। हर एक का पूरा कच्चा चिट्ठा जनता के सामने होता है। मीडिया एक एक नियुक्ति का विश्लेषण करता है। यही नहीं, हर जिम्मेदार नियुक्ति को सीनेट पास करता है। ऐसा नहीं कि जिसे जहां मन चाहा बिठा दिया, जहां से चाहा उखाड़ फेंका। अब तो अमेरिका में नई सरकार ने ब्यूरोक्रेसी की तगड़ी छंटाई का फैसला किया है।

बात सिर्फ अमेरिका की नहीं है। ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, फ्रांस कहीं भी नजर डालें, सिस्टम ‘मेरिटोक्रेसी’ के हवाले है। ‘वन साइज फिट्स ऑल’ का कोई मतलब नहीं। जाति तो खैर वहां कोई जानता भी नहीं। रिज़र्वेशन जैसा कोई शब्द भी उनकी डिक्शनरी में नहीं।

सच्चाई और तथ्य यह भी है कि हमारी व्यवस्था में न सिर्फ ‘ब्यूरोक्रेसी’ बल्कि उसके ऊपर बैठी राजसत्ता में भी ‘मेरिटोक्रेसी’ कभी रही ही नहीं। यह बात अनगिनत बार कही जा चुकी है। लेकिन यहां उसे फिर दोहराना प्रासंगिक होगा कि निरक्षर या अल्प शिक्षित या सर्वथा अयोग्य लोग न सिर्फ मंत्री बन जाते हैं बल्कि हर तरह के मंत्रालय चलाते रहते हैं।

आपने गेंहूँ पीसने वाली चक्की तो देखी ही होगी। अगर वह चक्की हमारी व्यवस्था या सिस्टम का प्रतिनिधित्व करती है तो चक्की का एक पाट यानी पत्थर है ‘ब्यूरोक्रेसी’ और दूसरा पत्थर है ‘पोलिटोक्रेसी।’ इन दोनों पत्थरों के बीच जिसका कचूमर निकला जा रहा है, वह है ‘मेरिटोक्रेसी।’ लेटरल एंट्री का कचूमर तो निकल चुका है, अब नारायणमूर्ति की बात का क्या होगा, ये भी देख लेते हैं।

लेकिन जरा ये भी सोच लीजिएगा कि आपको अपने घर, बिजनेस, खेत, दुकान आदि में कोई काम कराना हो तो किसे बुलाएंगे, किसी एक्सपर्ट को या यूं ही किसी को भी?

तो जनाब, हम तो देश चलाने की बात कर रहे हैं। पर देश चलाने की बात से ‘मेरिटोक्रेसी’ ग़ायब है।जिस देश में ‘ मेरिटोक्रेसी’ ग़ायब है , वहाँ भी बड़े बड़े दावे। यह बहुत अविश्वसनीय व हास्यास्पद बात लगती है। पर दावे थमने व थामने का कोई पंथ नज़र नहीं आ रहा है। शायद यही वजह है कि कभी सोने की चिड़िया कहे जाने वाले देश का गौरवशाली इतिहास हम स्थापित नहीं कर पाये। हम देश के किसी एक ज़िले को तो छोड़िये तहसील तक को विकास के सभी पैमाने पर संतृप्त नहीं कर पाये। जब दुनिया एट-जी पर चल रही हों, नाइन- टेन जी की बात कर रही हो तब हम फ़ोर जी पर इतरा रहे हैं। देश के अस्सी करोड़ों लोगों को फ़्री राशन देना पड़ रहा हो, आक्रांताओं को अपने इतिहास का हिस्सा बना लेते हों। आमदनी, सेहत, शिक्षा, बिजली, पानी, सड़क, स्वच्छता, पर्यावरण जैसे अनेक मुद्दों पर दुनिया के देशों में तीन डीजिट में हों, तब भी अगर हम नही चेतते हैं तो हमें याद रखना होगा कि हम आज भी जहां से शुरु किये थे, वहीं पर अटके हैं। हम सब अभी भी भटके हैं।

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