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दलाई लामा : सार्वभौमिक नैतिकता की एक प्रेरक दृष्टि
Dalai Lama : दलाई लामा ने भारत में उत्पन्न धर्मों — हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म — में पुनर्जन्म, कर्म और धर्म जैसे विचारों के साझा तत्वों पर जो बातें कहीं, वे अत्यंत विचारोत्तेजक थीं।
Dalai Lama (Image Credit-Social Media)
Dalai Lama: स्मरणीय भेंट और जीवंत अनुभूति : सन् 1990 की वह मुलाक़ात मेरे जीवन की सबसे गहन और अविस्मरणीय घटनाओं में से एक थी, जब मुझे परम पावन दलाई लामा से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तब से मैं इस ‘जीवित देवता’ के प्रति गहन श्रद्धा और सम्मान रखता हूँ। मेरी यह भेंट दिल्ली के अशोक होटल में हुई थी, जिसमें मुझे ले गए थे महानुभाव जनरल सुजान सिंह उबान, जो भारत-तिब्बत सीमा पर चीनी आक्रमण के बाद भारत आगमन पर दलाई लामा को प्राप्त करने वाले पहले भारतीयों में से एक थे। वे मेरे लिए एक संरक्षक जैसे मित्र रहे।
मैं आज भी vividly याद करता हूँ कि मैंने दलाई लामा से आयुर्वेद, तिब्बती चिकित्सा, भारतीय और तिब्बती ज्योतिष जैसे विषयों पर कितनी रोचक और बौद्धिक बातचीत की थी। वह हर विषय में अत्यंत उत्सुक, जानकार और गहराई से जुड़े हुए प्रतीत होते थे। एक और बात जो मेरे मन को बहुत छू गई, वह थी उनका बाबा सीताराम केशरी दास को सार्वजनिक रूप से सनातन धर्म के संदर्भ में अपना मार्गदर्शक बताना। यह उनके खुले मन और अन्य आध्यात्मिक परंपराओं के प्रति श्रद्धा को दर्शाता है।
सबसे विलक्षण बात यह थी कि हमारी 15 मिनट की निर्धारित भेंट ढाई घंटे तक खिंच गई, और जब उन्होंने मेरे हाथ थामे, उस क्षण मुझे जो शांति और जागरण की अनुभूति हुई, वह मेरे अंतर्मन में आज भी जीवित है। उस दिव्य उपस्थिति में वह सचमुच एक ‘जीवंत भगवान’ और ‘कुंडलिनी जागरण के गुरु’ की तरह प्रतीत होते थे।
भारत में जन्मे धर्मों पर साझा विश्वास
उन्होंने भारत में उत्पन्न धर्मों — हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म — में पुनर्जन्म, कर्म और धर्म जैसे विचारों के साझा तत्वों पर जो बातें कहीं, वे अत्यंत विचारोत्तेजक थीं। उन्होंने यह भी समझाया कि ये तत्व लोगों को आंतरिक रूप से ज़मीन से जोड़े रखते हैं। उनके द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक कठिन समय में दी गई करुणामयी सलाह की चर्चा भी उनकी वैश्विक करुणा की शक्ति को दर्शाती है। उनकी बातें और दृष्टिकोण यह भी स्पष्ट करते हैं कि तिब्बत की स्वतंत्रता के प्रति उनका संकल्प, उनकी दिव्यता में ही रचा-बसा है।
जीवन परिचय: आध्यात्मिक और राजनीतिक नेतृत्व की यात्रा
14वें दलाई लामा, जिनका जन्म 6 जुलाई 1935 को तिब्बत के ताकत्सेर गांव में ल्हामो धोन्डुब के रूप में हुआ, आज विश्व में बौद्ध धर्म के सबसे प्रमुख नेता और शांति, करुणा तथा मानवता के प्रतीक के रूप में जाने जाते हैं। उन्हें दो वर्ष की आयु में 13वें दलाई लामा थुब्तेन ग्यात्सो के अवतार के रूप में पहचाना गया और 1940 में ल्हासा में राजगद्दी पर बिठाया गया।
छह वर्ष की आयु में उन्होंने पारंपरिक मठीय शिक्षा प्रारंभ की, जो 1959 में गेषे ल्हाराम्पा (बौद्ध दर्शन का सर्वोच्च डिग्री) के साथ पूर्ण हुई। 1950 में मात्र 16 वर्ष की आयु में, चीन के तिब्बत पर आक्रमण के बाद उन्हें राजनीतिक और धार्मिक दोनों ही पदों की ज़िम्मेदारी निभानी पड़ी।
भारत में निर्वासन और तिब्बती अस्मिता की रक्षा
1959 में तिब्बत में असफल जनविद्रोह के बाद उन्हें भारत में शरण लेनी पड़ी, और यहीं पर उन्होंने धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) में केंद्रीय तिब्बती प्रशासन की स्थापना की, जो आज तक निर्वासन में तिब्बती सरकार का कार्य करती है। निर्वासन में रहते हुए उन्होंने न केवल तिब्बतियों के अधिकारों के लिए बल्कि अहिंसा, अंतरधार्मिक समन्वय और वैश्विक उत्तरदायित्व के लिए एक वैश्विक आवाज़ बन कर उभरे।
उन्होंने 67 से अधिक देशों की यात्राएं कीं, वैज्ञानिकों, राजनेताओं और धार्मिक नेताओं से संवाद किया और दुनिया को तिब्बत की स्थिति के प्रति जागरूक किया।
2011 में उन्होंने स्वेच्छा से अपनी राजनीतिक भूमिका से पीछे हटते हुए चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार को नेतृत्व सौंप दिया, यह साबित करते हुए कि लोकतंत्र तिब्बती भविष्य का केंद्र होना चाहिए।
शांति और करुणा के वैश्विक प्रतीक
उनकी अहिंसा और शांति के लिए प्रतिबद्धता के लिए 1989 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने अब तक 150 से अधिक वैश्विक पुरस्कार और डॉक्टरेट उपाधियाँ प्राप्त की हैं। उनकी शिक्षाएँ केवल तिब्बती समाज तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर नैतिकता, मानवाधिकार और धर्मों के बीच संवाद के विषय में अत्यंत प्रभावशाली रहीं।
वैश्विक बौद्ध धर्म के राजदूत
दलाई लामा ने बौद्ध दर्शन को वैश्विक स्तर पर समझने योग्य और प्रासंगिक बनाया है। करुणा, सजगता (माइंडफुलनेस) और समस्त प्राणियों की पारस्परिकता जैसे सिद्धांतों को उन्होंने वैज्ञानिक, तार्किक और अनुभवात्मक भाषा में प्रस्तुत किया है।
वे अंतरधार्मिक समरसता के प्रबल पक्षधर हैं और विभिन्न धर्मों के नेताओं से संवाद कर सह-अस्तित्व और सहयोग का वातावरण बनाते रहे हैं।
विज्ञान और अध्यात्म का सेतु
वे आधुनिक विज्ञान, विशेषकर न्यूरोसाइंस और मनोविज्ञान के साथ संवाद में गहरी रुचि रखते हैं। उन्होंने यह सिद्ध किया है कि आंतरिक शांति, सहानुभूति और करुणा को वैज्ञानिक रूप से समझना और प्रशिक्षित करना संभव है।
उनका यह विचार कि धार्मिक विचारों से परे “धर्मनिरपेक्ष नैतिकता” की आवश्यकता है — एक ऐसा नैतिक ढांचा जो सामान्य समझ, वैज्ञानिक चेतना और साझा मानव अनुभव पर आधारित हो — आज के वैश्विक और बहुलतावादी युग के लिए अत्यंत प्रासंगिक है।
ध्यान, मानसिक अनुशासन और जीवन की दिशा
उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि ध्यान और आत्मचिंतन का अभ्यास सिर्फ आंतरिक शांति नहीं देता, बल्कि वह हमें जीवन की सार्थकता और उद्देश्य से जोड़ता है। वे कहते हैं कि यदि हम यह अभ्यास नहीं करते, तो हम जीवन की परिवर्तनकारी क्षमता से वंचित रह जाते हैं, ठीक वैसे जैसे कोई साधु पूरे जीवन साधना करे और अंततः उसका फल न पाए।
वे एक व्यावहारिक अभ्यास सुझाते हैं — किसी ऐसे व्यक्ति का ध्यान करें, जिसे आप अत्यधिक सम्मान देते हैं, चाहे वह कोई संत हो, शिक्षक, चिकित्सक या वैज्ञानिक। उनके आचरण की करुणा और निःस्वार्थता पर चिंतन करें, और धीरे-धीरे उन्हीं गुणों को अपने भीतर विकसित करने का प्रयास करें।
उत्तराधिकार विवाद और चीन से टकराव
जैसे-जैसे दलाई लामा का 90वां जन्मदिवस (6 जुलाई) निकट आता है, उनके उत्तराधिकारी को लेकर विवाद भी गहराता जा रहा है। उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि अगला दलाई लामा भारत स्थित गदेन फोद्रंग ट्रस्ट द्वारा चुना जाएगा, और संभवतः चीन के बाहर जन्मा होगा। यह सीधे तौर पर चीन के आधिपत्य के दावे को चुनौती देता है।
जीवन के अंतिम सूत्र: नैतिकता और उत्तरदायित्व
उनकी शिक्षाओं का केंद्रीय भाव है — सर्वत्र उत्तरदायित्व (Universal Responsibility)। वे बार-बार यह कहते हैं कि हम सभी प्राणी एक-दूसरे से जुड़े हैं और हमें न केवल अपने लिए, बल्कि समूची पृथ्वी और समस्त जीवन के लिए नैतिक उत्तरदायित्व निभाना चाहिए।
अपने विराट व्यक्तित्व के बावजूद वे स्वयं को मात्र “एक साधारण बौद्ध भिक्षु” कहते हैं। यह उनकी विनम्रता और आध्यात्मिक निष्ठा का प्रमाण है।
जीवन, शिक्षा और प्रेरणा
दलाई लामा का जीवन सहनशीलता, आध्यात्मिक समर्पण और मानवीय मूल्यों की पराकाष्ठा है। निर्वासन में उन्होंने न केवल तिब्बती अस्मिता और बौद्ध परंपरा को जीवित रखा, बल्कि दुनियाभर में करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गए। वे आज के समय के सर्वाधिक सम्मानित नैतिक नेताओं में एक हैं, जिनकी शब्दों और कर्मों दोनों में गूंजती है — करुणा की सार्वभौमिक भाषा।
(लेखक डॉ. शशि दुबे, भारतीय प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के संस्थापक अध्यक्ष और जीवन-मार्गदर्शक हैं।)
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