River Pollution in India: निरन्तर निरीह होती नदी

River Pollution in India: योगेश मिश्र का चिंतन नदियों की दुर्दशा और प्रदूषण पर गहरी नजर डालता है। गंगा, यमुना, गोमती और नर्मदा जैसी पावन नदियों की वर्तमान स्थिति, संस्कृति से उनका संबंध और उन्हें बचाने की पुकार।

Yogesh Mishra
Published on: 16 Sept 2025 4:57 PM IST
River Pollution in India
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River Pollution in India

River pollution in India: मैं तहज़ीब के शहर लखनऊ के हृदय से होकर निकलने वाली गोमती के पास खड़ा था। अचानक मन ने कहा, अंजुरी भर जल लेकर आचमन कर लूं। हाथ आगे तो बढ़े किन्तु अंजुरी ने जल ग्रहण करने से मना कर दिया। गोमती में लगभग ठहरा जल व्याधिग्रस्त संस्कृति की मानिंद दूर तक पसरा था। अब मेरी अंजुरी में नहीं, मेरी आंखों में जल था। अंतस में जाने क्या-क्या कोप गया। क्या यह वही पुण्यतया है जिसे वनगमन के प्रथम चरण में आचरण पुरुष श्रीराम ने सीता और लक्ष्मण के साथ पार किया था—

गत्वा तु सुचिरं कालं ततः शीतवहां नदीम्।

गोमती गोयुतानूपाम तरतसांगरगमाम्।।

(दीर्घकाल तक चलकर उन्होंने समुद्रगामिनी गोमती नदी को पार किया, जो शीतल जल का स्रोत वहाती थी। उसके कछार में बहुत सी गायें विचरती थीं।)

क्या यह वही गोमती है? नहीं, यह उत्स युग की नदी है, जिसमें कुमति की समांतर त्रासदी प्रवाहित होती है। गोमती की 22 सहायक नदियां हैं जो गर्मियों में सूख जाती हैं। तरेउना और मैसी नदियां, जो गोमती उद्गम से 75 किलोमीटर आगे शाहजहांपुर जिले के पुवायां तहसील के बंडा के पास गोमती में विलीन हो जाती हैं। छोहा और अंधरा छोहा नदियां लखीमपुर जिले के मोहम्मदी तहसील से निकलकर गोमती में मिलती हैं, लेकिन इनमें अंधरा छोहा अब अजवा शुगर मिल का नाला बन चुकी है। गोमती की सबसे बड़ी सहायक नदी सई को सबसे अधिक जल देने वाला वेनीशावर तालाब सूख गया है। तुलसीदास ने मानस में इस नदी का वर्णन किया है—

“सई उतरी गोमती नहाए। चौवे दिवस अवधपुर आए।।”

राम को मनाने गए भरत के वन से लौटते समय का यह दृश्य है। वेता, पिरई गोन और सरायं नदियां भी नाले में तब्दील हो गईं। गोमती ही क्यों, भारत की समस्त नदियां औद्योगिक सभ्यता की अनिवार्य आपदाओं को वक्ष पर लिए सम्भवतः अंतिम यात्रा की तैयारी कर रही हैं। मनोरमा, ससुर खदेरी, उटंगन, पैला, गांगन, वरुणा, असी, बत्तुही, वकुलाही, सकरनी, चमरोरा, परइया, नहवा और मैसटा जैसी नदियां किताबों में सिमटकर रह गई हैं। गोमती को बचाने की कोशिश में 300 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं, पर इसकी निचली तह तयशुदा मानक से कई गुना जहरीली हो चुकी है।

देश में कुल 603 नदियों पर निगरानी की गई। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की ताज़ा रिपोर्ट (2022) कहती है कि इनमें से 311 प्रदूषित नदी-खंड हैं, जो 279 नदियों पर फैले हुए हैं और 30 राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में आते हैं। यानी लगभग आधी नदियाँ प्रदूषण की गिरफ्त में हैं। इनका पानी पीने तो दूर, स्नान योग्य भी नहीं है। 80 से अधिक नदियों में भारी धातुओं (आर्सेनिक, पारा, क्रोमियम, सीसा आदि) की मात्राएँ मानक से कई गुना अधिक पाई गई हैं। सतत बहने वाली नदियाँ अब गिनती की बची हैं। गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती, खारी; हरियाणा की भारमंदा; मध्य प्रदेश की खान; उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन; आंध्र प्रदेश की मुंसी और महाराष्ट्र की भीमा देश की सबसे प्रदूषित नदियों में गिनी जाती हैं।

भारत की नदियों में हर दिन 62,000 मिलियन लीटर (एमएलडी) गंदा पानी गिरता है। हमारी उपचार क्षमता महज़ 24,000 एमएलडी की है। यानी बाकी का 38,000 एमएलडी गंदा पानी प्रतिदिन सीधा नदियों में जा रहा है। यही वजह है कि हमारी नदियाँ गटर की गर्भनाल बन चुकी हैं।

नदी तो प्रतीक रही है भारतीय संस्कृति की। संस्कृति जो सजल है, निरन्तर है, अविरल है, तरंगित है। जीवन भी एक नदी है। यह नदी मीनार उठाती, मीनार होती, अचक प्रवाहित होती है। धूप में झिलमिलाती है, छांव में गुनगुनाती है। वह नदी हर शताब्दी के कान में गूढ़ रहस्यों के अर्थ उद्घाटित करती है। जहां यह मुड़ती है, वहां संस्कृतियों के ‘टर्निंग प्वाइंट’ प्राप्त होते हैं। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जातीय जीवन-प्रवाह को नदी से तौला था। जिसका प्रवाह रुके तो जड़ता, भीरुता और नाश के लक्षण प्रकट होते हैं।

जे नदी हाराये स्रोत चलिते ना पारे।

जे जात जीवन हारा अचल असार।।

ऐसा तो नहीं नदियों के प्रदूषण से हमारे आसन्न भविष्य में संकट के बादल घुमड़ रहे हों? वस्तुतः ऐसा ही है। गंगा, यमुना, नर्मदा, क्या केवल जलधाराएं हैं? ‘गंग गच्छति’ गंगा भगीरथ के तप का प्रवाह है। अमृतस्रोतवासिनी है। भीष्म की जननी है। पूरे भारत की मैया है। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि गंगा नदी जिसे भागीरथ अपने पुरखों को तारने के लिए लाए थे, वह पुरखों को तारने से तो जरा भी मैली नहीं हुई, पर पृथ्वी पर निवास करने वाले मनुष्य मां का स्थान देकर भी प्रदूषण से उसी मां का दम घोंटने की कोशिश में निरन्तर लगे हुए हैं। यमुना की हर लहर लीला पुरुषोत्तम की वंशी-धुन से आंदोलित है। इसके तट पर ब्रह्मांड और जीवात्माओं का महारास घटित हुआ है। इसमें घुलता रहा है कृष्ण का महाराग, इसमें मिलते रहे हैं राधा के प्रेमाभाव। नर्मदा चिरकुमारी का अपूर्व प्रतिबिम्ब है—प्रलय प्रभाव से मुक्त और अयोनिजा। इसके नाम पर एक पुराण भी है। इतनी पावन, इतनी मनभावन सरयू धारा में तो धरती का सर्वाधिक मर्यादित अवतार नहाया है, समाया है। राम की प्रिय सरयू।

मन फिर भटकता है कि इस गौरवगाथा से क्या लाभ? आज इन जलधाराओं की क्या स्थिति है? नर्मदा को कभी देखा है आपने? उद्गम कुंड ही मलिन है। बरमान घाट से होशंगाबाद तक लाशें दिखती हैं। मंडला, जबलपुर, होशंगाबाद आदि बड़े नगरों से न जाने कितना कूड़ा इस नदी में उड़ेला जाता है। अमरकंटक के प्राकृतिक वैभव पर भी कष्ट की स्थितियां हैं। नर्मदा प्रदूषण से कराह रही है। गंगा, यमुना, सरयू और गोमती के पुनरुद्धार हेतु कितनी सरकारी योजनाएं बनीं और मिटीं। राष्ट्रीय संपत्ति की नदियां बहा दी गईं, जिसमें अवसरवादी खूब नहाए। नदी गंगा के सुर में सुर मिलाकर कहती रही—

“राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप धोते-धोते।”

नदी के पास मानव जाति की क्या, प्रकृति की एक-एक क्रिया का लेखा-जोखा है। संस्कृतियों ने नदियों के तट ही चुने फलने-फूलने के लिए। आध्यात्मिक संस्कृति की सार्थकता एवं रमणीयता यहीं विकसित हुई। ऐसा अभिमत है कि नदी की प्रत्येक लहर के साथ लोकमानस का इतना गहरा तादात्म्य स्थापित हो गया कि जीवन के हर पग पर जल और नदी की संस्कृति ने भारतीयता को परिभाषित कर दिया। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े धार्मिक अनुष्ठान के अवसर पर घर बैठे पवित्र नदियों का स्मरण यही कहता है—

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।

नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन्सन्निधिं कुरु।।

यह स्मरण सम्भवतः आज हमें पवित्र न कर सकेगा। अज्ञेय ने ऐसे ही एक प्रसंग में चेतना का विवेचन किया था। उनके अनुसार आज यह दिखने लगा है कि भू-स्वर्ग बनाने की हमारी विधियों ने सार्वभौम नरक को तो नहीं, लेकिन अनेक नरकाय प्रदेशों की रचना में योगदान दिया है। आज हम अपनी नैतिकताओं की पुनः परीक्षा को बाध्य हैं। क्या इस परीक्षा से गुजरकर हम अपने पापों का प्रायश्चित करेंगे? क्या हम केदारनाथ अग्रवाल के अनुभव को आत्मसात कर सकेंगे—

वह चिड़िया जो चोंच मारकर

चढ़ी नदी का दिल टटोलकर

रत्न का मोती ले जाती है

वह छोटी गरबीली चिड़िया

नीले पंखों वाली मैं हूं

मुझे नदी से बहुत प्यार है।।

नदी से प्यार करना ही होगा। गंगा सहित हमारी अन्य नदियां हमारी सभ्यता, संस्कृति और जीवन संरक्षण की गौरवमयी प्रतीक हैं। इनका मौलिक स्वास्थ्य-स्वरूप लौटाना हमारा राष्ट्रीय एवं संवैधानिक कर्तव्य है। इसकी अवधारणा हमारे संविधान के 51वें अनुच्छेद में निहित है। इस दृष्टि से भी भारत की धरती को अपने वक्षामृत से जीवन देने वाली नदियों को प्रदूषण मुक्त करना ही होगा। इसके लिए सरकारी प्रयास नितांत अपर्याप्त हैं। क्योंकि राष्ट्रमंडल खेल के समय दिल्ली की यमुना को लंदन की टेम्स नदी की तरह सुन्दर बनाने का वायदा हुआ, पर यमुना के पास में कॉमनवेल्थ विलेज और अक्षरधाम मंदिर बन गए। नतीजतन, यह कार्य केवल सरकारी योजनाओं एवं प्रयोगों से पूर्ण होता नहीं दिखता। इसके लिए गैर सरकारी संगठनों, स्थानीय निकायों और आम जनमानस की सजग तथा ईमानदारीपूर्ण भागीदारी आवश्यक है।

समाज में बढ़ती हुई भौतिकवादिता तथा स्वार्थपरता की भावना पर अंकुश रखते हुए सरकार, समाज तथा समुदाय ही नहीं, जन-जन को प्रदूषण रहित नदियों के महत्त्व को समझाते हुए उसे प्रदूषणमुक्त कराने की दिशा में कदम उठाना होगा। आवश्यकता है वृहत जनजागरण की। कुछ नयी चेतना जगी तो है, जो नदियों को गटर में बदलने से रोकना चाहती है। उम्मीद है कि इस चेतना को आसेतु हिमालय सा प्रबल समर्थन प्राप्त होगा।

समय की पुकार है कि निरन्तर निरीह होती नदियों को नये प्राण दिए जाएं। हमें इस लोकोक्ति को भी निर्मूल सिद्ध करना होगा जो कहती है कि नगर के मध्य से निकलने वाली नदी और नगर के चौक में रहने वाली स्त्री नष्ट हो जाती है। नदी ने संस्कृतियों को जीवन दिया है, आज वही नदी हमसे प्राणों की भिक्षा मांग रही है। सचमुच हम कितने नीच और कृतघ्न युग में सांस ले रहे हैं। पूरी संस्कृति पर प्रदूषण के साथ कितने संकट मंडरा रहे हैं। मेधा पाटकर और राजेन्द्र सिंह सरीखे लोग ऐसे ही संकट का सामना कर रहे हैं। जल संकट के विरुद्ध एक लम्बी लड़ाई का उदाहरण हैं मेधा पाटकर और राजेन्द्र सिंह। नदी और इन्हें समवेत याद करते हुए कवि एकांत श्रीवास्तव ने कितना सटीक कहा है—

वह नर्मदा की आंख है जल से भरी हुई

जहां अनेक किश्तियां डूबने से बची हुई हैं

सत्ता के सीने पर तनी हुई बंदूक है

धरती की मांग का दीप-दिप सिंदूर है मेधा पाटकर।।

वह गंगा हो या नर्मदा, गोमती हो या यमुना—सभी को सहस्रों मेधा पाटकर और राजेन्द्र सिंह चाहिए। नदी जनसमुदाय को पुकार रही है। क्या हम तक उसकी पुकार पहुंच रही है? प्रवाह की निरन्तरता, अविरलता, निर्मलता नदी की पहली शर्त है। यह गंगा से लेकर किसी भी पवित्र नदी में पूरी नहीं हो रही है।

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