×

Ganga Nadi Ki Kahani: गंगा फिर बहेगी तोड़कर चट्टानें

Ganga Nadi Ki Kahani: गंगा केवल जल ही नहीं, वह भारतीय मानस की श्रद्धा और शुद्धि का प्रतीक भी है।

Yogesh Mishra
Published on: 17 July 2025 9:32 AM IST
The Ganga
X

The Ganga (Image Credit-Social Media)

“संध्या की इस मलिन सेज पर

गंगे! किस विषाद के संग,

सिसक-सिसक कर सुला रही तू

अपने मन की मृदुल उमंग?”

– रामधारी सिंह दिनकर

दिनकर की ये पंक्तियाँ आज से लगभग एक सदी पहले लिखी गई थीं, लेकिन आज भी उनकी हर एक पंक्ति सजीव है, सच है और शब्दशः लागू होती है। तब यह एक काव्यात्मक कल्पना थी, आज यह एक सामाजिक और पर्यावरणीय त्रासदी का यथार्थ चित्र बन गई है।

गंगा, जो युगों-युगों से भारत की आत्मा मानी जाती रही है, अब कराह रही है – नदियों की नहीं, सभ्यता की पीड़ा से। फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ का गीत अब भावनाओं में बहने वाला फिल्मी दृश्य नहीं, एक कटु और चेतावनीपूर्ण यथार्थ बन चुका है।

भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर इसलिए उतारा था कि वह पापों को धोकर पूर्वजों को मोक्ष दिलाए। किंतु आज स्थिति यह है कि हमने उसी गंगा को अपवित्र करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

गंगा: नदी नहीं, संस्कृति की रेखा है


गंगा केवल एक जलधारा नहीं है, वह भारत की सांसों में बहती सांस्कृतिक चेतना है। वह उत्तराखंड के हिमालय से निकलती है, और बांग्लादेश में सुंदरबन तक जाती है। वह भारत में 2071 किलोमीटर तक बहती है और अपने रास्ते में दस लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक भूमि को उपजाऊ बनाती है। पर क्या गंगा की महत्ता केवल इन आँकड़ों से समझी जा सकती है?

वह ऋग्वेद में पुण्यसलिला है, रामायण और महाभारत में पाप-नाशिनी, पुराणों में मोक्षदायिनी। वह आदिकाव्य पृथ्वीराज रासो से लेकर जायसी, विद्यापति, रसखान, रहीम और तुलसीदास तक के साहित्य में प्रवाहित होती है।

गंगा केवल जल नहीं, वह भारतीय मानस की श्रद्धा और शुद्धि का प्रतीक है।

गंगा को हमने क्या दिया?

हमने उसे दिया — औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक कचरा, सीवेज, शव, रसायन, मल-मूत्र, और बहते शहरों का सड़ा हुआ बोझ।

गंगा, जो कभी समृद्धि की दूत थी, अब रोगों का कारण बन गई है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश की 12% बीमारियाँ प्रदूषित गंगा जल से जुड़ी हैं।

राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के अनुसार, गंगा किनारे बसे इलाकों में पित्ताशय के कैंसर की दर पूरे देश से अधिक है।

त्वचा रोग, आंत संबंधी संक्रमण, आर्सेनिक विषाक्तता — ये सब गंगा की पीड़ा के दाग हैं।

गंगा की अमरता को मारने की योजनाएँ


गंगा की शुद्धि की क्षमता विश्वविख्यात रही है। बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु उसमें मौजूद होते हैं जो हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं। वैज्ञानिक इसकी विलक्षण ऑक्सीजन बनाए रखने की क्षमता को भी अद्वितीय मानते हैं। परंतु गंगा की आत्मशुद्धि क्षमता अब भीड़, भ्रष्टाचार और लालच में घुट रही है।

शुद्ध जल की बजाय अब गंगा विष से भरी बह रही है। इसका प्रमाण केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वह जांच है, जिसमें ऋषिकेश से लेकर बंगाल तक 23 स्थानों से लिए गए जल में कोई भी स्थान ऐसा नहीं मिला जहाँ का जल पीने योग्य हो।

घाटों पर श्रद्धा, पर गंगा के लिए कोई कर्तव्य नहीं

बक्सर, भागलपुर, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर — हर जगह गंगा जल का मानक घट चुका है। ऋषिकेश तक स्नान योग्य, और उससे आगे केवल पशुजल लायक।

हम डुबकी लगाकर पाप धोते हैं, पर गंगा की पीड़ा नहीं धोते। हम सिक्के डालते हैं, फूल बहाते हैं, मूर्तियाँ विसर्जित करते हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि हम किस अमूल्य परंपरा को मार रहे हैं।

सरकारी योजनाएँ: शोर अधिक, असर कम

गंगा एक्शन प्लान 1986 में शुरू हुआ। 3,040 करोड़ रुपए खर्च हुए। परिणाम? कुछ नहीं।

नमामि गंगे योजना 2015 में आई, लेकिन 2024 आते-आते अधिकतर ट्रीटमेंट प्लांट बंद या अनुपयुक्त हो चुके हैं।

बनारस में हर दिन 350 मिलियन लीटर गंदा पानी गंगा में जाता है। योजना है 100 मिलियन लीटर की सफाई की।

यानी योजना है, लेकिन सोच नहीं। घोषणा है, लेकिन ज़मीन पर अमल नहीं।

मीडिया की भूमिका: सतही संवेदना, गहरी चुप्पी

गंगा के लिए मीडिया ने कभी संगठित मुहिम नहीं चलाई।

मीडिया ने कभी यह नहीं बताया कि बिल्डरों ने गंगा के कोर्स को कैसे कब्जा कर लिया।

जब उद्योग लगे, तो मीडिया ने कहा “विकास हो रहा है”, पर यह नहीं बताया कि उस विकास की कीमत गंगा चुका रही है।

‘गंगा एक्शन प्लान’ की असफलता को मीडिया ने सिर्फ घोटालों के बाद उठाया।

गंगा को लेकर जारी हुए रिपोर्टों को तब ही तवज्जो मिली जब अदालतें हस्तक्षेप करने लगीं या जब निगमानंद जैसे संन्यासी की बलिदान की खबर आई।

एक गहराती त्रासदी और हमारी सामूहिक निष्क्रियता

हम सब दोषी हैं।

सरकारें इसलिए कि उन्होंने गंगा को वोट बैंक बना दिया।

मीडिया इसलिए कि उसने गंगा को सनसनी बनाया, पर मुहिम नहीं।

जनता इसलिए कि उसने गंगा को मां तो माना, पर माँ की रक्षा की जिम्मेदारी नहीं ली।

हमारे अंदर इतना भाव भी नहीं बचा कि गंगा किनारे परिन्दों को प्रेम से बुलाकर लहरों पर मुस्कुराते देख सकें।

क्या अब भी कुछ शेष है?


गंगा बहेगी, पर तब जब हम अपने मन की चट्टानों को तोड़ेंगे।

हम सब यदि एक बार भी — बिना शोर के, केवल संकल्प से — अपने हाथों से गंगा का कचरा हटाने के लिए झुक जाएं, तो हम भी भगीरथ बन सकते हैं।

हर डुबकी, हर सिक्का, हर आरती, तभी सार्थक होगी जब उसमें सेवा, जागरूकता और उत्तरदायित्व हो।

निष्कर्ष: गंगा का संकट, सभ्यता का संकट

गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया है। लेकिन संकट केवल उसकी धारा पर नहीं, उसके अस्तित्व पर है।

गंगा की अविरलता से हमारा भविष्य जुड़ा है — उसका सूखना, हमारी संस्कृति का सूखना है।

वर्ष 2030 तक वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि हिमनदों के समाप्त हो जाने से गंगा का प्रवाह मौसमी रह जाएगा।

तब न मोक्ष रहेगा, न स्नान।

न आचमन रहेगा, न पुण्य।

और अंत में — फकीर की वाणी, भविष्य की चेतावनी

“ये गंगा फिर बहेगी तोड़कर मजबूत चट्टानें

जो कचरा आपने फेंका है, हटाकर देखिए साहब…”

यदि 35 करोड़ श्रद्धालुओं के उठे हुए 70 करोड़ हाथ

श्रद्धा से सेवा में बदल जाएं —

तो गंगा फिर से निर्मल हो सकती है।

गंगा फिर से गायेगी — नहीं, करुण क्रंदन नहीं —

बल्कि जीवन का महागान।

(यह संशोधित संस्करण लेखक योगेश मिश्र द्वारा लिखे गए मूल लेख का परिष्कृत रूप है, जो ‘डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट’ में 21–22 जून 2014 को प्रकाशित हुआ था।)

Start Quiz

This Quiz helps us to increase our knowledge

Admin 2

Admin 2

Next Story

AI Assistant

Online

👋 Welcome!

I'm your AI assistant. Feel free to ask me anything!