TRENDING TAGS :
Heritage of Industries in India: उद्योगों की लाशों में लिपटी विरासत
Heritage of Industries in India: भारत की तत्कालीन अर्थ व्यवस्था को खड़ा करने वाले टाटा, बिड़ला और डालमिया उद्योग समूहों की जड़ें केवल बिहार में ही थीं।
Heritage of Industries in India (Image Credit-Social Media)
Heritage of Industries in India: बिहार में चुनाव हैं। बिहार में फिर चुनाव हैं। बिहार में चुनाव में फिर चुनावी मुद्दे हैं। बिहार में मुद्दों की भरमार है। बिहार में कथित पत्रकारों और विश्लेषकों की भरमार है। यूट्यूबरों की बाढ़ आ गई है। हर चैनल पर बिहार है। हर आंगन में बिहारी चर्चा है...लेकिन इनमें से किसी के पास न तो बिहार है और न ही बिहार की वह पुरानी तस्वीर जिसमे अखंड भारत की महान और क्रांतिकारी विरासत बसती थी। आज हर विद्वान और कथित नेता केवल जाति और इसके समीकरण की बात कर रहा। बिहार की हृदयांकित गहन बीमारी की नब्ज इस चुनाव की चर्चा और मुद्दा बन पाने से भी बहुत दूर है। पूरी कहानी एक साथ लिख पाना संभव नहीं इसलिए क्रम से वर्षवार और शासन के हिसाब से क्रमिक चर्चा की शुरुआत करने की कोशिश कर रहा हूं। ‘का बा रट ‘ लगाकर छाती पीटने वालों से यह प्रश्न करते हुए कि... बिहार में क्या था? कहां गया? कौन ले गया? कैसे ले गया?
बात की शुरुआत करते हैं बहुत पास से ही। भारत की कथित स्वाधीनता के केवल तीन साल के बाद के एक सरकारी आंकड़े से।
वर्ष 1951..
1: पूरे भारत में उस समय जितने उद्योग थे उनमें से 6. 57 प्रतिशत उद्योग केवल बिहार में ही थे।
2: वर्ष 1951 में पूरे भारत में केवल 56 चीनी मिलें स्थापित थीं। इनमें से अकेले बिहार में 33 चीनी मिलें थीं।
3: आंकड़े बता रहे हैं कि केवल चीनी मिलों का ही रोजगार प्रतिशत बिहार में लगभग 30 फीसद कायम था।
ये तीन केवल मोटे आंकड़े हैं। कल्पना कीजिए कि यह दृश्य 1951 के बिहार का है।
बिहार के बनमनखी में एशिया की सबसे बड़ी चीनी मिल होती थी। 10 हजार से अधिक श्रमिक सीधे नौकरी करते थे। 10 लाख से अधिक लोगों को यह चीनी मिल अकेले रोजगार देती थी।
विजय सुपर नाम का स्कूटर तो सभी को याद होगा। बिहार के फतुहा नामक जगह पर इस ब्रांड की फैक्ट्री थी। मुझे बहुत विश्वास है कि आज बिहार की राजनीति पर लंबी चर्चा करने वालों में से अधिकांश को फतुहा का भूगोल भी नहीं पता होगा।
पूर्णिया, दरभंगा, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, मढ़ौड़ा के पुराने उद्योगों के खंडहर कभी किसी यूट्यूबर या चैनल ने नहीं दिखाया। HEC धुर्वा यानी रांची की वर्तमान दशा पर भी कही चर्चा नहीं सुनी, यद्यपि अब यह नगर झारखंड में है।
इसी क्रम में एक और नगर याद आ रहा है। डेहरी ऑन सोन, डालमिया नगर। डालमिया उद्योग समूह ने यह नगर बसाया था। यह ऐसा औद्योगिक नगर था कि यहां वे सभी लोग अवश्य नौकरी करना चाहते थे जो टाटा , बिड़ला या किसी सरकारी संस्थान में थे। डालमिया नगर में न तो कभी बिजली कटती थी और न ही कभी पानी बंद होता था। श्रमिकों के लिए दो हजार से अधिक बेहतरीन घर बना कर समूह ने 24 घंटे बिजली और पानी की मुफ्त सुविधा के साथ दिया था। डालमिया नगर में निर्मित कागज, सीमेंट, एस्बेस्टस और अन्य उत्पादों की धूम विदेशों में भी थी। कनाडा की कुल कागज की खपत की आपूर्ति अकेले डालमिया नगर ही करता था।
भारत की तत्कालीन अर्थ व्यवस्था को खड़ा करने वाले टाटा, बिड़ला और डालमिया उद्योग समूहों की जड़ें केवल बिहार में ही थीं।
आज बिहार के कोने कोने में उन उद्योगों की लाशे सड़ रही हैं। खंडहरों की हालत कभी भी कोई देख सकता है। लेकिन ताज्जुब होता है कि इतने पास की विरासत पर भी कोई चर्चा किसी चुनाव में नहीं की जाती। बिहार की बर्बादी का रोना सभी रोते हैं लेकिन बर्बादी के कारणों और किरदारों पर कभी कोई बात भी नहीं करता।
बिहार की बर्बादी के मूल में केवल लालू प्रसाद यादव के जंगल राज को दोषी नहीं बता सकते। लालू का राज दोषी तो है ही लेकिन लालू को ऐसा करने का हथियार कहां से मिला? ऐसा क्या था कि भारत की स्वाधीनता के साथ ही बिहार का विनाश शुरू हो गया?
यह जानना बहुत दिलचस्प है। बिहार के औद्योगिक विकास और बड़ी आर्थिक शक्ति पर पंडित जवाहर लाल नेहरू की लालची दृष्टि आजादी के साथ ही पड़ चुकी थी। वे बिहार के उद्योगों के प्रबंधन में अपना भी स्थान चाहते थे। इस बारे में आगे की कड़ी में लिखेंगे। अभी यह बताना ज्यादा जरूरी है कि नेहरू ने अपने कार्यकाल में एक मॉल भाड़ा नीति बनाई। इस नीति ने ही बिहार के उद्योगों की कमर तोड़ दी। नीति यह थी कि खनिजों के परिवहन पर भारी सब्सिडी निर्धारित की गई । लेकिन निर्मित मॉल के परिवहन पर भारी शुल्क लगा दिया गया। नतीजा यह हुआ कि बिहार की खनिज संपदा का दोहन करने वालो की तो खूब कमाई होने लगी । लेकिन बिहार में निर्माण कर उत्पाद बनाने वाले उद्योग धराशाई होने लगे। नेहरू की इस नीति ने सभी उत्पादन समूहों की कमर तोड़ दी।
अब आते हैं एक अलग कहानी पर जिसमें नेहरू और इंदिरागांधी के साथ ही फिरोज गांधी की भी बड़ी सहभागिता रही। इस कहानी का दिलचस्प पहलू यह है कि जिस डालमियानगर का उल्लेख ऊपर किया गया है , उसकी सभी उत्पादन इकाइयों में यह परिवार अपनी हिस्सेदारी चाह रहा था। डालमिया समूह जब इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो फिरोजगांधी के माध्यम से एक रिपोर्ट सार्वजनिक की गई जो ठीक वैसी ही थी कैसी आजकल भारत के उद्योग समूहों के लिए हिंडनबर्ग से लाई जाती है। बिहार के जिस भी बड़े समूह ने इस परिवार का हस्तक्षेप अपने प्रबंधन में रोक दिया उसके खिलाफ फिरोज गांधी की रिपोर्ट लाई गई। इस रिपोर्ट ने संबंधित इकाई को बर्बाद कर दिया।
कांग्रेस के शासन में यह सब चलता रहा। एक एक कर उद्योग बंद होते गए। बिहार तबाही के रस्ते पर चल पड़ा। उद्योगों के लगातार खंडहर होते जाने की गति के बीच में ही लालू प्रसाद यादव की सत्ता आ गई। अभी तक या तो मरती हुई इकाइयां बची थीं या ताजे खंडहर। लालू के तंत्र के लिए यह अवसर था प्रबंधन में हस्तक्षेप और बड़ी वसूली का। लूट, अपहरण, वसूली और अपराध इतना बढ़ा कि पूरा बिहार पुराने उद्योगों की लाशों का ढेर बन कर रह गया।
Start Quiz
This Quiz helps us to increase our knowledge
AI Assistant
Online👋 Welcome!
I'm your AI assistant. Feel free to ask me anything!