आखिर कहाँ गए वे सवाल? : मीडिया की एकरसता और लोकतंत्र का संकट

Monotony of Media and Crisis of Democracy : भारत के मीडिया परिदृश्य पर नज़र डालें तो एक चिंताजनक तस्वीर उभरती है: एक ऐसा मुखर समूह जो सत्तारूढ़ दल के एजेंडे, भाषा और सुर में खूब मुखर है।

Ankit Awasthi
Published on: 16 July 2025 8:53 PM IST
Monotony of Media and Crisis of Democracy
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Monotony of Media and Crisis of Democracy (Image Credit-Social Media)

Monotony of Media and Crisis of Democracy: "प्रश्न पूछना ही पत्रकारिता का पहला कर्तव्य है, चाहे वे सत्ता को कितने भी अप्रिय क्यों न लगें।" भारत के मीडिया परिदृश्य पर नज़र डालें तो एक चिंताजनक तस्वीर उभरती है: एक ऐसा मुखर समूह जो सत्तारूढ़ दल के एजेंडे, भाषा और सुर में खूब मुखर है, जबकि सत्ता से ज़रूरी, कठिन और असुविधाजनक सवाल पूछने की आवाज़ कहीं धीमी पड़ती नज़र आती है। यह एकतरफा मुखरता सिर्फ पत्रकारिता का संकट नहीं, बल्कि समूचे लोकतंत्र और जनमानस के लिए गंभीर ख़तरा है।

क्यों है यह झुकाव? कारण जटिल हैं:

1. आर्थिक दबाव: विज्ञापन राजस्व और सरकारी विज्ञापनों पर निर्भरता। "अनुकूल" रिपोर्टिंग से पैसा आता है, "प्रतिकूल" से रुकावटें।

2. सांस्थानिक दबाव: CBI, ED, IT विभाग जैसी एजेंसियों के माध्यम से दिखाए जाने वाले "नियंत्रण" का डर। लाइसेंसों और नियमों का दुरुपयोग।

3. मालिकाना हित: मीडिया घरानों के अन्य व्यावसायिक हित अक्सर सरकारी नीतियों से जुड़े होते हैं, जो संपादकीय स्वतंत्रता को प्रभावित करते हैं।

4. विचारधारात्मक संरेखण: कुछ मीडिया संस्थानों और पत्रकारों का सत्तारूढ़ दल की विचारधारा से सचमुच सहमत होना।

5. "टीआरपी की राजनीति": विभाजनकारी और संवेदनशील मुद्दों पर अतिरंजित कवरेज से मिलने वाली टीआरपी का लालच।

जनमानस पर प्रभाव: एक खतरनाक बदलाव

यह एकतरफा मुखरता जनमानस को गहराई से प्रभावित कर रही है:

वैकल्पिक दृष्टिकोण का अभाव: नागरिकों को मुद्दों के सभी पहलुओं, विशेषकर आलोचनात्मक विश्लेषण से वंचित किया जा रहा है।

विचार की एकरसता: लगातार एक ही नैरेटिव के प्रसारण से जनता का एक बड़ा वर्ग उसी में विश्वास करने लगता है, आलोचनात्मक सोच कुंद होती है।

विभाजन का बढ़ावा: जो मीडिया सत्ता के "विरोधी" को "देशद्रोही" या "विरोधी" बताता है, वह समाज में गहरी खाईं पैदा करता है।

जनता-सत्ता के बीच सेतु का क्षरण: मीडिया का मूल काम सत्ता को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना था। एकतरफा रिपोर्टिंग इस सेतु को तोड़ रही है।

असंतोष का दमन: जनता की वास्तविक पीड़ा और असंतोष को मुख्यधारा में जगह न मिलने से वह या तो दब जाता है या हाशिए पर चला जाता है।

वे कठिन प्रश्न कहाँ हैं? क्या पूछा जाना चाहिए?

सत्ता से पूछे जाने वाले असुविधाजनक प्रश्नों का स्थान अक्सर खाली दिखता है। ये कुछ ऐसे ज़रूरी सवाल हैं जो मुखर होने चाहिए:

1. अर्थव्यवस्था पर:

बढ़ती बेरोजगारी (विशेषकर युवाओं में) और अल्परोजगार पर ठोस डेटा और ठोस योजना क्या है?

किसानों की आय दोगुनी होने के वादे और ज़मीनी हकीकत के बीच का फासला क्यों है? MSP पर संकट का समाधान?

जीएसटी संग्रह में उछाल के बावजूद राज्यों को मुआवजा क्यों कट रहा है? राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता का क्या?

अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई के कारण और निवारण?

2. सामाजिक सद्भाव पर:

घृणा भाषण और साम्प्रदायिक हिंसा पर कड़ी कार्रवाई क्यों नहीं? कानून का चुनिंदा पालन क्यों?

SC/ST/OBC आरक्षण, EWS आरक्षण पर सरकार की स्पष्ट और संवैधानिक स्थिति क्या है?

महिला सुरक्षा और लैंगिक न्याय के मोर्चे पर ठोस प्रगति क्या है?

3. पारदर्शिता और जवाबदेही पर:

चुनावी बॉन्ड योजना में पारदर्शिता की कमी और इससे उपजे प्रभाव पर सफाई?

राफेल डील, पेगासस जैसे मामलों में पूरी जानकारी और स्वतंत्र जांच की मांग क्यों नहीं?

डेटा गोपनीयता कानून (PDP Bill) में देरी और नागरिक अधिकारों पर इसके प्रभाव?

संस्थानों (न्यायपालिका, चुनाव आयोग, सीबीआई, RBI) की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम?

4. विदेश नीति पर:

चीन के साथ सीमा विवाद में वास्तविक स्थिति और कूटनीतिक रणनीति क्या है? गालवान जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के उपाय?

पड़ोसी देशों (पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश) के साथ संबंधों में उतार-चढ़ाव के पीछे की नीति?

"एंटी-एस्टैब्लिशमेंट सेंटीमेंट": एक ज़रूरी औज़ार, न कि गाली

पत्रकारिता का मूल सार ही सत्ता के प्रति संदेह और निगरानी रखना है। "एंटी-एस्टैब्लिशमेंट" होना पत्रकारिता की मूल प्रवृत्ति है, न कि कोई अपराध। इसका अर्थ है:

बिना डरे सवाल पूछना: सत्ता की हर कार्रवाई को स्वीकार न करना, बल्कि उसकी जांच-पड़ताल करना।

जनता की आवाज़ बनना: सत्ता के प्रभुत्ववादी रवैये के खिलाफ आम आदमी की चिंताओं और अधिकारों को मुखर करना।

संतुलन बनाए रखना: जब मुख्यधारा का मीडिया एक ही स्वर में गूंजे, तो वैकल्पिक और आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करना।

लोकतंत्र की रक्षा: सत्ता की निरंकुशता पर अंकुश लगाकर लोकतांत्रिक संतुलन बनाए रखना।

"एक ही तरह से सोचने वाला देश": एक भयावह संभावना

जब मीडिया विविधता खो देता है, जब कठिन सवाल नहीं पूछे जाते, जब आलोचना को "देशद्रोह" का तमगा मिलता है, तो परिणाम होता है - "एक ही तरह से सोचने वाला देश" (Monoculture of Thought)। यह स्थिति अत्यंत भयावह है:

नवाचार और विकास का अवरोध: आलोचनात्मक सोच और स्वस्थ बहस के बिना नीतिगत गलतियों को सुधारा नहीं जा सकता।

अधिनायकवाद का मार्ग प्रशस्त: बिना प्रतिरोध की सत्ता निरंकुश होने लगती है।

सामाजिक विस्फोट का खतरा: दबी हुई आवाज़ें और असंतोष जब फूटता है, तो हिंसक और अराजक तरीके से फूटता है।

लोकतंत्र की आत्मा का हनन: लोकतंत्र बहुलवाद, बहस और असहमति पर टिका होता है। इनके अभाव में वह खोखला हो जाता है।

असली मुद्दों पर वापसी ही रास्ता

भारत के सामने वास्तविक चुनौतियाँ हैं: बेरोजगारी, किसान संकट, स्वास्थ्य-शिक्षा की दुर्गति, पर्यावरणीय आपदा, लैंगिक असमानता, संस्थानों का क्षरण, सामाजिक विषमता। ये वे "असली मुद्दे" हैं जिन पर राष्ट्रीय बहस केंद्रित होनी चाहिए।

पत्रकारिता का कर्तव्य इन मुद्दों को उठाना, सत्ता से इन पर स्पष्ट जवाब मांगना और जनता को सूचित करना है - चाहे यह सत्ता को कितना भी अप्रिय क्यों न लगे। "एंटी-एस्टैब्लिशमेंट सेंटीमेंट" कोई नकारात्मक भावना नहीं; यह तो लोकतंत्र का स्वास्थ्यवर्धक है।

वह दिन शुभ होगा जब भारत का मीडिया फिर से सत्ता के सुविधाजनक प्रवक्ता की भूमिका छोड़कर, जनता के असुविधाजनक प्रश्नों के माध्यम बनेगा। क्योंकि एक जीवंत, प्रश्न करने वाला और संतुलन बनाए रखने वाला मीडिया ही किसी भी लोकतंत्र की सबसे मजबूत नींव होता है। वक्त आ गया है कि वे "कठिन प्रश्न" फिर से पूछे जाएं। जनता का हक़ है। लोकतंत्र की मांग है।

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