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Women's Motivation Story: क्या साहित्य का क्षेत्र महिलाओं के लिए नहीं है?
Women's Motivation Story:
Motivation Story Literature Field Not for Women
Women's Motivation Story: एक महिला लेखक का अपना संघर्ष होता है लिखने का, उसे सिर्फ इसलिए नहीं सरहाना चाहिए कि वह महिला है और न ही उसे सिर्फ इसलिए हल्के में लेना चाहिए कि वह महिला है। यह आशा क्यों की जाती है कि महिला लेखन सिर्फ प्रेम, रोमांस, बच्चे, परिवार, प्रकृति या विवाह, संबंध विच्छेद, कॉलेज या दुःख, तकलीफ जैसे विषयों पर ही लिखा जाता है या लिखा जाएगा। एक कम उम्र की महिला उससे कहीं अधिक सामाजिक परिस्थितियों के साथ-साथ राजनीतिक मुद्दों पर, विभिन्न क्षेत्रीय, स्थानीय मुद्दों पर या अन्य गंभीर जेरे- बहस मुद्दों पर भी अपनी राय लिख सकती है, लिखना जानती है, लिखना चाहती है। एक अधिक उम्र की महिला भी प्रेम जैसे कोमल या फेंटेसी विषयों पर लिख सकती है, लिखना जानती भी है और लिखना चाहती है। मुद्दे सिर्फ उम्र के अनुसार नहीं लिखे जाते हैं बल्कि अपने अनुभव, अपने ज्ञान, अपनी इकट्ठा की गई जानकारी से उपजे अपने विचारों से लिखे जाते हैं और वह लिख सकती है। सिर्फ फेंटेसी ही क्यों लिखें महिलाएं?
क्या लेखन के शुरुआती दौर से ही महिला लेखन पुरुषों की टिप्पणियों और उनकी सराहना के बरबक्स चलता है? कोई भी मौलिक लेखन अपने हर चक्र में संघर्ष करता है, हर रचना में बेहतर होने की कोशिश करता है और यही उसकी यात्रा है, यही उसकी मंजिल होती है। किसी एक नई महिला लेखक का नाम सामने जब आता है तो देखिए उसके लिखे पर विभिन्न व्हाट्सएप समूहों में और सोशल मीडिया पर लाइक्स और कमेंट्स की बाढ़ आने लगती है। वाह, क्या मौलिक लिखा है आपने, कितनी बढ़िया सोच है आपकी, शब्दों की जादूगर है आप, कहां-कहां से चुनकर लाती हैं आप अपने शब्द आदि आदि आदि और यह तब तक चलता रहता है जब तक कोई और नया महिला लेखन का चेहरा सामने नहीं आ जाता। खुदा न खास्ता महिला कुछ युवा या सुंदर हो तब तो क्या ही कहने, कमेंट्स के और भी वर्गीकरण हो जाते हैं।
किसी को महिला लेखक की आवाज अच्छी लगती है तो कोई उसके नृत्य का दीवाना हुए जा रहा होता है, किन्हीं को उसके लंबे, खुले बाल पसंद आते हैं तो किसी को उसका हंसना, मुस्कुराना पसंद आता है। किसी को उसके कहन को कहने से पहले उसके हाथ की भंगिमाएं पसंद आती हैं तो किसी को उसकी साड़ी। किसी चतुर सुजान को उनसे बड़ी कोई कवियत्री या रचनाकार ही नजर नहीं आती है और जो महिला लेखक इसी वाही-वाही में, इन लाइक्स, कमेंट्स तक खुद को समेट लेती है, उसका रचनाकर्म धीरे-धीरे बाधित हो जाता है।
अभी पिछले दिनों हिंदी साहित्य में पटना कांड ने खूब उछाल मारा। पूरा फेसबुक इस मुद्दे पर विचार विमर्श और पोस्ट्स से भर गया। उसी समय पंकज प्रसून की एक कविता सोशल मीडिया पर पिछले दिनों पढ़ी। उनकी इस कविता को उनसे बिना अनुमति के सधन्यवाद यहां शेयर कर रही हूं-
'नई लेखिका आई है — झपट लो, मत चूको
नई लेखिका आई है।
अभी किताब की स्याही सूखी नहीं,
और साहित्य की मंडी के गिद्ध मंडराने लगे हैं।
कोई कहता है — “तुम कमाल लिखती हो।”
उसकी नज़रों में शब्द नहीं,
उसके होंठों पर लार है।
कोई मंच का न्योता देता है —
“आओ, गोष्ठी में शान बढ़ाओ।”
लेकिन मंच नहीं चाहता कविता की गर्मी,
मंच चाहता है देह की नर्मी।
कहते हैं — “किताब की भूमिका मैं लिख दूँगा,
कविताओं की समीक्षा मैं करूँगा।”
लेकिन भूमिका में शब्दों से ज़्यादा
उस मुस्कान का रंग दिखेगा।
गोष्ठियों के बाद की पार्टियाँ होंगी।
शब्द गिरेंगे,
नज़रों का शिकंजा कसता जाएगा।
जहाँ कविता खत्म,
शिकार शुरू।
वरिष्ठ कवि, जिनकी रचनाओं पर अब कोई ताली नहीं बजती,
अब नई लेखिका की मुस्कान पर ताली बजवाना चाहते हैं।
रात को संदेश आएगा —
“तुम पर लिखी कविता भेज रहा हूँ,
समझना बस तुम ही।”
आलोचक, जिनकी समीक्षा कोई पढ़ता नहीं,
अब उसकी आँखों की नमी में संवेदना खोजेंगे।
संपादक कहेगा —
“तुम पर विशेषांक निकालेंगे,
बस एक शाम साथ बैठो।”
और अगर वो इंकार कर दे,
तो वही लेखिका अगले दिन हो जाती है —
“अहंकारी, घमंडी, और साहित्य के संस्कारों से दूर।”
ये वही लोग हैं
जो मंच पर नारी शक्ति की पूजा करते हैं,
और मंच से उतरते ही उसके चाल चलन पर अश्लील टिप्पणी करते हैं
ये वही लोग हैं
जिनकी कल्पना थक चुकी है,
अब नई रचनाएँ नहीं लिख सकते,
तो नई देह में नयापन तलाशते हैं।
नई लेखिका की कलम नहीं देखी जाती,
उसकी उम्र गिनी जाती है,
उसकी आँखों की चमक में अपनी हार छुपाई जाती है।
तो सुनो ओ साहित्य के ठरकी ठेकेदारों —
नारी की रचना को उसकी देह पर मत तौलो।
वरना वो दिन दूर नहीं
जब तुम्हारी कुर्सियाँ, तुम्हारी नीयत की तरह
बेमानी हो जाएँगी।
मंच खाली होगा।
तुम्हारा नाम मिट्टी में दब जाएगा —
जैसे तुम्हारी हवस कलम को दबा चुकी है।
इस मंडी में अब
शब्द नहीं,
स्त्री की उपस्थिति बिकती है।'
क्या कहना चाहिए इस कविता पर। यह कविता क्या आज के हिंदी साहित्य को आइना दिखा रही है या महिला लेखक की उपस्थिति को उसके शब्दों से अधिक महत्वपूर्ण बता रही है, उस पर व्यंग्य कर रही है। जो महिला लेखक खामोश किस्म की होती हैं, चपला नहीं होतीं, दर्शना नहीं होतीं, वह लाइक्स, कमेंट्स के लिए तरस जाती हैं। कभी आइएगा, मिलिएगा, चाय पीते हैं साथ में , आप मुझे लाइक दो, मैं भी आपको लाइक दूंगा, मेरे नाम पर वाही-वाही करो, मैं भी आपके नाम को प्रस्तावित करूंगा। कोई व्हाट्सएप समूह में होने पर भी व्यक्तिगत तौर पर महिला लेखिकाओं के लेखन के तारीफ करने के लिए संदेश भेजता है, तो कोई समूह में ही महिला रचनाकार की इतने तूफानी शब्दों में तारीफ कर देता है कि शायद वह खुद ही झिझक जाए और फिर से अपनी रचना को देखें कि क्या उसने ऐसा लिखा है।
महिला लेखन में लिखने की विषयों की स्वतंत्रता का क्या अर्थ होता है? लेखनी में खुलापन क्या उस महिला लेखक की उपलब्धता का प्रमाण पत्र है? महिला का आकांक्षी लेखक होना उसके ही गले की हड्डी बन जाता है। आकांक्षी लेखक होने के भी दो अर्थ हैं, साहित्य में कुछ धीर-गंभीर रचना करने का आकांक्षी होना, आकांक्षी लेखक होने का एक अर्थ है। जबकि प्रसिद्धि पाने का, सोशल मीडिया पर खुद को लाइक्स, कमेंट्स के बीच देखने का आकांक्षी होना इसका दूसरा अर्थ है। सहजता से मिलती तारीफ किसे पसंद नहीं होती और यह सहज उपलब्ध तारीफ किसी को और संघर्ष करने के लिए प्रेरित करती है तो किसी में उस तारीफ को पाने की इतनी लिप्सा भर देती है कि वह उसके लिए शो स्टॉपर कहें या शो बस्टर कहें, वह बनने के लिए खुद को तैयार कर लेती है। दरअसल यह जो एक तरह की डिमांड-सप्लाई वाली चेन होती है, इसमें कई लोग फंस जाते हैं।
काव्य गोष्ठी में आजकल मौलिक कविताएं लिखने वाले को सुनना कुछ भारी और उबाऊ लगता है लेकिन विशिष्ट संप्रेषण शैली वाली रचनाकार नामी कवियत्री की श्रेणी में आकर सहज तारीफ पा जाती हैं। क्या है इसका अर्थ? एक तरफ स्त्री स्वतंत्रता और बराबरी का गीत गाने वाला पुरुष समाज जब महिला को बराबर में उठते, बैठते, खाते, पीते, हंसते, बोलते देखता है तो उसके द्वारा उसकी सहज उपलब्धता उसके अवसर देने की स्वीकार्यता से क्यों जोड़ लिया जाता है? अब जब आज की पीढ़ी की रचनाकारों के साथ-साथ सभी महिलाओं को अपने अंदर के भावों को खुलकर लिखने की स्वतंत्रता मिल रही है तो कुछ ऐसा रचें कि महिला लेखन को अगले पायदान पर रखा जा सके, न की हमेशा के जैसे निचले पायदान पर ही उसको जगह मिले। हमेशा नंबर दो की पोजीशन अब उस तरह से स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए, जैसी की हुआ करती थी।
( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)
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