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Motivational Story: प्रकृति, परंपरा और संस्कार
Motivational Story: हमारे लिए प्रकृति का हर तत्व पूजनीय है नदी, तालाब, मिट्टी, दूब-घास, वृक्ष, फूल, फल, लता, झाड़ियाँ, पर्वत सब कुछ। यही हमारे प्रकृति-विश्वास का अद्वितीय उदाहरण है।
Nature Tradition and Culture (Image Credit-Social Media)
Motivational Story: भारतीय संस्कृति का वास्तविक आधार प्रकृति है। सृष्टि और प्रकृति को साक्षी मानकर ही भारत की मानव संस्कृति का विकास हुआ है। यह केवल एक धार्मिक या दार्शनिक धारणा नहीं, बल्कि हमारी वैज्ञानिक और सांस्कृतिक चेतना का प्रमाण है। दुर्भाग्य यह है कि आज हम अपने इसी गहन और शुद्ध दृष्टिकोण को दुनिया के सामने सही ढंग से प्रस्तुत करने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं। भारत में मनुष्य के जीवन का हर क्षण—जन्म से लेकर मृत्यु तक—प्रकृति की उपस्थिति और साक्ष्य में घटित होता है। हमारे दर्शन, कर्मकांड और अनुष्ठान सभी इसी प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप निर्मित हैं।
भारतीय परंपरा में मनुष्य प्रकृति का अभिन्न अंग माना गया है। वह न केवल इसका हिस्सा है, बल्कि उसका सांस्कृतिक दायित्व है कि वह प्रकृति और संस्कृति के बीच समन्वय बनाए रखे और सभ्यता की यात्रा में आने वाली विकृतियों से प्रकृति की रक्षा करे। यही कारण है कि हमारे हर पूजा-पाठ, पर्व और अनुष्ठान में प्रकृति को साथ रखा जाता है। जब हम पूजा करते हैं, तो ऋतुओं और मौसम के अनुसार प्रकृति के प्रतीकों को उसमें सम्मिलित करते हैं। हमारे लिए प्रकृति का हर तत्व पूजनीय है—नदी, तालाब, मिट्टी, दूब-घास, वृक्ष, फूल, फल, लता, झाड़ियाँ, पर्वत—सब कुछ। यही हमारे प्रकृति-विश्वास का अद्वितीय उदाहरण है।
भारत दुनिया का इकलौता देश है, जहाँ की जनता अपनी धरती को माता कहकर पुकारती है। हमारी नदियाँ माँ मानी जाती हैं, वनस्पतियों को औषधि और जीवन का रूप देकर हमने उन्हें अपने जीवन मूल्यों में शामिल किया है। पर्वतराज हिमालय का कैलाश शिखर तो स्वयं प्रकृति पुरुष भगवान शिव का निवास माना जाता है। भारत के अधिकांश शक्ति पीठ पर्वतों पर ही स्थित हैं, जो दर्शाते हैं कि भारतीय आध्यात्मिक चेतना और प्रकृति एक-दूसरे से अभिन्न हैं। यही प्रकृति की नैसर्गिक ऊर्जा भारत का जीवन दर्शन है, और इसलिए प्रकृति के हर घटक की रक्षा करना भारतीय संस्कृति में धर्म का हिस्सा है।
लेकिन हाल के वर्षों में हमने इस प्राकृतिक समन्वय को कहीं न कहीं भंग किया है। पश्चिमी विकास मॉडल की नकल में हमने नदियों के प्रवाह को रोका, बाँध बनाए और जल की स्वाभाविक गति को बाधित किया। गंगा का प्रवाह रोकना, भारतीय चेतना के लिए वैसा ही है जैसे जीवन की गति को रोक देना। गंगा केवल नदी नहीं है, वह भारतीय जीवन की धारा है। जब हम उसके प्रवाह को रोकते हैं, तो यह हमारे जीवन की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक गति को भी बाधित करता है। यही बात अन्य नदियों और जल-प्रवाहों पर भी लागू होती है। नदियों के आपस में जोड़ने की हमारी परंपरागत भारतीय कल्पना सकारात्मक हो सकती थी, लेकिन हमने उसका सम्यक् उपयोग नहीं किया। आज उसके दुष्परिणाम हमारे सामने हैं।
भारतीय जीवन के संस्कार और परंपराएँ भी प्रकृति की लय से ही उत्पन्न होती हैं। शोडश संस्कार—जन्म, नामकरण, अन्न प्राशन, कर्णवेध, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ, संन्यास और अंत्येष्टि तक—हर एक में प्रकृति की उपस्थिति अनिवार्य है। इन सभी का आयोजन प्राकृतिक काल-गणना के अनुसार होता है। तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण—ये पाँच तत्व हमारे पंचांग के आधार हैं, जिनसे हम शुभ मुहूर्त और कर्मों का समय निर्धारित करते हैं। यह भी प्रकृति से ही प्राप्त एक अद्भुत विज्ञान है।
इस प्रकार, भारतीय संस्कृति की श्वास और प्राण प्रकृति है। यदि हम वास्तविक और स्थायी विकास चाहते हैं, तो हमें अपने जीवन दर्शन और परंपराओं को पुनः प्रकृति के अनुरूप करना होगा। क्योंकि प्रकृति से विचलन, अंततः हमारे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वरूप से विचलन है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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