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Meerut News: बहुजन राजनीति की जंग में मायावती का पलटवार: 'कांशीराम के नाम पर दलितों को गुमराह करने की साजिश चल रही है'
Meerut News: यूपी की सियासी सरजमीं को ध्यान में रखते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती ने जैसा सियासी तीर चलाया है, उसकी गूंज दूर तक सुनाई दे रही है।
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Meerut News: पश्चिम यूपी की सियासी सरजमीं को ध्यान में रखते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती ने जैसा सियासी तीर चलाया है, उसकी गूंज दूर तक सुनाई दे रही है। पार्टी की रीढ़ माने जाने वाले दलित वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिशों पर नाराजगी जाहिर करते हुए मायावती ने अप्रत्यक्ष तौर पर आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद और उनके जैसे अन्य संगठनों पर बड़ा हमला बोला।
उन्होंने साफ कहा कि "कांशीराम और मेरे नाम का इस्तेमाल करके कुछ संगठन बहुजन समाज को भटका रहे हैं।"यह बयान यूं ही नहीं आया। इसके पीछे न सिर्फ राजनीतिक जमीन का संकट है, बल्कि उस वैचारिक वर्चस्व की जंग भी है, जिसे बसपा पिछले तीन दशकों से संभाले हुए है।
चेतावनी के पीछे रणनीति या बेचैनी?
मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद और बिजनौर समेत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके जहां कभी बसपा की मज़बूत पकड़ हुआ करती थी, वहीं अब चंद्रशेखर जैसे युवा नेता लगातार सक्रिय हैं। मायावती ने इस मौके पर चेताया कि कुछ जातिवादी ताकतें दलितों के बीच भ्रम फैलाने के लिए ‘हमारे प्रतीकों’ का इस्तेमाल कर रही हैं। उनका इशारा साफ था—बाहरी लोग बसपा की शैली और मूवमेंट की भाषा अपनाकर उसका आधार तोड़ना चाहते हैं।
ईवीएम और 'सिस्टम' पर फिर सवाल
मायावती ने ईवीएम को लेकर भी पुराना मुद्दा दोहराया। उन्होंने दावा किया कि सत्ताधारी ताकतें ईवीएम में गड़बड़ी कराकर बसपा को चुनावों में हराने का षड्यंत्र रच रही हैं। उनका कहना था कि इससे पार्टी के समर्थकों का मनोबल टूटे और वोटों का बिखराव हो। दिलचस्प बात यह है कि जिस मुद्दे से बसपा अब तक दूरी बनाकर चलती थी, उसी पर अब विपक्ष की भाषा बोलती नजर आई।
नई पीढ़ी बनाम पारंपरिक नेतृत्व
बहुजन राजनीति आज दो धाराओं में बंटी दिखती है—एक ओर मायावती का अनुशासित संगठनात्मक मॉडल, तो दूसरी ओर चंद्रशेखर जैसा सड़क पर उतरकर संघर्ष करने वाला नेतृत्व। युवाओं के बीच बढ़ते असंतोष और नए चेहरों की स्वीकार्यता ने मायावती को अब मजबूर कर दिया है कि वह खुद को ‘असली वारिस’ के तौर पर फिर से स्थापित करें।
क्या बसपा के लिए वापसी का मौका है?
यह बयान केवल विरोधियों को चेतावनी नहीं, बल्कि बसपा की अपनी रणनीति का ऐलान भी है। पार्टी मान रही है कि विरोधी ताकतें जानबूझकर 'बसपा जैसी' दिखने वाली पार्टियां और संगठन खड़े कर रही हैं ताकि दलित समाज में भ्रम फैले। ऐसे में मायावती अब अपने पुराने गढ़ों पर फिर से फोकस कर रही हैं।
बहरहाल,मायावती का यह सियासी प्रहार एक तरफ जहां बहुजन राजनीति में नेतृत्व के संकट को उजागर करता है, वहीं दूसरी तरफ यह संकेत भी देता है कि बसपा अब चुप नहीं रहने वाली। सवाल यही है—क्या यह चेतावनी बसपा की नई शुरुआत का संकेत है या बीते दौर की गूंज भर?
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