इश्क में अब शारीरिक संबंध रेप नहीं, हाईकोर्ट का एक ऐसा फैसला सबको जानना चाहिए

Allahabad High Court: यह निर्णय महोबा जिले की एक महिला द्वारा अपने सहकर्मी लेखपाल पर लगाए गए गंभीर आरोपों की याचिका को खारिज करते हुए सुनाया गया।

Snigdha Singh
Published on: 13 Sept 2025 1:59 PM IST
इश्क में अब शारीरिक संबंध रेप नहीं, हाईकोर्ट का एक ऐसा फैसला सबको जानना चाहिए
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High Court on Sexual Relation: न्यायपालिका से एक अहम और दूरगामी प्रभाव डालने वाला फैसला सामने आया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि कोई महिला लंबे समय तक अपनी सहमति से किसी पुरुष के साथ प्रेम संबंधों में रहती है और दोनों के बीच सहमति से शारीरिक संबंध बनते हैं, तो उसे कानून की दृष्टि से दुष्कर्म नहीं माना जा सकता। यह निर्णय महोबा जिले की एक महिला द्वारा अपने सहकर्मी लेखपाल पर लगाए गए गंभीर आरोपों की याचिका को खारिज करते हुए सुनाया गया।

पहले समझे क्या था केस

यह मामला महोबा जिले के चरखारी थाना क्षेत्र का है। याचिका दायर करने वाली महिला ने आरोप लगाया था कि 2019 में उसके सहकर्मी लेखपाल ने उसे जन्मदिन की पार्टी के बहाने बुलाकर नशीला पदार्थ खिलाया और फिर उसके साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाए। महिला के अनुसार आरोपी ने इस दौरान उसका वीडियो भी बना लिया और बाद में उसे ब्लैकमेल करता रहा।

पीड़िता का कहना था कि आरोपी ने उसे शादी का झूठा वादा करके चार साल तक संबंध बनाए लेकिन अंत में जातिगत कारणों का हवाला देते हुए शादी से इनकार कर दिया। उसने जब पुलिस में शिकायत दर्ज करानी चाही, तो अधिकारियों ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। निराश होकर उसने SC/ST विशेष अदालत में परिवाद दाखिल किया, लेकिन वहां से भी उसे राहत नहीं मिली। इसके बाद उसने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

आरोपी की तरफ से दी गई दलीलें

आरोपी लेखपाल की ओर से पेश वकील ने कई महत्वपूर्ण बिंदु उठाए। उन्होंने बताया कि पीड़िता ने पहले खुद लिखित में पुलिस कार्रवाई से इनकार किया था। यह भी दावा किया गया कि आरोपी ने जब पीड़िता से उधार दिए गए दो लाख रुपये वापस मांगे, तो उसने बदले की भावना से यह मुकदमा दर्ज कराया। वकील ने अदालत को यह भरोसा दिलाया कि दोनों पक्षों के बीच संबंध आपसी सहमति से बने थे और महिला का दावा केवल आर्थिक विवाद की वजह से किया गया एक प्रतिशोधात्मक प्रयास है।

हाईकोर्ट का अहम फैसला

न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल की एकल पीठ ने सुनवाई के बाद स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि कोई महिला यह जानती है कि सामाजिक, जातिगत या अन्य कारणों से विवाह संभव नहीं है फिर भी वह स्वेच्छा से लंबे समय तक शारीरिक संबंध बनाए रखती है, तो ऐसे मामले में इसे दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता। अदालत ने यह भी कहा कि दोनों के बीच कई वर्षों तक चलने वाला संबंध पूरी तरह से आपसी सहमति पर आधारित था और इसमें बल प्रयोग या धोखाधड़ी का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला।

कानूनी और सामाजिक महत्व

यह फैसला उन मामलों के लिए मिसाल बन सकता है, जिनमें विवाह का वादा और सहमति से बने शारीरिक संबंधों को दुष्कर्म के रूप में पेश किया जाता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि केवल शादी का वादा करना और फिर शादी न कर पाना, तब तक दुष्कर्म नहीं माना जा सकता जब तक यह साबित न हो कि वादा छलपूर्वक किया गया था और महिला की सहमति धोखे से ली गई थी।

इस फैसले के दो महत्वपूर्ण संदेश हैं

कानूनी रूप से सहमति का महत्व: यदि संबंध आपसी सहमति से बने हैं और महिला को पूरी स्थिति की जानकारी थी, तो इसे आपराधिक कृत्य नहीं माना जा सकता।

शादी का वादा और कानून का दुरुपयोग: कोर्ट ने यह भी संकेत दिया कि केवल शादी का झांसा देने का आरोप लगा कर किसी को आपराधिक रूप से दोषी ठहराना, यदि प्रमाणहीन हो तो न्याय प्रणाली का दुरुपयोग हो सकता है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला भारतीय न्याय प्रणाली में एक निर्णायक मोड़ की तरह देखा जा रहा है। यह न सिर्फ सहमति की कानूनी परिभाषा को स्पष्ट करता है बल्कि सामाजिक संबंधों और वैवाहिक वादों के बीच की कानूनी सीमाओं को भी रेखांकित करता है। इस निर्णय से भविष्य में ऐसे कई मामलों की जांच और सुनवाई की दिशा तय हो सकती है, जहां सहमति और धोखे के बीच की महीन रेखा को पहचानना आवश्यक होता है। यह फैसला कानून के दुरुपयोग की प्रवृत्ति पर भी एक गंभीर चेतावनी है।

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