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UP का वो दौर जब माफिया की चलती थी सरकार! एक इशारे पर बंद हो जाते थे थाने, गोलियों से तय होती थी सत्ता और बाहुबली बनाते थे कानून
The Real Gangs of UP: उत्तर प्रदेश में एक ऐसा दौर जब माफिया चलाते थे सरकार, थाने बंद होते थे इशारे पर, सत्ता तय होती थी गोलियों से, और कानून बनते थे बंदूक से।
The Real Gangs of UP: एक समय था जब सूरज उगता नहीं था, बल्कि बाहुबलियों की मर्जी से निकलता था। गलियों में हवा नहीं, बल्कि खौफ का साया मंडराता था। सड़कों पर गाड़ियां नहीं, बल्कि मौत का जुलूस गुजरता था। एक ऐसा दौर, जब उत्तर प्रदेश की धरती पर कलम की जगह बंदूक और कानून की जगह माफिया की जुबान चलती थी। यह कोई फिल्मी कहानी नहीं, बल्कि उस भयानक सच्चाई का काला अध्याय है, जिसने एक पूरे प्रदेश को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। जब सफेद कुर्ता, महंगी गाड़ी और राजनीतिक रसूख के पीछे खून-खराबा और अपराध की एक ऐसी दुनिया थी, जिसकी कल्पना भी रूह कंपा देती है।
आज जब यूपी में बुल्डोजर बाबा का राज है और माफियाओं की कमर तोड़ी जा रही है, तो शायद नई पीढ़ी को यकीन न हो कि कभी इसी धरती पर अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी, हरिशंकर तिवारी जैसे नाम किसी सनसनीखेज फिल्म के विलेन नहीं, बल्कि हकीकत के सबसे बड़े 'डॉन' थे। वे सिर्फ अपराधी नहीं थे, बल्कि एक ऐसी समानांतर सरकार चला रहे थे, जहां उनके फैसले ही कानून होते थे। वे सिर्फ जमीन नहीं हड़पते थे, बल्कि लोगों की इज्जत, सुकून और यहां तक कि जान भी छीन लेते थे। क्या था वो दौर? कैसे माफियाओं ने राजनीति, पुलिस और समाज को अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया था? और क्यों दस-दस जज एक डॉन का केस सुनने से मना कर देते थे? आज हम उस 'माफिया राज' के एक-एक पन्ने को पलटेंगे और जानेंगे कि कैसे यूपी की धरती पर बाहुबल का यह साम्राज्य खड़ा हुआ।
सत्ता का खेल और अपराध का संगम
आपने सुना होगा कि राजनीति में अपराधीकरण होता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में एक समय ऐसा था, जब अपराधी ही राजनीति चला रहे थे। यह खेल रातों-रात नहीं हुआ। इसकी शुरुआत हुई 80 के दशक में, जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में जातिगत समीकरणों ने बाहुबलियों को राजनीति का खुला मंच दे दिया। हरिशंकर तिवारी, जिन्हें यूपी का पहला माफिया डॉन कहा जाता है, ने यह साबित कर दिया कि बंदूक की नोक पर सिर्फ कारोबार नहीं, बल्कि कुर्सी भी जीती जा सकती है। गोरखपुर के चिल्लूपार से उनका चुनाव लड़ना और लगातार कई बार विधायक बनना कोई सामान्य घटना नहीं थी। यह एक ट्रेंड की शुरुआत थी, जिसने दिखाया कि अगर आपके पास ‘ताकत’ है, तो जनता आपको सर-आंखों पर बिठा सकती है।
लेकिन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अगर हरिशंकर तिवारी थे, तो उनके सामने वीरेंद्र प्रताप शाही जैसा एक और बाहुबली था। इन दोनों के बीच की दुश्मनी ने पूर्वी यूपी को एक युद्ध का मैदान बना दिया था। गोलियां चलती थीं, लाशें गिरती थीं और पुलिस सिर्फ तमाशा देखती रह जाती थी। ठाकुरों और ब्राह्मणों के बीच की यह लड़ाई सिर्फ राजनीतिक वर्चस्व के लिए नहीं थी, बल्कि यह साबित करने की होड़ थी कि किसका खौफ बड़ा है। इस दौरान, कई छोटे-बड़े अपराधी इन गिरोहों में शामिल हो गए, उन्हें संरक्षण मिला और बदले में वे अपने 'गॉडफादर' के लिए खून-खराबा करने लगे। यह एक ऐसी व्यवस्था थी, जहां माफिया, नेता और अपराधी एक-दूसरे के पूरक बन चुके थे।
अतीक अहमद: खौफ की वो कहानी जो भुलाए नहीं भूलती
जब हम 'यूपी माफिया' की बात करते हैं, तो प्रयागराज के अतीक अहमद का नाम सबसे ऊपर आता है। यह वह नाम है, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके खौफ का आलम यह था कि पुलिसवाले भी उसके सामने थर-थर कांपते थे। एक समय उसने अपने घर में कई पुलिसकर्मियों को बंधक बना लिया था। सोचिए, एक अपराधी ने खाकी वर्दी को चुनौती दी और कानून का मजाक उड़ाया, फिर भी उस पर कोई सीधी कार्रवाई नहीं हुई। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाला मामला तब सामने आया, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के 10 न्यायाधीशों ने उसके केस की सुनवाई से इनकार कर दिया। क्या आप सोच सकते हैं? न्यायपालिका ने खुद ही अपने हाथ खड़े कर दिए। यह सिर्फ अतीक की ताकत नहीं थी, बल्कि यह उस पूरे सिस्टम की विफलता थी, जो माफियाओं के सामने घुटने टेक चुका था। अतीक सिर्फ प्रयागराज तक सीमित नहीं था, उसका नेटवर्क देश भर में फैला हुआ था। जमीन हड़पने से लेकर रंगदारी और हत्या तक, ऐसा कोई अपराध नहीं था, जिसमें उसका नाम न हो। उसकी कहानी यह बताती है कि कैसे राजनीतिक संरक्षण ने एक साधारण अपराधी को एक ऐसे राक्षस में बदल दिया, जिसका डर हर जगह व्याप्त था।
मुख्तार अंसारी: पूर्वांचल का 'डॉन' और जेल से चलता 'साम्राज्य'
पूर्वांचल की गलियों में मुख्तार अंसारी का नाम भी उसी खौफ की तरह गूंजता था। उस पर अपने सांप्रदायिक एजेंडे को बढ़ावा देने का आरोप था। कहा जाता है कि उसने एक बार अपने इलाके में एक पुलिस स्टेशन तक बंद करवा दिया था। यह किसी भी कानून-व्यवस्था के लिए एक सीधा-सीधा तमाचा था। मुख्तार सिर्फ अपनी 'ताकत' के लिए नहीं, बल्कि अपने आपराधिक नेटवर्क को जेल से चलाने के लिए भी कुख्यात था। जेल में रहते हुए वह मोबाइल फोन का इस्तेमाल करता था, अपने गुर्गों को आदेश देता था और अपना आपराधिक कारोबार चलाता रहता था। उसके नेटवर्क में भ्रष्ट अधिकारी और पुलिसकर्मी भी शामिल थे, जो उसे हर कदम पर मदद करते थे। यह दिखाता है कि माफियाओं ने न सिर्फ समाज को, बल्कि सरकारी व्यवस्था को भी पूरी तरह से खोखला कर दिया था। मुख्तार की कहानी यह बताती है कि कैसे अपराधी जेल को भी अपना मुख्यालय बना लेते थे। जेल उनके लिए एक सुरक्षित पनाहगाह थी, जहां से वे बिना किसी डर के अपना 'साम्राज्य' चला सकते थे।
ब्रजेश सिंह: ‘साइलेंट किलर’ जिसकी गोलियां कम, रणनीति ज़्यादा बोलती थी
जब यूपी के माफिया राज की बात होती है, तो ब्रजेश सिंह का नाम किसी विस्फोट की तरह दिमाग में गूंजता है। वह अतीक या मुख्तार की तरह अखबारों की सुर्खियों में रोज़-रोज़ नहीं आता था, लेकिन उसका नेटवर्क, उसका दिमाग और उसकी चुपचाप की जाने वाली रणनीतियां पूर्वांचल में एक 'साइलेंट किलर' का डर पैदा करती थीं। गाजीपुर से निकलकर बनारस, मऊ, चंदौली और बलिया तक उसका प्रभाव था। कहा जाता है कि ब्रजेश सिंह की पहुंच सिर्फ अपराध की दुनिया तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि वह उत्तर प्रदेश के सबसे संगठित अपराध सिंडिकेट का मास्टरमाइंड था। वह खुलेआम गोलियां नहीं चलवाता था, बल्कि फोन पर एक इशारा करता और विरोधी ग़ायब हो जाता।
ब्रजेश की असली ताकत थी उसकी 'कूटनीतिक माफिया पॉलिटिक्स'। उसने अपना पूरा साम्राज्य एक कॉर्पोरेट जैसी शैली में चलाया। उसके संगठन 'क्राइम इंफ्रास्ट्रक्चर' की तरह थे जिसमें सटीक टारगेटिंग, फाइनेंशियल प्लानिंग और लॉबीिंग का पूरा तंत्र था। ब्रजेश सिंह का नाम मुख्तार अंसारी से टकराव के लिए भी जाना जाता है। 2000 के दशक की शुरुआत में मुख्तार और ब्रजेश के बीच गैंगवार ने पूर्वांचल की सड़कों को खून से रंग दिया था। दोनों के बीच की दुश्मनी इतनी कड़वी थी कि एक दौर में पूर्वांचल ‘वर्चस्व की लड़ाई’ में जलता रहा। उस पर आरोप हैं कि उसने रेलवे ठेकों से लेकर कोयला खनन तक हर सेक्टर में अपना हाथ डाला। और फिर धीरे-धीरे उसने राजनीति में भी अपने कदम रखे। 2010 के बाद ब्रजेश सिंह ने अपना रूप बदलते हुए खुद को ‘नेता’ की छवि देने की कोशिश की और यह रणनीति काफी हद तक सफल भी रही। उसकी छवि एक ‘सुधरे हुए डॉन’ की बनने लगी जो अब खून नहीं बहाता, लेकिन हर निर्णय में उसकी छाया रहती है।
माफियाओं के काम करने का तरीका: 'सत्ता' और 'बंदूक' का गठजोड़
यह सिर्फ हरिशंकर तिवारी, अतीक या मुख्तार की कहानी नहीं थी। सुधाकर सिंह, गुड्डू सिंह, गब्बर सिंह, उधम सिंह, योगेश भदौरा, बदन सिंह बद्दो जैसे न जाने कितने नाम यूपी पुलिस की 'माफिया सूची' में शामिल थे। इन सभी के काम करने का एक ही तरीका था:
1. राजनीतिक संरक्षण: इन माफियाओं को समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टियों का खुला संरक्षण मिलता था। ये पार्टियां उन्हें चुनाव में टिकट देती थीं, बदले में वे वोट हासिल करने के लिए बूथ कैप्चरिंग और डराने-धमकाने का काम करते थे। यह 'लेन-देन' का एक ऐसा खेल था, जिसने अपराध को राजनीति का अटूट हिस्सा बना दिया।
2. धन और शक्ति का प्रदर्शन: ये बाहुबली महंगे कपड़ों, महंगी गाड़ियों और लाखों की संपत्ति का खुला प्रदर्शन करते थे। यह युवाओं को आकर्षित करने का एक तरीका था। वे यह दिखाते थे कि अगर आप उनकी तरह 'पावरफुल' बनना चाहते हैं, तो अपराध की दुनिया में आपका स्वागत है।
3. अवैध गतिविधियां: जमीन हड़पना, अवैध खनन, जबरन वसूली, रेलवे और सरकारी ठेकों पर कब्जा करना, और यहां तक कि हत्याएं भी इनके लिए आम बात थी। वे अपनी बाहुबल और बंदूक की शक्ति का इस्तेमाल करके सब कुछ हासिल करते थे। ठेके पाने के लिए तो वे किसी भी हद तक चले जाते थे।
4. चुनाव में हेर-फेर: चुनाव जीतना उनके लिए सबसे जरूरी था। इसके लिए वे बूथ कैप्चरिंग करते थे, लोगों को डराते थे और विरोधियों को मारना तो उनके लिए आम बात थी।
योगी आदित्यनाथ और 'जीरो-टॉलरेंस' की नई कहानी
लेकिन हर कहानी का एक अंत होता है। 2017 में जब योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने शपथ के साथ ही माफियाओं के खिलाफ 'युद्ध' छेड़ने की घोषणा कर दी। 'माफिया राज का अंत' अब सिर्फ नारा नहीं, बल्कि सरकारी नीति बन गई। योगी सरकार ने माफिया नेटवर्क पर 'जीरो टॉलरेंस' नीति अपनाई। मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, बद्दो, गुड्डू सिंह जैसे दर्जनों डॉन जेलों में ठूंसे गए, और उनकी हजारों करोड़ की अवैध संपत्तियों को जब्त या ध्वस्त कर दिया गया। सरकारी बुलडोज़र अब केवल सड़कें नहीं बनाते, बल्कि माफियाओं के 'महल' गिराने के लिए चलाए जाते हैं। 2023 में जब अतीक अहमद को उसके भाई अशरफ के साथ सरेआम गोली मारी गई, तो जनता के एक हिस्से ने इसे 'इंकार का जवाब' बताया और कानून के आगे उम्मीद की एक लौ जली। सरकार का दावा है कि इस नीति ने यूपी में माफिया राज को काफी हद तक नियंत्रित किया है। आज भले ही हालात पहले से बेहतर हैं, लेकिन वह खूनी दौर और माफियाओं का खौफ आज भी यूपी के लोगों की यादों में जिंदा है। यह कहानी सिर्फ अपराध और बाहुबल की नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी चेतावनी है कि अगर कानून और व्यवस्था कमजोर हो जाती है, तो समाज में अराजकता का जन्म होता है और माफिया ही ‘भगवान’ बन जाते हैं।
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