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महाकुंभ को लेकर एक और सरकारी दावा निकला ग़लत! 30 हज़ार टन कचरे पर सरकार ने छुपाया सबसे बड़ा सच, स्वच्छ भारत मिशन की खुली पोल

Mahakumbh garbage scam: सरकार ने बड़े-बड़े दावे किए: "30 हज़ार मीट्रिक टन कचरा पैदा हुआ, लेकिन सबका 'वैज्ञानिक' तरीके से निपटारा किया गया!" 30 हज़ार मीट्रिक टन? ज़रा अंदाज़ा लगाइए, ये लगभग साढ़े छह हज़ार एशियाई हाथियों के कुल वज़न के बराबर है।सोचिए, इतने विशाल कचरे का ढेर कहाँ गया? क्या यह सच में 'गायब' हो गया, या सिर्फ़ 'दावे' कागज़ों तक ही सीमित रह गए?

Harsh Srivastava
Published on: 28 Jun 2025 6:57 PM IST (Updated on: 28 Jun 2025 6:59 PM IST)
महाकुंभ को लेकर एक और सरकारी दावा निकला ग़लत! 30 हज़ार टन कचरे पर सरकार ने छुपाया सबसे बड़ा सच, स्वच्छ भारत मिशन की खुली पोल
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Mahakumbh garbage scam: धर्म, आस्था और गंगा के निर्मल जल का संगम, प्रयागराज का महाकुंभ 2025... दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन, जहाँ 45 दिनों में 66 करोड़ से ज़्यादा श्रद्धालु पुण्य की डुबकी लगाने का दावा किया गया। सरकार ने इस आयोजन को 'स्वच्छता' का एक नया गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड बताया, पीएम मोदी के 'स्वच्छ भारत अभियान' की जीत का डंका पीटा गया। तस्वीरों में सब कुछ चमक रहा था, हर तरफ़ सफ़ाई का शोर था। लेकिन क्या आपने कभी सोचा, इन 66 करोड़ लोगों ने जो 'कचरा' छोड़ा, उसका क्या हुआ? क्या वाकई सरकार के दावों में दम था, या यह सिर्फ़ 'झूठे प्रचार' का एक और पुलिंदा था?

सरकार ने बड़े-बड़े दावे किए: "30 हज़ार मीट्रिक टन कचरा पैदा हुआ, लेकिन सबका 'वैज्ञानिक' तरीके से निपटारा किया गया!" 30 हज़ार मीट्रिक टन? ज़रा अंदाज़ा लगाइए, ये लगभग साढ़े छह हज़ार एशियाई हाथियों के कुल वज़न के बराबर है।सोचिए, इतने विशाल कचरे का ढेर कहाँ गया? क्या यह सच में 'गायब' हो गया, या सिर्फ़ 'दावे' कागज़ों तक ही सीमित रह गए? BBC की टीम ने इसी 'अंधेरे सच' को सामने लाने के लिए एक 'खतरनाक' प्रयोग किया, जिसने सरकार के 'स्वच्छता मॉडल' की पोल खोल दी है! उनकी 'अंडरकवर' रिपोर्ट में जो सामने आया है, उसे देखकर आपके होश उड़ जाएंगे और 'स्वच्छ भारत' की असलियत पर सवाल खड़े हो जाएंगे।

महाकुंभ के कचरे का 'रहस्यमयी' सफ़र: BBC के GPS ट्रैकर ने खोले राज़

महाकुंभ में सफ़ाई के बड़े-बड़े दावों की हक़ीक़त जानने के लिए BBC की टीम ने 29 जनवरी को एक 'गुप्त ऑपरेशन' चलाया। उन्होंने दो जीपीएस ट्रैकर अलग-अलग प्रकार के कचरे में छिपाकर कुंभ मेला क्षेत्र में छोड़ दिए। उनका मकसद सिर्फ़ यह जानना था कि 'सबसे बड़े धार्मिक आयोजन' का 'सबसे बड़ा कचरा' आखिर कहाँ पहुँचता है? क्या उसे वाकई 'वैज्ञानिक तरीके' से निपटाया जाता है, या वह सिर्फ़ एक जगह से दूसरी जगह 'स्थानांतरित' कर दिया जाता है? उन्होंने अपना पहला जीपीएस ट्रैकर एक 'डायपर' के साथ रखा। महाकुंभ में लाखों छोटे बच्चे आते हैं, और डायपर एक ऐसा आम कचरा है जिसे गलने में पाँच सौ साल तक लग सकते हैं। दूसरा जीपीएस ट्रैकर उन्होंने चिप्स के पैकेट और प्लास्टिक के अन्य कचरे में डाला, जो पर्यावरण में 20 से 500 साल तक बना रह सकता है। अब उनका मिशन था इन 'कचरा-ट्रैकर्स' की यात्रा को देखना और उस 'अंधेरे सच' को उजागर करना, जिसे सरकार 'चमकदार दावों' के पीछे छिपा रही थी।

सफ़ाईकर्मियों की मेहनत और 'अधूरा काम'

BBC की जीपीएस ट्रैकिंग सबसे पहले रामसजीवन और उनके सफ़ाईकर्मी गैंग तक पहुँची। सरकारी अधिकारियों के मुताबिक, महाकुंभ में सफ़ाई के लिए 15 हज़ार से अधिक सफ़ाईकर्मियों को दिन-रात काम पर लगाया गया था। रामसजीवन, जो पिछले 18 सालों से मेले का कचरा उठा रहे हैं, बताते हैं कि उनका गैंग सुबह चार बजे से दोपहर दो बजे तक काम करता रहा।वे फूल, माला, नारियल से लेकर बच्चों के डायपर तक सब कुछ उठाते रहे। और इसे लाइनर बैग में डालकर एक जगह इकट्ठा करते हैं, जहाँ से कचरा गाड़ियाँ इसे ले जाती हैं।

इसके बाद जीपीएस उन्हें अमन और रोहित की टीम तक लेकर गया, जो रामसजीवन जैसे सफ़ाईकर्मियों द्वारा इकट्ठे किए गए कचरे को छोटी गाड़ियों में भरकर ट्रांसफर स्टेशन तक पहुँचाते हैं। रोहित बताता है कि उसकी ड्यूटी सुबह तीन बजे से 11 बजे तक होती है। वे अलग-अलग स्थानों से कचरा इकट्ठा कर ट्रांसफर स्टेशन तक पहुँचाते हैं। यह दिखाता है कि ज़मीनी स्तर पर सफ़ाईकर्मी कितनी कड़ी मेहनत करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि उनकी यह मेहनत आखिर कहाँ जाकर 'धूल' में मिल जाती है?

एक श्रद्धालु का 'कचरा बोझ' और सरकारी अधिकारियों के 'दावे'

इसी पड़ताल के दौरान BBC ने यह भी जानने की कोशिश की कि आखिर एक श्रद्धालु ने एक दिन में कितना कचरा पैदा किया? प्रयागराज के ही रजत मिश्रा ने इस सवाल का जवाब ढूँढने में मदद की। रजत ने दिन भर मेला घूमकर अपने द्वारा पैदा किए गए कचरे को इकट्ठा किया। रजत बताते हैं कि कुंभ में ज़्यादातर लोग बाहर से आते हैं, इसलिए उनके पास डिस्पोजेबल चीजें ज़्यादा होती हैं — जैसे पानी की बोतलें, अंडरगारमेंट्स, डायपर, पूजा का सामान। स्नान के बाद या व्यस्तता के कारण लोग अक्सर मेला क्षेत्र में ही कचरा फेंक देते हैं।

इससे पहले कि BBC की टीम कचरे के सफ़र में जीपीएस के अगले पड़ाव पर जाती। उन्होंने महाकुंभ मेला की सफ़ाई और स्वास्थ्य अधिकारी आकांक्षा राणा से बात की। आकांक्षा राणा ने दावा किया, "महाकुंभ में 65 करोड़ श्रद्धालु आए थे। उसी हिसाब से हमने तैयारी की थी कि इस आयोजन से निकलने वाले कचरे का निपटारा कैसे किया जाएगा… 10 हज़ार सफ़ाई कर्मचारी सॉलिड वेस्ट और लगभग 5 हज़ार सफ़ाई कर्मचारी टॉयलेट की सफ़ाई के लिए शामिल किए गए थे। हमारी टीमें दिन-रात लगी रहीं। अब तक 18 हज़ार मीट्रिक टन कचरा हमने बसवार पहुँचाया है।" यह बात उन्होंने 26 फ़रवरी को कही थी। जब टीम ने उनसे अपने जीपीएस से लैस 'डायपर' वाले कचरे के भविष्य के बारे में पूछा, तो उनका जवाब चौंकाने वाला था: "हमारा काम कचरे को बसवार तक पहुँचाना है। उसके आगे नगर निगम ज़िम्मेदार है। डायपर भी बसवार पहुँचेगा और उसके आगे वहीं प्रोसेस होगा।" यानी, सफ़ाई और स्वास्थ्य अधिकारी के पास इस बात का जवाब नहीं था कि महाकुंभ के बाद कचरे का अंततः क्या होगा! क्या ये सिर्फ़ 'हाथ झाड़ना' था या हक़ीक़त में कोई ठोस योजना ही नहीं थी?

बसवार प्लांट: 'कचरा निपटान' का वादा या 'कचरे का पहाड़'?

जीपीएस ट्रैकर कुंभ के इलाक़े से निकलकर आखिर में प्रयागराज के बसवार गाँव स्थित वेस्ट डिस्पोज़ल प्लांट तक पहुँचे। यह प्लांट साल 2011 में बना था। लेकिन इस पर सालों से सिर्फ़ एक 'डंपिंग ग्राउंड' बनकर रह जाने के आरोप लगते रहे हैं। आरोप है कि यहाँ कचरे का निपटान सही तरीक़े से नहीं हो पा रहा है, बल्कि सिर्फ़ कचरे के पहाड़ खड़े हो रहे हैं। बसवार वेस्ट डिस्पोज़ल प्लांट में फिलहाल चार कंपनियों को ठेका मिला हुआ है। कुंभ के कचरे के निष्पादन का ठेका इकोस्टैन नामक कंपनी को दिया गया है। इकोस्टैन प्लांट के प्रोजेक्ट मैनेजर उदय कुमार ने बताया, "हमारे पास कुंभ के दौरान प्रतिदिन लगभग 400 मीट्रिक टन कचरा आया। इसमें से 40% ऑर्गेनिक मटेरियल, 30% रिफ्यूज़ड डिराइव्ड फ़्यूल (आरडीएफ़) और 30% इनर्ट मटेरियल था।"

कचरे के प्रकार और 'सरकारी' दावे: आरडीएफ़, कंपोस्ट और सी एंड डी वेस्ट

बसवार पहुँच रहे कचरे को तीन मुख्य प्रकारों में अलग किया जाता है:

• रिफ्यूज़ड डिराइव्ड फ़्यूल (आरडीएफ़): यह वह कचरा है जिसे डिस्पोज़ नहीं किया जा सकता, जैसे पॉलीथीन, प्लास्टिक की बोतलें और कपड़े। अधिकारियों का दावा है कि इसे सीमेंट फ़ैक्ट्रियों और अन्य उद्योगों में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

• कंपोस्ट: इसमें फूल, माला, दीप, अगरबत्ती, पूजा की अन्य सामग्रियाँ और खाद्य पदार्थ शामिल हैं। इससे ऑर्गेनिक खाद बनाई जाती है और आसपास के ग्रामीणों को देने का दावा किया जाता है।

• कंस्ट्रक्शन एंड डिमोलिशन (सी एंड डी) वेस्ट: बिल्डिंग, सड़कों के निर्माण और मरम्मत से निकलने वाला मलबा।

• इनर्ट वेस्ट: काँच, प्लास्टर आदि वाला कचरा।

सरकारी दावों के मुताबिक, आरडीएफ़ को फ़ैक्ट्रियों में भेजा जाता है और कंपोस्ट ग्रामीणों को दिया जाता है। लेकिन बसवार में 'ज़मीनी हक़ीक़त' कुछ और ही कहानी कहती है...

बसवार के लोगों का 'दर्दनाक सच': क्या एक जगह से उठाकर दूसरी जगह रख देने को सफ़ाई कहते हैं?

कुंभ मेले के कचरे का बसवार प्लांट तक पहुँचना तो 'सफ़ाई अभियान' का हिस्सा लग सकता है, लेकिन असली सवाल है कि बसवार पहुँचने के बाद इस कचरे का क्या होता है? इसी सवाल का जवाब बसवार के ग्रामीणों से मिला, जिसने 'स्वच्छता' के सारे दावों को खोखला साबित कर दिया। बसवार प्लांट से बमुश्किल तीन सौ मीटर दूर बसे धर्मराज पाल बताते हैं, "जो मक्खी कूड़े पर बैठती है, वही मक्खी हमारी थाली पर पहुँच जाती है। यह कितनी गंभीर समस्या है, लेकिन न इसके लिए कोई दवा है और न ही कोई समाधान है। इसकी वजह से बीमारियाँ फैल रही हैं, जो पहले इतनी गंभीर नहीं होती थीं।" धर्मराज आगे कहते हैं, "कूड़े से निकलने वाली दुर्गंध इतनी तेज़ होती है कि आदमी को घुटन महसूस होती है। अगर किसी को पहले से ही साँस लेने में दिक़्क़त है, तो यह स्थिति और भी ख़राब हो जाती है। जब यह कूड़ा नहीं था, उसके पहले से हम यहाँ हैं। जब से यहाँ गिरने लगा है, तब से हम यहाँ परेशानियों के बीच रहने को मजबूर हैं।"

प्रियंका पाल, जो तीन साल पहले इस गाँव में ब्याह कर आई थीं, कहती हैं, "कभी-कभी लगता है कि कहाँ आ गई हूँ। दिन भर कचरे की दुर्गंध से घुटन होती है। बच्चों की सेहत पर असर पड़ रहा है।" यहाँ के लोग बढ़ती हुई बीमारियों, बच्चों के सफ़ेद होते बाल, चमड़ी पर होने वाले फोड़े-फुंसियों और अस्पतालों के बढ़ते चक्करों का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि कचरे का सही निष्पादन न होना ही उनकी बदहाली का मुख्य कारण है।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का संदेह और नगर निगम के 'झूठे' दावे

जहाँ एक तरफ़ महाकुंभ के कचरे का बसवार प्लांट पहुँचने के बाद सवाल खड़े होते हैं, वहीं इसी प्लांट में मौजूद पुराने कचरे पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने जनवरी 2025 में ही गंभीर सवाल उठाए थे। 20 जनवरी को एनजीटी ने प्रयागराज नगर निगम से पूछा था कि सालों से पड़ा कचरा अचानक कहाँ चला गया? ट्रिब्यूनल ने सवाल उठाया कि 40 लाख लोगों की आबादी वाले इस शहर में प्रतिदिन कितना कचरा निकलता है और उसका निपटान कैसे किया जा रहा है? इसके जवाब में नगर निगम ने दावा किया कि पुराने कचरे को सीमेंट कंपनियों को भेजा गया है। हालाँकि, वे यह बताने में असफल रहे कि किन कंपनियों को यह कचरा दिया गया। यह 'झूठा दावा' नगर निगम की लापरवाही और कचरा निपटान में पारदर्शिता की कमी को उजागर करता है।

और इस तरह कचरा पहुँचा 200 किलोमीटर दूर 'सतना'

इन सबके बीच, तीसरे जीपीएस ट्रैकर ने एक और चौंकाने वाला राज़ खोला। ऐसे ही आरडीएफ़ वेस्ट से भरे कचरे की गाड़ी में हमारा तीसरा ट्रैकर रखा गया था, और उसने बसवार से 200 किलोमीटर दूर मध्यप्रदेश के सतना शहर के एक सीमेंट प्लांट तक पहुँचा दिया। इस सीमेंट प्लांट के अधिकारियों ने आधिकारिक तौर पर टिप्पणी करने से मना कर दिया, लेकिन उन्होंने अनौपचारिक तौर पर बताया कि यहाँ आरडीएफ़ कचरे का इस्तेमाल ईंधन के तौर पर किया जाता है, और इसमें डायपर भी शामिल रहते हैं। इसका मतलब है कि 'बेस्ट डिस्पोज़ल' के नाम पर कचरे को बस एक जगह से दूसरी जगह 'शिफ्ट' किया जा रहा है, और फिर उसे ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि उसका 'वैज्ञानिक' निपटान करने का दावा किया गया था।

नगर निगम कमिश्नर के दावे बनाम 'ज़मीनी हक़ीक़त'

सतना से लौटकर हम ग्रामीणों की परेशानियों और बसवार में अपनी आँखों देखी के साथ प्रयागराज के नगर निगम कमिश्नर चंद्र मोहन गर्ग के पास पहुँचे। उनसे कुंभ के कचरे से जुड़े कुछ सवाल किए। सबसे पहले उनसे पूछा गया कि कुंभ के कचरे के मैनेजमेंट के लिए क्या व्यवस्था की गई थी? इसके जवाब में कमिश्नर चंद्र मोहन गर्ग ने दावा किया, "कचरे के सही निष्पादन के लिए दो साल पहले से तैयारी शुरू कर दी थी। इसलिए जो भी कचरा पैदा हुआ, उसका 100% डिस्पोज़ल कर दिया गया है।" नगर कमिश्नर के मुताबिक, महाकुंभ के दौरान 30 हज़ार मीट्रिक टन कचरा पैदा हुआ था, और उनका दावा है कि सब का निपटान हो गया। ग्रामीणों की परेशानियों पर वह कहते हैं, "आप जाकर अभी बात कीजिए तो गाँव के लोग आपको ख़ुश मिलेंगे। पहले वहाँ पर काफ़ी कचरा इकट्ठा था, लेकिन हमने कुंभ और भविष्य को देखते हुए, वहाँ कचरे के वैज्ञानिक तरीक़े से डिस्पोज़ल के लिए सभी उपयुक्त व्यवस्थाएँ की हैं। जो बचा-खुचा है, उसे भी जल्द ही डिस्पोज़ कर दिया जायेगा।"

लेकिन जब हम नगर निगम के एक अधिकारी, पर्यावरण अभियंता उत्तम कुमार वर्मा, के साथ उस जगह पहुँचे, जहाँ कथित तौर पर 'खुशहाल ग्रामीण' रहते हैं, तो हमने लैंडफ़िल पर बिना प्रोसेस किए फेंका हुआ कचरा अपनी आँखों से देखा। हमने उनसे धर्मराज का सवाल दोहराया। उनका जवाब था, "ये कचरा नहीं है… ये लेगेसी वेस्ट है… दरअसल पुरानी खाद जो अब बायोसॉइल बन गई है। उसे किसानों की माँग के चलते वहाँ निचली भूमि में डाला गया है।" हालाँकि, BBC की पड़ताल में यह देखने को मिला कि गाँव से सटे हुए ही कचरे के बड़े-बड़े डंपिंग ग्राउंड बने हुए हैं। इनमें कहने को तो इनर्ट कचरा और कंपोस्ट है, लेकिन देखने पर पन्नियों के ढेर, प्लास्टिक बोतलें और यहाँ तक कि डायपर भी साफ़ दिखाई पड़ते हैं।

धर्मराज पाल ने आरोप लगाया, "यहाँ कहने को तो कचरे की प्रोसेसिंग कर रहे हैं, लेकिन प्रोसेसिंग क्या है, आपको सामने नज़र आएगी। आप देख लीजिए मेरे घर के ठीक बगल में कचरा डंप किया गया है जिसमें प्लास्टिक और बोतल सब दिखेगा। ये सब तो नष्ट होने वाली चीज़ नहीं हैं? फिर ये हमारे घर के पास ज़मीन में क्यों दफ़नाया जा रहा है?" बसवार की वंदना निषाद कहती हैं, "इस कचरे से हमें सिर्फ़ बर्बादी मिली है। इससे हमारे यहाँ बीमारियाँ बढ़ गई हैं। बच्चों के बाल सफ़ेद हो रहे हैं। लोगों के शरीर पर फोड़े होने लगे हैं।" धर्मराज आगे आरोप लगाते हैं, "सरकार सिर्फ़ कचरे को एक जगह से उठाकर दूसरी जगह रख देने को सफ़ाई अभियान की सफलता बता रही है। जबकि कचरे का सही तरह से डिस्पोज़ल होना चाहिए, जो नहीं हो रहा है।"

सरकार का 'झूठा' दावा और GPS ट्रैकर का 'सच'

सरकारी दावों के मुताबिक, कुंभ मेले से पैदा हुए कचरे का 45 दिनों के भीतर पूर्णतः निपटान हो जाता है। लेकिन पड़ताल में यह दावा पूरी तरह 'झूठा' साबित हुआ है। BBC द्वारा 29 जनवरी को छोड़ा गया जीपीएस से लैस कचरा, 23 मई को यानी 114 दिनों बाद भी बसवार प्लांट में पड़ा हुआ मिला। इतना ही नहीं, जनवरी 2025 में सरकार ने दावा किया था कि बसवार प्लांट में 'मियावाकी तकनीक' का उपयोग करके नौ हज़ार वर्ग मीटर क्षेत्र में एक सघन वन तैयार किया गया है। हालाँकि, जब BBC की टीम वहाँ पहुँची, तो वहाँ जंगल का कोई नामो-निशान नहीं था। यह 'फर्जी दावा' सरकार के स्वच्छता अभियान की पोल खोलता है।

सरकार का कहना है कि हर ग्राम कचरे का निपटान वैज्ञानिक तरीक़े से किया गया। लेकिन वास्तव में, जीपीएस ट्रैकिंग दिखाती है कि कचरा केवल एक जगह से दूसरी और दूसरी से तीसरी जगह 'शिफ़्ट' हुआ। अगर सरकार का कचरे के वैज्ञानिक प्रोसेसिंग का दावा सही होता, तो ये जीपीएस ट्रैकर कब के नष्ट हो गए होते। लेकिन BBC की जीपीएस ट्रैकिंग एक अलग ही कहानी बयान करती है – एक ऐसी कहानी जो बसवार की मिट्टी में अब भी दबी हुई है, और जो 'स्वच्छ महाकुंभ' के दावों पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती है! क्या 'रिकॉर्ड' बनाने की होड़ में हमने अपनी धरती को 'कचरागाह' बना दिया है? यह सवाल सिर्फ़ महाकुंभ का नहीं, बल्कि पूरे देश के 'स्वच्छता अभियान' का है।

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Harsh Srivastava

News Coordinator and News Writer

Harsh Shrivastava is an enthusiastic journalist who has been actively writing content for the past one year. He has a special interest in crime, politics and entertainment news. With his deep understanding and research approach, he strives to uncover ground realities and deliver accurate information to readers. His articles reflect objectivity and factual analysis, which make him a credible journalist.

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