×

Supreme Court Ka Itihas: भारत के सर्वोच्च न्यायालय का इतिहास, अधिकार और भूमिका

Supreme Court Ka Itihas: यह लेख भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संरचना, कार्य, अधिकार और ऐतिहासिक महत्व को विस्तार से प्रस्तुत करता है। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और लोकतंत्र में उसकी भूमिका को रेखांकित करता है।

Shivani Jawanjal
Published on: 12 July 2025 9:10 AM IST (Updated on: 12 July 2025 9:10 AM IST)
Supreme Court Ka Itihas
X

Supreme Court Ka Itihas (Photo - Social Media)

History Of Supreme Court: भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और संतुलन का आधार जिन स्तंभों पर टिका है, उनमें न्यायपालिका की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस न्यायिक व्यवस्था की सर्वोच्च इकाई है - भारत का सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India)। यह केवल एक संवैधानिक अदालत नहीं बल्कि वह संस्था है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ सरकार के तीनों प्रमुख अंगों - कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने का कार्य भी करती है। सुप्रीम कोर्ट भारतीय लोकतंत्र की न्यायिक आत्मा के रूप में कार्य करता है जो संविधान की व्याख्या, उसकी मर्यादा और उसकी रक्षा करने वाला अंतिम प्रहरी है।

स्थापना और इतिहास


भारत के सुप्रीम कोर्ट की स्थापना 28 जनवरी 1950 को की गई, जो कि भारतीय गणराज्य घोषित होने के महज दो दिन बाद का ऐतिहासिक दिन था। इससे पहले देश में ‘फेडरल कोर्ट ऑफ इंडिया’ कार्यरत था, जिसकी स्थापना 1 अक्टूबर 1937 को ब्रिटिश शासन के दौरान की गई थी। स्वतंत्रता प्राप्ति और संविधान लागू होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फेडरल कोर्ट का स्थान लिया और भारत की न्यायपालिका के सर्वोच्च निकाय के रूप में स्थापित हुआ। सुप्रीम कोर्ट की पहली बैठक नई दिल्ली के पुराने संसद भवन परिसर में स्थित नरेंद्र मंडल (चेंबर ऑफ प्रिंसेज़) में आयोजित की गई थी। वर्ष 1958 में सुप्रीम कोर्ट को उसके वर्तमान भवन नई दिल्ली के तिलक मार्ग पर स्थित भव्य और विशाल परिसर में स्थानांतरित किया गया। यह भवन न केवल स्थापत्य की दृष्टि से विशेष है बल्कि आज भी यह भारत की न्यायिक प्रणाली का मुख्य केंद्र और संविधान के संरक्षण का प्रतीक स्थल बना हुआ है।

संविधान में स्थिति

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 तक सुप्रीम कोर्ट से संबंधित विभिन्न प्रावधानों का विस्तृत वर्णन किया गया है, जिनमें न्यायालय की संरचना, न्यायाधीशों की नियुक्ति, कार्यकाल, वेतन, अधिकार और कार्यक्षेत्र शामिल हैं। अनुच्छेद 124 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में एक मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India - CJI) और अधिकतम 33 अन्य न्यायाधीश नियुक्त किए जा सकते हैं, यानी कुल मिलाकर 34 न्यायाधीशों की व्यवस्था है। प्रारंभिक संविधान में यह संख्या केवल 8 (1 मुख्य न्यायाधीश और 7 अन्य न्यायाधीश) निर्धारित की गई थी लेकिन समय के साथ न्यायिक आवश्यकता एवं कार्यभार को देखते हुए संसद द्वारा संशोधन के माध्यम से न्यायाधीशों की संख्या को बढ़ाकर वर्तमान स्तर तक लाया गया।

संरचना


भारत के सुप्रीम कोर्ट का नेतृत्व मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India) करते हैं। जिनके साथ अधिकतम 33 अन्य न्यायाधीश होते हैं, जिससे कुल न्यायाधीशों की संख्या 34 हो जाती है। इन न्यायाधीशों की नियुक्ति भारतीय राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 124(2) के अंतर्गत की जाती है। हालांकि नियुक्ति की प्रक्रिया में कोलेजियम प्रणाली का पालन होता है, जिसमें मुख्य न्यायाधीश के साथ सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं। यह कोलेजियम नए न्यायाधीशों के नामों की अनुशंसा करता है। दिलचस्प तथ्य यह है कि भारतीय संविधान में ‘कोलेजियम’ शब्द का कोई उल्लेख नहीं है। यह प्रणाली सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णयों और व्याख्याओं के माध्यम से न्यायिक परंपरा के रूप में विकसित हुई है।

मुख्य कार्य और अधिकार


मौलिक अधिकारों की रक्षा (Writ Jurisdiction) - संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत यदि किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो वह सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकता है। यह अधिकार 'संवैधानिक उपचार का अधिकार' (Right to Constitutional Remedy) कहलाता है। इस अनुच्छेद के तहत सुप्रीम कोर्ट पांच प्रकार की रिट्स (Habeas Corpus, Mandamus, Prohibition, Quo Warranto, Certiorari) जारी कर सकता है, जिनके माध्यम से नागरिकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित होती है।

अपील की सुनवाई (Appellate Jurisdiction) - सुप्रीम कोर्ट देश की उच्चतम अपीलीय अदालत है जो हाई कोर्ट या अन्य निचली अदालतों से आए सिविल, आपराधिक और संवैधानिक मामलों में अंतिम अपील सुनती है। यह अधिकार संविधान में विभिन्न अनुच्छेदों द्वारा दिया गया है, जिससे यह न्यायिक निर्णयों की अंतिम कसौटी बन जाती है।

संवैधानिक व्याख्या (Constitutional Interpretation) - सुप्रीम कोर्ट को संविधान की धाराओं, अधिकारों और कर्तव्यों की अंतिम व्याख्या करने का विशेषाधिकार प्राप्त है। संविधान में कहीं अस्पष्टता हो या विभिन्न धाराओं में टकराव हो, तो सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होता है।

सलाहकारी अधिकार (Advisory Jurisdiction) - अनुच्छेद 143 के तहत भारत के राष्ट्रपति किसी भी महत्वपूर्ण कानूनी या संवैधानिक प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट से सलाह ले सकते हैं। हालांकि यह सलाह बाध्यकारी नहीं होती फिर भी यह सरकार को मार्गदर्शन देने में सहायक होती है।

विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition - SLP) - अनुच्छेद 136 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार प्राप्त है कि वह किसी भी निचली अदालत या ट्राइब्यूनल के निर्णय के विरुद्ध विशेष अनुमति याचिका स्वीकार कर सके। यह एक असाधारण शक्ति ह जो सुप्रीम कोर्ट को न्यायिक हस्तक्षेप का लचीलापन प्रदान करती है।

न्यायिक स्वतंत्रता और निष्पक्षता

सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता भारतीय लोकतंत्र की आत्मा और उसकी निष्पक्षता की सबसे बड़ी गारंटी है। सुप्रीम कोर्ट की सबसे बड़ी ताकत उसकी स्वतंत्रता है, जिससे वह बिना किसी दबाव के संविधान और नागरिक अधिकारों की रक्षा कर सकता है। न्यायाधीशों को अनुच्छेद 124(4) के तहत केवल महाभियोग जैसी कठिन प्रक्रिया से ही हटाया जा सकता है, जो उनकी निष्पक्षता और स्वतंत्रता की गारंटी देती है। यह प्रक्रिया इतनी कठोर है कि अब तक इसके जरिए किसी भी सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश को सफलतापूर्वक नहीं हटाया गया है। यही स्वतंत्रता और सुरक्षा न्यायपालिका को न केवल निष्पक्षता से निर्णय लेने की शक्ति देती है, बल्कि उसे संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखने में सक्षम भी बनाती है।

महत्वपूर्ण निर्णय और ऐतिहासिक मामले

सुप्रीम कोर्ट ने अनेक ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं, जिनसे भारत की दिशा और दशा प्रभावित हुई है।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) - इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने 'संविधान की मूल संरचना' (Basic Structure Doctrine) का सिद्धांत प्रतिपादित किया। अदालत ने स्पष्ट किया कि संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार तो है, लेकिन वह संविधान की मूल भावना या ढांचे को समाप्त नहीं कर सकती। यह निर्णय संविधान की स्थिरता और उसकी आत्मा की रक्षा की दिशा में एक मील का पत्थर है।

मेनका गांधी बनाम भारत सरकार (1978) - इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) की व्यापक व्याख्या की। अदालत ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता से केवल कानून द्वारा निर्धारित न्यायिक प्रक्रिया (due process of law) के अनुसार ही वंचित किया जा सकता है। इस फैसले ने भारत में नागरिक स्वतंत्रताओं की व्याख्या को एक नया आयाम दिया।

शाहबानो केस (1985) - इस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने एक मुस्लिम महिला, शाहबानो बेगम, को तलाक के बाद गुज़ारा भत्ता (maintenance) देने का ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। यह फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ और समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) को लेकर राष्ट्रीय बहस का केंद्र बन गया और महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ।

बाबिता पुनिया केस (2020): - सशस्त्र बलों में लैंगिक समानता को लेकर एक ऐतिहासिक निर्णय 'सेक्रेटरी, मिनिस्ट्री ऑफ डिफेंस बनाम बाबिता पुनिया व अन्य' केस में आया। सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का निर्णय सुनाया जिससे सेना में महिलाओं की भागीदारी और अधिकारों को मजबूती मिली। यद्यपि 2022 में भी महिलाओं के पक्ष में फैसले आए, परन्तु स्थायी कमीशन से जुड़ा यह सबसे बड़ा फैसला वर्ष 2020 में ही हुआ।

सुप्रीम कोर्ट और जनहित याचिकाएं (PIL)

जनहित याचिका (Public Interest Litigation - PIL) भारतीय न्यायपालिका की एक अनोखी और सशक्त प्रक्रिया है, जो समाज के वंचित, पीड़ित और कमजोर वर्गों को न्याय दिलाने का माध्यम बन चुकी है। इसके अंतर्गत कोई भी नागरिक या संस्था सामाजिक हित से जुड़े ऐसे मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट में याचिका दायर कर सकता है, जिनका सीधा संबंध जनता के मूलभूत अधिकारों और कल्याण से हो। PIL की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इससे उन लोगों को भी न्याय मिल सकता है जो स्वयं अदालत तक नहीं पहुँच सकते जैसे गरीब, असहाय, बच्चे, महिलाएं या पर्यावरण से संबंधित पीड़ित समूह।

पिछले कुछ दशकों में PIL के माध्यम से कई ऐतिहासिक फैसले सामने आए हैं। पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में गंगा नदी की सफाई, वायु प्रदूषण नियंत्रण और औद्योगिक कचरे पर रोक जैसे मामलों में अदालत ने हस्तक्षेप किया। महिलाओं के अधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा के लिए विशाखा गाइडलाइंस लागू कीं और महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया। भ्रष्टाचार के मामलों में सरकारी घोटालों और सार्वजनिक धन के दुरुपयोग को उजागर करने वाली PIL ने प्रशासनिक जवाबदेही को मजबूती दी। इसके अलावा बाल श्रम निषेध, बेघर और गरीब लोगों के अधिकार, भोजन और शिक्षा का अधिकार जैसे अनेक विषयों पर भी PIL के माध्यम से महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए, जिन्होंने भारतीय समाज को न्याय और समानता की ओर अग्रसर किया।

सुप्रीम कोर्ट की आलोचनाएं और चुनौतियाँ

हालांकि सुप्रीम कोर्ट भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला और न्याय व्यवस्था की सबसे ऊँची संस्था है लेकिन इसे कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में 80,000 से अधिक मामले लंबित हैं, जो न्याय में देरी की गंभीर समस्या को दर्शाते हैं। हाल के वर्षों में मामलों के निपटारे की दर में सुधार हुआ है परंतु यह संकट अब भी बना हुआ है, जिससे आम नागरिकों को समय पर न्याय नहीं मिल पाता। इसके अतिरिक्त कोलेजियम प्रणाली की पारदर्शिता को लेकर भी लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति की यह प्रणाली संविधान में नहीं लिखी गई बल्कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से विकसित हुई है। लेकिन इसकी प्रक्रिया अक्सर गोपनीय मानी जाती है, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही पर बहस चलती रहती है। वहीं कुछ संवेदनशील मामलों, विशेष रूप से सरकार से जुड़े मुद्दों पर सुनवाई के दौरान, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर भी सवाल उठते हैं। आलोचकों का मानना है कि राजनीतिक दबाव या प्रभाव की आशंका पूरी तरह नकारना कठिन है। इन सभी चुनौतियों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट आज भी संविधान की रक्षा में एक मजबूत प्रहरी के रूप में कार्य कर रहा है और लोकतांत्रिक व्यवस्था की गरिमा बनाए रखते हुए नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है।

नवाचार और डिजिटल न्याय प्रणाली

COVID-19 महामारी के दौरान जब पूरा देश ठहर सा गया था, तब सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक प्रक्रिया को बाधित होने से बचाने के लिए वर्चुअल हियरिंग की ऐतिहासिक शुरुआत की। 6 अप्रैल 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश की अदालतों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से कार्यवाही संचालित करने के निर्देश दिए, जिससे न्यायिक प्रणाली का डिजिटलीकरण तेजी से हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं हजारों मामलों की सुनवाई ऑनलाइन माध्यम से की और हाई कोर्ट सहित अन्य अदालतों को भी यह व्यवस्था अपनाने के लिए प्रेरित किया। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट के माध्यम से अब मामलों की स्थिति, आदेश, कैलेंडर और केस लिस्टिंग जैसी जानकारियाँ आम नागरिकों के लिए सुलभ हो गई हैं। इस डिजिटल बदलाव ने न केवल न्यायिक प्रणाली को अधिक पारदर्शी बनाया बल्कि नागरिकों की सहभागिता और न्याय तक पहुँच को भी काफी हद तक सशक्त किया है। यह परिवर्तन न्याय की दक्षता, पारदर्शिता और समयबद्धता की दिशा में एक बड़ा कदम साबित हुआ है।

Start Quiz

This Quiz helps us to increase our knowledge

Admin 2

Admin 2

Next Story