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Science Intresting Story: क्या एक जैसा दिखने वाला दूसरा इंसान हो सकता है? आखिर क्लोनिंग क्या है?
Science Intresting Story: यह लेख पुरातन ग्रंथों में क्लोनिंग जैसी प्रक्रियाओं के संकेतों की पड़ताल करता है और उनकी तुलना आधुनिक विज्ञान से करता है।
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Science Intresting Story: ‘क्लोनिंग’ यह शब्द आज के विज्ञान की एक अविश्वसनीय उपलब्धि है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि आधुनिक विज्ञान के इस चमत्कार का उल्लेख हजारों साल पहले भारत की प्राचीन कथाओं, ग्रंथों और पुराणों में हो चुका था? क्या ऋषि-मुनियों के पास ऐसी कोई विधि थी जिससे वे जीवों की हूबहू प्रतिरूप बना सकते थे? क्या यह केवल परिकल्पना है या इसमें कोई वैज्ञानिक आधार भी छुपा है?
क्लोनिंग क्या है?
क्लोनिंग एक उन्नत वैज्ञानिक विधि है जिसमें किसी जीव के डीएनए का प्रयोग करके उसकी बिल्कुल समान जैविक प्रति तैयार की जाती है। इस प्रक्रिया को 'सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर' (SCNT) कहा जाता है। इस प्रक्रिया में किसी वयस्क जीव की कोशिका जैसे त्वचा या दूध ग्रंथि की कोशिका से न्यूक्लियस निकालकर उसे एक ऐसे अंडाणु में डाला जाता है, जिसका अपना न्यूक्लियस पहले ही हटा दिया गया हो। इसके बाद यह अंडाणु विकास करना शुरू करता है और धीरे-धीरे एक ऐसा जीव बनता है जो डीएनए के स्तर पर मूल जीव की पूरी तरह से समान प्रति होता है।
क्लोनिंग का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण
डॉली नामक भेड़ क्लोनिंग के इतिहास में एक क्रांतिकारी उदाहरण मानी जाती है। उसका जन्म 5 जुलाई 1996 को स्कॉटलैंड के रोसलिन इंस्टीट्यूट में हुआ था और वह विश्व की पहली स्तनपायी थी जिसे किसी वयस्क कोशिका मेमरी ग्लैंड सेल से क्लोन किया गया था। इससे पहले यह माना जाता था कि विभेदित कोशिकाओं के डीएनए से संपूर्ण जीव का निर्माण संभव नहीं है लेकिन डॉली ने इस संकल्पना को गलत साबित किया। उसकी उत्पत्ति में तीन 'माँ' शामिल थीं, एक ने अंडाणु प्रदान किया, दूसरी ने डीएनए दिया और तीसरी ने भ्रूण को गर्भ में धारण किया। डॉली के जन्म की घोषणा 22 फरवरी 1997 को की गई जिसने विज्ञान, नैतिकता और जैव प्रौद्योगिकी की सीमाओं पर वैश्विक विवाद को जन्म दिया।
पुरातन भारत में क्लोनिंग के संभावित संकेत
महाभारत में वर्णित गांधारी की कथा जिसमें उन्होंने दो वर्षों तक गर्भधारण करने के बाद एक मांस का लोथड़ा जन्म दिया, भारतीय ग्रंथों में एक रहस्यमयी और अद्भुत घटना के रूप में प्रस्तुत की जाती है। ऋषि व्यास ने उस मांसपिंड को 101 टुकड़ों में विभाजित कर प्रत्येक टुकड़े को घी और जड़ी-बूटियों से भरे मिट्टी के पात्रों में रखा। समयानुसार इन पात्रों से सौ कौरव पुत्रों और एक पुत्री दुःशला का जन्म हुआ।
अगर हम इस प्राचीन कथा को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें, तो यह घटना क्लोनिंग और इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन (IVF) की संकल्पना से कुछ हद तक मेल खाती दिखती है। क्लोनिंग की प्रक्रिया विशेष रूप से सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर (SCNT) में एक ही स्रोत से कई जैविक नकलें तैयार की जाती हैं, जबकि IVF में निषेचन शरीर के बाहर किया जाता है। गांधारी की कथा में एक ही स्रोत (मांसपिंड) से कई संतानों का जन्म इन तकनीकों की ओर इशारा करता है।
हालांकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह माना जाता है कि यह घटना क्लोनिंग या IVF का प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं है। क्योंकि मांस का वह गोला गांधारी के गर्भ से स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हुआ था और इसमें किसी प्रकार की प्रयोगशाला या कृत्रिम जैव-प्रौद्योगिकी का उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी यह कथा यह संकेत अवश्य देती है कि प्राचीन भारतीय चिंतन में ऐसे विचार और अवधारणाएँ मौजूद थीं, जो आज के आधुनिक विज्ञान से मेल खाती हैं।
प्रायोगिक विज्ञान क्या कहता है?
आज के युग में क्लोनिंग , तकनीकी रूप से संभव है लेकिन यह एक अत्यंत पेचीदा और खतरनाक प्रक्रिया है। डॉली नामक भेड़ इसका सबसे लोकप्रिय उदाहरण है, जिसे वयस्क कोशिका से क्लोन किया गया था। हालांकि इस प्रक्रिया में भ्रूण के असामान्य विकास, अल्प जीवनकाल, बीमारियों और जैविक जटिलताओं जैसी कई समस्याएँ जुड़ी होती हैं। अब तक केवल कुछ जानवरो जैसे भेड़, गाय, बिल्ली, कुत्ते और घोड़े की क्लोनिंग ही सफल रूप से की गई है। मानव क्लोनिंग अब भी एक निषिद्ध क्षेत्र है जिस पर नैतिक, धार्मिक और कानूनी सीमाएँ लगी हुई हैं। इसमें आत्मा के अस्तित्व, व्यक्ति की पहचान, मानव अधिकारों और पारिवारिक-सामाजिक संरचना जैसे गहरे प्रश्न शामिल हैं। जहाँ तक प्राचीन भारतीय कथाओं का संबंध है उन्हें वैज्ञानिक संदर्भों से जोड़ना मुख्यतः सांकेतिक व्याख्या का हिस्सा होता है। इन कथाओं का उद्देश्य वैज्ञानिक विवरण देना नहीं बल्कि नैतिक,आत्मिक और सांस्कृतिक संदेश देना रहा है।
क्या यह भविष्य का विज्ञान है, जो अतीत में था?
पुरातन भारतीय ग्रंथों और दर्शन में समय और विज्ञान की धारणाए अद्भुत गहराई लिए हुए हैं। हिंदू, बौद्ध और जैन परंपराओं में समय को चक्रीय रूप में देखा गया है जहाँ कल्प और मन्वंतर जैसे विशाल समय चक्र तथा सतयुग से कलियुग तक के युग-चक्र, यह संकेत देते हैं कि सभ्यता कई बार विकसित होकर नष्ट हो चुकी है। यद्यपि इन अवधारणाओं के प्रत्यक्ष भूवैज्ञानिक या पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिलते लेकिन इनमें छिपा संकेत वैज्ञानिक कल्पनाओं के समानांतर दिखाई देता है।
रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में विमान, ब्रह्मास्त्र और अद्भुत शक्तियों का उल्लेख मिलता है जिन्हें कुछ विद्वान रूपक मानते हैं, तो कुछ शोधकर्ता इन्हें प्राचीन तकनीक के संकेत के रूप में देखते हैं। समरांगण सूत्रधार में वर्णित पारा-चालित विमान प्रणाली और महाभारत के ब्रह्मास्त्र की तुलना आधुनिक न्यूक्लियर तकनीक से की जाती है। साथ ही कौरवों के जन्म या कर्दम ऋषि की मानस संतानों की कथाएँ आधुनिक क्लोनिंग और IVF जैसी प्रक्रियाओं से मिलती-जुलती प्रतीत होती हैं, हालांकि ये प्रतीकात्मक व्याख्याएँ हैं, जिनका कोई प्रयोगशाला आधारित प्रमाण नहीं है।
प्राचीन भारत की ज्ञान परंपराएँ जैसे सांख्य और योग, चेतना और भौतिक जगत के समन्वय पर बल देती थीं। योगसूत्रों में वर्णित सिद्धियाँ मानसिक अनुशासन से प्राप्त होने वाली क्षमताएँ मानी जाती हैं, जो आज की न्यूरोसाइंस या क्वांटम फिजिक्स की कुछ अवधारणाओं से साम्यता रखती हैं। फिर भी आधुनिक विज्ञान प्रमाण-आधारित होता है जबकि प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ज्ञान आध्यात्मिक और दार्शनिक अनुभवों पर केंद्रित है जिनका तकनीकी विवरण स्पष्ट नहीं है।
क्लोनिंग के संभावित नुकसान
क्लोनिंग से जुड़े नैतिक, धार्मिक और सामाजिक प्रश्न आज भी अत्यंत जटिल और संवेदनशील बने हुए हैं। जीवन की सृष्टि जैसी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने पर यह प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य 'ईश्वर की भूमिका' निभाने का प्रयास कर रहा है? कई धर्मगुरु और दार्शनिक इसे ईश्वरीय नियमों के उल्लंघन के रूप में देखते हैं। भारतीय दर्शन में जीवन को 'प्राण' और 'आत्मा' का समन्वय माना गया है जिसे केवल प्रकृति या ईश्वर ही प्रदान कर सकते हैं। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या एक क्लोन में आत्मा होती है? वैज्ञानिक दृष्टिकोण से क्लोन केवल जैविक रूप से समान होता है लेकिन उसकी चेतना, भावनाएँ और स्वतंत्र निर्णय की क्षमता अलग होती है, उसे किसी 'जैविक मशीन' के रूप में देखना अनुचित होगा
क्लोनिंग से पारिवारिक रिश्तों की पारंपरिक संरचना भी चुनौती में आ सकती है। जहाँ वंश, जन्म और कर्म आधारित पहचान अस्पष्ट हो सकती है। साथ ही इस तकनीक के दुरुपयोग की आशंका जैसे बायोइंजीनियर्ड सैनिक, निजी सेनाएँ या जैविक हथियार भी गंभीर चिंताएँ उत्पन्न करती हैं। क्लोन स्वयं भी मानसिक और भावनात्मक रूप से अपने अस्तित्व, उद्देश्य और पहचान को लेकर अस्थिरता का अनुभव कर सकते हैं। जिससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता है।
कृत्रिम जीवन निर्माण प्रकृति के संतुलन को भी प्रभावित कर सकता है जबकि भारतीय दृष्टिकोण में प्रकृति के नियमों को सर्वोच्च माना गया है। इसके अलावा, क्लोनिंग से समाज में मौलिकता और विविधता पर भी संकट आ सकता है। जिससे मानव जाति में 'एकरूपता' हावी हो सकती है और रचनात्मक विविधता का ह्रास हो सकता है।
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