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Indian Politics: देश की जीत का जनादेश
Indian Politics History: साल 2014 का आम चुनाव नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने अकेले अपने दम पर लड़ा भी और जीता भी, ये बात न सिर्फ देश में हर किसी ने मानी बल्कि दुनिया में भी इसकी खूब चर्चा हुई।
Mandate of Victory for the Country (Image Credit-Social Media)
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कुछ बड़े नेता, विपक्षी दल और स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष ताकतें इस तथ्य को स्वीकार करें या नहीं, परंतु यह निर्विवाद सत्य है कि 2014 का आम चुनाव नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने अकेले दम पर लड़ा और जीता। अतः इस ऐतिहासिक विजय का समस्त श्रेय भी केवल नरेंद्र मोदी को ही जाता है। उनके प्रमुख रणनीतिकार अमित शाह ने जब वाराणसी में यह कहा था कि “यह लहर नहीं, सुनामी है,” तो भाजपा विरोधियों ने उसका उपहास उड़ाते हुए कहा था कि “सुनामी में सब कुछ बह जाता है — भाजपा भी बह जाएगी।”
परंतु 16 मई, 2014 को जब परिणाम आए, तो यह कथन यथार्थ में परिवर्तित हो चुका था — विरोधियों के तंज स्वयं बह चुके थे, और अमित शाह की रणनीतिक सूझबूझ सिद्ध हो चुकी थी। इस सुनामी ने भारत के चुनावी इतिहास को ही बदल दिया।
सुनामी का अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र
नरेंद्र मोदी ने यह साबित कर दिया कि योजनाबद्ध, अनुशासित और दूरदर्शी अभियान कैसे निर्णायक हो सकता है। साबरमती के किनारे से निकल कर गंगा-यमुना के मैदानों तक, मोदी की अपील ने भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को झकझोर दिया।
इस जनादेश का स्पष्ट संदेश यह है कि अब नकारात्मक राजनीति का समय नहीं रहा। राजनीतिक दलों को न केवल जनहित में वादे करने होंगे, बल्कि उन्हें अमल में लाकर परिणाम भी देने होंगे। तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की आड़ में दशकों से जारी तुष्टिकरण की राजनीति को जनता ने नकार दिया है। कांग्रेस, सपा और बसपा जैसी पार्टियाँ, जो 15–18% अल्पसंख्यक मतों के आधार पर सत्ता की राजनीति करती थीं, वे पूरी तरह अस्वीकृत कर दी गईं।
उत्तर प्रदेश की निर्णायक भूमिका
मोदी को यह भली-भांति ज्ञात था कि प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। इसी कारण उन्होंने काशी (वाराणसी) को अपनी कर्मभूमि चुना। राज्य की 80 लोकसभा सीटों पर उन्होंने अपने अभियान की पूरी ताकत झोंक दी।
जब उन्होंने कानपुर से मिशन 272+ की पहली रैली की थी, तभी स्पष्ट हो गया था कि वे समाजवादी पार्टी के गढ़ में भी सेंध लगाने वाले हैं। उनका संवादात्मक भाषण शैली, जनता से सीधा जुड़ाव, और हर रैली में नए-नए मुद्दों को उभारने की क्षमता उन्हें भीड़ में अलग खड़ा करती थी।
“हमलावरों” की रणनीति उलटी पड़ी
2002 के बाद से कांग्रेस और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल लगातार मोदी पर हमले करते रहे। लेकिन इन हमलों ने मोदी के पक्ष में जनसहानुभूति उत्पन्न की। लोगों के मन में सवाल उठने लगे — “जिस एक व्यक्ति पर सभी दल हमलावर हैं, वह आखिर कैसा है?” और जब उन्होंने जानना शुरू किया, तो उन्हें लगा कि मोदी की संघर्ष-गाथा, उनका साधारण बचपन, और आत्मनिर्भरता — सब कुछ भारत के एक आम नागरिक के जीवन से मेल खाता है। इस सामान्यपन ने ही मोदी को असाधारण बना दिया।
कांग्रेस की रणनीतिक चूक
कांग्रेस का पूरा ध्यान मोदी को भय का प्रतीक बताने में लगा रहा — “अगर मोदी आए तो देश टूट जाएगा, अल्पसंख्यक संकट में आ जाएंगे।” परंतु जनता ने देखा कि भाजपा शासित गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और गोवा में शासन और विकास की स्पष्ट तस्वीर थी, जबकि कांग्रेस सरकार पर लगातार भ्रष्टाचार और कुशासन के आरोप लगे।
मोदी पर लगे सभी आरोपों में अदालती फैसले उनके पक्ष में आते गए, जबकि कांग्रेस घोटालों में उलझती चली गई — कोयला घोटाला, 2G घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला जैसे अनेक मामलों ने पार्टी की साख गिरा दी।
संगठित भाजपा बनाम बिखरी विपक्षी राजनीति
मोदी का नारा — “अच्छे दिन आने वाले हैं” — युवाओं और आमजन के मन को गहरे स्तर पर छू गया। दूसरी ओर कांग्रेस और क्षेत्रीय दल न तो कोई स्पष्ट आर्थिक दृष्टि दे पाए और न ही वैकल्पिक नेतृत्व।
उत्तर प्रदेश और बिहार में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण ने जनता को उद्वेलित कर दिया। नीतीश कुमार का भाजपा से गठबंधन तोड़ना और सपा सरकार का खुला तुष्टिकरण दोनों ने जन असंतोष को जन्म दिया।
ऐतिहासिक आंकड़े और नया विमर्श
• 1977 में कांग्रेस को 441 में से 351 सीटें और 43.68% वोट मिले थे।
• 1980 में उसे 353 सीटें और 42.69% वोट प्राप्त हुए थे।
• जबकि 2009 में भाजपा केवल 116 सीटों पर सिमट गई थी (18.80% वोट)।
• 2014 में भाजपा ने अकेले 282 सीटें जीतीं, और गठबंधन मिलाकर 336 — 1984 के बाद यह किसी एक दल की सबसे बड़ी जीत थी।
उत्तर प्रदेश में भाजपा को 71 सीटें मिलीं (सहयोगियों सहित 73), जबकि 2009 में केवल 10। यह एक क्रांतिकारी परिवर्तन था।
राहुल गांधी की नाकामी और विपक्ष का भविष्य
राहुल गांधी ने 2007 और 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में व्यापक प्रचार किया था, पर पार्टी की हैसियत में कोई उल्लेखनीय बढ़ोतरी नहीं हुई। 2014 में उनकी ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की स्थिति वास्तविकता बनती दिखी।
बसपा सुप्रीमो मायावती जातीय समीकरणों पर आधारित रणनीति लेकर चुनावी रण में उतरी थीं, लेकिन संगठनात्मक कमजोरी और जमीनी संपर्क की कमी के कारण पार्टी को शून्य पर सिमटना पड़ा — यह एक ऐतिहासिक पराजय थी।
समाजवादी पार्टी भी अपनी “माई” (मुस्लिम–यादव) सोशल इंजीनियरिंग के बावजूद जनता से जुड़ाव खो चुकी थी। अखिलेश यादव के नेतृत्व की यह विफल शुरुआत रही।
मोदी का राष्ट्रीय विस्तार और नया विमर्श
मोदी ने केवल गुजरात मॉडल को नहीं, बल्कि भाजपा के संगठन को पूरे देश में पुनः स्थापित किया। पूर्वोत्तर में भी भाजपा के लिए रास्ता खुला। मोदी की रणनीति ने यह स्पष्ट कर दिया कि जाति, धर्म, क्षेत्रीय पहचान जैसे पुराने वोट बैंक अब पर्याप्त नहीं हैं।
मीडिया, एग्जिट पोल और आत्मविश्वास
चुनाव परिणामों से ठीक पहले मीडिया पर एग्जिट पोल के नाम पर पक्षपात का आरोप लगाया गया। लेकिन परिणामों ने साबित कर दिया कि मीडिया ने जो दिखाया था, वह जनादेश का ही प्रतिबिंब था। इससे पत्रकारिता की साख भी मजबूत हुई।
अब अगली परीक्षा — अच्छे दिन लाने की
मोदी का “अच्छे दिन” का नारा भाजपा के लिए तो साकार हुआ, लेकिन अब उन अच्छे दिनों को हकीकत में बदलने की चुनौती मोदी के सामने है। विपक्षी खेमे में बैठे बुद्धिजीवी भले ही यह तर्क दें कि “आशाएं और उपलब्धियां अलग चीजें हैं,” पर यह बात उन करोड़ों लोगों के गले नहीं उतरती जिन्होंने मोदी में केवल एक नेता नहीं, बल्कि परिवर्तन की लहर देखी।
उपसंहार
यह जनादेश केवल भाजपा या नरेंद्र मोदी की जीत नहीं है — यह एक विचार की जीत है। यह सकारात्मकता की जीत है। यह तुष्टिकरण और नकारात्मकता को सिरे से नकारने वाली जनता की मुखर अभिव्यक्ति है।
अब यह जनता अपनी आँखों में जो सपने लेकर बैठी है, उन्हें पूरा होते देखना चाहती है। इतिहास ने नरेंद्र मोदी को वह अवसर दिया है — अगर वह इन सपनों को साकार करते हैं, तो यह युग भारत के नवजागरण का युग कहलाएगा।
नोट- यह लेख मूल रूप से 17 मई, 2014 को ‘डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट’ में प्रकाशित हुआ था। इसमें कोई अंश हटाया नहीं गया है, केवल भाषा, प्रवाह और तथ्यों को परिष्कृत किया गया है ताकि यह आज भी उतना ही प्रभावशाली और प्रासंगिक बने।
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