हिमालयी आपदाएँ: प्रकृति का संदेश या मानव जनित त्रासदी?

उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में बढ़ती आपदाएँ बता रही हैं कि हिमालय अब संतुलित विकास की मांग कर रहा है

Dr. Sanjay Singh
Published on: 22 Oct 2025 3:34 PM IST
Himalayan disasters_ nature’s warning or man-made tragedy
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Himalayan disasters_ nature’s warning or man-made tragedy_(Image from Social Media)

उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में हाल ही में आई आपदाओं ने हिमालय की संवेदनशीलता और उसकी नदियों के अस्तित्व पर गहरा संकट खड़ा कर दिया है। मध्य हिमालय से बहने वाली गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियाँ इस विनाशकारी प्राकृतिक घटनाओं की गवाह बन रही हैं। बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं ने न केवल जीवन और संपत्ति को भारी नुकसान पहुँचाया है, बल्कि हिमालय की सेहत और उससे जुड़े मैदानी क्षेत्रों के लिए भी गंभीर खतरे की घंटी बजा दी है।

पूरी घाटी वीरान

2010 से लेकर 2025 तक हिमालयी राज्यों में एक के बाद एक आपदाएँ आती रही हैं। केदारनाथ की त्रासदी (2013) के रूप में देश ने पहली बार उस तबाही को इतने व्यापक पैमाने पर देखा, जहाँ हजारों लोग चंद घंटों में लापता हो गए और पूरी घाटी वीरान हो गई। इसके बाद ऋषिगंगा (2021), जोशीमठ (2023), बालगंगा (2024) और अब 2025 में उत्तरकाशी, कुल्लू, किश्तवाड़ और कठुआ में बादल फटने की घटनाओं ने यह साबित कर दिया है कि हिमालय अब लगातार चेतावनी दे रहा है।

भयावह संकेत

यह चेतावनी केवल पहाड़ों तक सीमित नहीं है; यह पूरे भारतवर्ष के लिए है, जहाँ इन नदियों का पानी जीवन का आधार है। इस वर्ष की ही बात करें, तो जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ ज़िले के चोसिट्टी गाँव में बादल फटने से 67 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई, 300 से ज्यादा लोग घायल हुए और 200 से अधिक लोग लापता हो गए। उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले के धाराली गाँव में खीरगंगा के ऊपरी हिस्से में बादल फटने से कई घर बह गए। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िले की सैंज वैली में सड़कें और पुल टूट गए, जिससे गाँवों का संपर्क पूरी तरह कट गया। जम्मू-कश्मीर के कठुआ ज़िले में भी बादल फटने की घटनाओं ने तबाही मचाई। एक ही वर्ष में इतनी आपदाएँ होना अपने आप में भयावह संकेत है।


जीवन शैली को झटका

इन आपदाओं ने केवल भौतिक नुकसान नहीं पहुँचाया, बल्कि लोगों के मनोबल, उनकी सांस्कृतिक विरासत, धार्मिक यात्राओं और पारंपरिक जीवनशैली को भी गहरा झटका दिया है। जो हिमालय कभी आध्यात्मिकता, शांति और जैव विविधता का प्रतीक माना जाता था, आज वही क्षेत्र आपदा-प्रवण इलाका बनता जा रहा है।

बढ़ता जोखिम

वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो हिमालय विश्व का सबसे युवा पर्वत शृंखला है, जो अब भी भूगर्भीय दृष्टि से सक्रिय है। इंडो-यूरेशियन टेक्टॉनिक प्लेटों के टकराव से बना यह क्षेत्र लगातार खिसकता और बदलता रहता है। इसी वजह से यहाँ भूकंप और भूस्खलन का जोखिम हमेशा बना रहता है। जब इस अस्थिर भूगर्भीय क्षेत्र पर मानवजनित दबाव बढ़ता है—जैसे सुरंगों के लिए विस्फोट, भारी निर्माण कार्य, और अनियंत्रित शहरीकरण—तो यह जोखिम कई गुना बढ़ जाता है।

कैसे फटता है बादल

जलवायु परिवर्तन ने भी हिमालयी आपदाओं की तीव्रता में बढ़ोतरी की है। पिछले दो दशकों में मानसून का स्वरूप बदल गया है। पहले जहाँ वर्षा धीरे-धीरे और लंबे समय तक होती थी, वहीं अब कम समय में अत्यधिक वर्षा होती है। वैज्ञानिक इसे "एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स" कहते हैं। यही स्थिति बादल फटने की घटनाओं को बढ़ा रही है। जब वायुमंडल का तापमान बढ़ता है, तो उसमें अधिक नमी समा जाती है। पहाड़ी इलाकों में जब यह नमी अचानक ठंडी हवाओं से टकराती है, तो भारी वर्षा एक छोटे से इलाके में केंद्रित हो जाती है। यही बादल फटना कहलाता है।

असंतुलन है कारण

हजारों सालों से हिमालय की नदियाँ और पहाड़ संतुलन में थे, लेकिन अब अचानक आपदाएँ बढ़ने का कारण यही असंतुलन है। वनों की कटाई से जल चक्र बिगड़ा है, ग्लेशियरों का सिकुड़ना तेज़ हुआ है और मिट्टी की पकड़ कमजोर हो गई है। इसके कारण बारिश का पानी जमीन में समाने के बजाय सीधे बहकर नदियों में चला जाता है और तबाही मचाता है।

विकास का रास्ता बदलने का समय

ऐसे में सबसे बड़ी आवश्यकता है कि विकास का रास्ता बदला जाए। सड़क निर्माण, जलविद्युत परियोजनाएँ और पर्यटन विस्तार तभी हों जब उनकी पर्यावरणीय वहन क्षमता का वैज्ञानिक आकलन हो चुका हो। वनों का संरक्षण और पुनर्वनीकरण केवल औपचारिक योजना न बने, बल्कि जमीनी स्तर पर लागू किया जाए। स्थानीय समुदायों को आपदा प्रबंधन और संसाधन संरक्षण में भागीदार बनाना भी अनिवार्य है, क्योंकि पहाड़ों में रहने वाले लोग प्रकृति को सबसे अच्छी तरह समझते हैं। हाल ही में देहरादून में जल बिरादरी एवं जल-जन जोड़ो अभियान के द्वारा आयोजित विचार-विमर्श में हिमालयी आपदाएँ, गंगा और यमुना का भविष्य तथा विकास बनाम विनाश जैसे मुद्दों पर गहन चर्चा हुई। इस बैठक में पर्यावरणविदों ने यह स्पष्ट निष्कर्ष निकाला कि हिमालय में किसी भी प्रकार का विकास केवल पर्यावरणीय परिस्थितियों और भूगर्भीय संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए। इस विमर्श से यह अनुशंसा उभरी कि आने वाले समय में हिमालय में प्रकृति-सम्मत और संतुलित विकास ही एकमात्र विकल्प है, अन्यथा विनाशकारी आपदाएँ और बढ़ेंगी।

पर्यावरण पर बोझ न बनें

जलवायु परिवर्तन की वैश्विक चुनौती से निपटने के लिए हमें अपनी जीवनशैली और ऊर्जा खपत में भी बदलाव करना होगा। हिमालय के लिए संतुलित और नियंत्रित पर्यटन नीति आवश्यक है, ताकि धार्मिक यात्राएँ और ट्रेकिंग मार्ग पर्यावरण पर बोझ न बनें।

अगली त्रासदी होगी और भयावह

हिमालय अब हमसे केवल पहाड़ों की सुरक्षा नहीं मांग रहा, बल्कि हमारी सोच, जीवनशैली और विकास के मॉडल पर पुनर्विचार करने के लिए कह रहा है। यदि हमने उसकी चेतावनी को समय रहते सुन लिया, तो संतुलित विकास के सहारे हिमालय पुनः उसी रूप में खड़ा रहेगा जैसा सदियों से रहा है—आध्यात्मिकता, शांति और जीवन का प्रतीक। लेकिन यदि हमने इसे अनसुना किया, तो अगली त्रासदी और भी भयावह हो सकती है।

(लेखक जन-जन जोड़ो अभियान के संयोजक हैं और पिछले तीन दशकों से प्रकृति संरक्षण एवं जन-आंदोलन के माध्यम से पर्यावरणीय संतुलन की दिशा में सतत प्रयासरत हैं।)

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